आज पिताजी को गुजरे पूरा एक महीना हो चुका है। चलो सब कार्य अच्छी तरह से निपट गया। अब मैं भी, पत्नी को साथ लेकर, कहीं तीर्थाटन के लिए जाने की सोच रहा हूं। यह दायित्व भी पूर्ण हुआ, दायित्व ही तो है। मैं मन ही मन अपनी काबिलियत पर खुश हूं, एक जिम्मेदारी को बहुत ही जिम्मेदारी से निभाया। कहीं मन ही मन बहुत खुश होता हूं, जब कोई मेरी प्रशंसा करते हैं कि पूरा श्रवण बेटा है। स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूं, अपने अहम में डूबा हुआ।
कोई रिश्तेदार, बहन, भाई कुछ कहते, कभी याद करते या रोते हैं, तो उन्हें मैं बड़ी सफाई से गीता का ज्ञान देकर चुप करा देता हूं। सही ही तो है, सबको एक दिन जाना है, इसमें नया क्या है? सब मेहमान भी विदा हो चुके हैं। दिनचर्या वापिस अपनी पटरी पर लौट रही है। जीवन अपनी व्यस्त गति से चल रहा है। पिताजी की कुछ जमा पूंजी, पैसे, गहने, कागजात और भी जो कुछ है, वो मेरा ही तो होगा। इस से आगे कभी सोच ही नहीं पाया। फिर भी मन में कुछ खटक रहा है,
कुछ कमी सी है। अब इस व्यस्तता के बावजूद कुछ वीरानगी, कमी सी महसूस होने लगी है कई बार।खासतौर पर ऑफिस से लौटते वक्त, जैसे पिताजी की आंखे बस मेरा ही इंतजार कर रही होती थी, कई बार मैं अपनी बालक बुद्धि के चलते झुंझला भी जाता था, क्यों करते रहते हो मेरा इंतजार, मैं कोई छोटा बच्चा हूं? पिताजी कहते जब नहीं रहूंगा तब समझोगे, पिता का दिल क्या होता है पिता की छत्रछाया क्या होती है, सही कहा था। अब महसूस होने लगा है जब कोई आपके पास है
तब हम उनका महत्व नहीं समझते और जब समझ आती है तब बहुत देर हो चुकी होती है। सब की अपनी दिनचर्या है, बच्चे अपनी पढ़ाई में व्यस्त, पत्नी अपने घर के काम, बाहर, सहेलियों, मंदिर आदि में। धीरे धीरे सब याद आ रहा है।
जब मैं ऑफिस या बाहर जाता तो हमेशा पिता के पैर छूकर ही जाता था। पिता जी भी हमेशा सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते थे, पूछते कुछ खाया कि नहीं। जबकि उनको पता होता था, कि मैं नाश्ता कर चुका हूं फिर भी उनकी अपनी तसल्ली के लिए, ओर फिर ये कहना, बेटा जब भी घर से निकलो, खाकर निकलो। घर खीर तो बाहर खीर। शाम को दीवान पर बैठे मेरा इंतजार करना, मेरे आने पर ही सबके साथ चाय नाश्ता करते हुए पूरे दिन की बातें सुनकर अकेले घूमने निकल जाना, यह उनकी दिनचर्या थी।
लेकिन इन कुछ दिनों से, अपने अंदर मैं अपने पिता को पुनः जीवित होते देख रहा हूं। उसी दीवान पर बच्चों के बाहर जाते समय वैसे ही टोकना, आते ही सारी बातें समझाना, रात को सोते समय बेटे की छाती पर रखी किताब को हटाकर धीरे से चादर को ओढ़ा देना। हां! सच में, मैं तो अब पिता जैसा ही बनता जा रहा हूं। पिताजी, मैं आपको बहुत मिस कर रहा हूं। पिताजी के न रहने पर उनकी बातें याद आने लगीं हैं, काश! एक बार पिता जी मुझे फिर से मिल जाएं, उनकी किसी बात पर नहीं झल्लाऊंगा,
लेकिन बस एक बार किसी तरह पिताजी मिल जाएं। किसी के न रहने पर उनका महत्व समझ आता है। आज भी मैं दीवार पर टंगी अपने पिता की तस्वीर देखता हूं, तो ना जाने क्यूं फिर से छोटा बच्चा बन जाता हूं। और नहीं भूलता, उनको प्रणाम करना। लगता है जैसे कह रहे हों, कुछ खाया कि नहीं “घर खीर तो बाहर खीर”। पत्नी पूछती है, क्या हुआ? उसे क्या समझाऊं ये मेरे और पिताजी के बीच की बात है। शायद हर बार वो दीवार पर टंगी तस्वीर मुझसे ऐसे ही वार्तालाप करती है, और कहती है अच्छा! मैं कल फिर आऊंगा। अकेले में तुझ से ढेर सारी बातें करूंगा। सबकी नजरों से इतर।
शिक्षा __ समय रहते रिश्तों की कद्र करना चाहिए, उनका महत्व समझना चाहिए। अन्यथा एक अपराध बोध बना रहता है।
__ मनु वाशिष्ठ कोटा राजस्थान
लघु कथा