दृढ़ निश्चय का सवेरा – आरती झा आद्या

आज से मैंने तुम्हें अपने मातृत्व से बेदखल किया.. चीख कर अनिकेत से बोली थी माया … और अपनी बहू गरिमा को लेकर अपने रूम में आ गई थी…उधर उमेश जी बेटे के करतूत पर शर्मिंदा से बैठे थे..अपनी गलतियों को याद करते हुए।

  एक सवाल अंदर कमरे में माया जी को परेशान किए हुए था कि कैसे माँ माँ करने वाला अनिकेत अपनी अर्धांगिनी पर हाथ उठा सकता है। शायद अपने पति का हाथ समय से नहीं रोकना आज उसके लिए अजाब बन गया था। 

    माया जी याद कर रही थी उस दिन को जब उनका विवाह उमेश से हुआ था। अच्छा खासा कारोबार जमीन जायदाद का इकलौते वारिस। किसी शादी में माया को देखकर उनकी माँ ने वही अपनी बहू बनाने का निश्चय कर लिया था। बहुत धूम धाम से शादी हुई। उमेश जी का व्यक्तिव काफी ठसकेदार था। माया भी शालीन सौम्य थी। रिश्तेदारों ने राम सीता की जोड़ी क़रार दिया था। माया जी भी सुन सुन कर खुश हो रही थी। नियत समय पर ससुराल भी आ गई…देखने में तो सब कुछ बढ़िया था…पर उमेश जी का शराब पीकर नशे में बात बे बात गुस्सा होकर गाली गलौज करना.. हाथ उठा देना आम सी बात थी और फिर आइंदा ऐसा नहीं होगा कह कर.. झट माफ़ी भी माँग लेना, आदत में शुमार था। माया जी की सहन शक्ति चरम सीमा पर थी..बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी.. तब तक अनिकेत भी गोद में आ गया था। 

    तीन साल के अनिकेत को लेकर मायके आई हुई थी माया। उन्होंने अपनी माँ को बताया कि अब नहीं रह सकती हैं वहाँ। रोज रोज के अपमान से तंग आ चुकी हूँ।

माया जी की माँ – बेटा.. क्या कर सकते हैं.. मर्द जात ही ऐसी होती है… औरतों को ही रिश्ते को बचा कर रखना होता है।

माया जी – पर माँ.. इंतहां हो गई है.. कहीं कोई नौकरी कर लूँगी.. बस कुछ दिन रहने की जगह दे दो।

माया जी – नहीं बेटा.. ऐसा नहीं हो सकता है….पति के बिना स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं होता है। समाज भी हमें चैन से नहीं रहने देगा। तेरे पिता और तेरा भाई भी ऐसा है तो क्या हम सब भी घर छोड़ दें। लौट जा अपने घर… 

ये बोल कर माया जी की माँ अपने कमरे में चली जाती है। माया जी सोचती हैं.. कौन सा घर.. औरतों के नसीब में घर होता भी है क्या?




सुबह सबके उठने से पहले ही माया जी अनिकेत को लेकर थके कदमों से अपने ससुराल आ जाती है और इसे ही अपनी नियति मान लेती हैं। अब अनिकेत भी सात साल का हो चुका था। अनिकेत की पढ़ाई के लिए उमेश जी परिवार सहित शहर आ गए थे। अनिकेत स्कूल जाने लगा था। माया उसके साथ ही व्यस्त रहने की कोशिश करती थी। नहीं कुछ बदला था तो उमेश जी का व्यवहार। माया को अब अपनी नहीं अनिकेत की चिंता थी कि उमेश जी के व्यवहार का असर उसके व्यक्तित्व पर ना पड़े। इसीलिए अधिक से अधिक खुद में उलझाए रखती थी उसे। ऐसे भी अपने पिता के गुस्से से डरता अनिकेत और चुप चुप रहने लगा था। दो तीन साल ऐसे ही गुजर गए.. अब माया जी ने अपनी सासु माँ के पास बहुत उम्मीद लेकर गई कि शायद वो ही अपने बेटे को समझा सके। कम-से-कम अनिकेत के भविष्य के लिए ही उमेश जी अपने स्वभाव में बदलाव लाए।

लेकिन यहाँ भी औरत पुरुष के बिना कुछ नहीं है और पुरुष ऐसे ही होते हैं.. की माला ही सुनने मिली… माया सोचती हैं कुछ नहीं बदला।

        समय कब ठहरता है.. वो तो अपनी मौज में चलता रहता है.. ऐसे ही ये समय भी जैसे तैसे गुजर गया। अनिकेत की अच्छी कंपनी में अच्छे पोस्ट पर नौकरी लग गई।माया अब उसकी शादी की तैयारी करने लगी।

    शायद इतिहास भी खुद को दुहराता है.. अपनी सहेली प्रभा की बेटी की शादी में गरिमा को देखा था उन्होंने। मिलनसार.. हर काम में बढ़ चढ़ कर सबकी सहायता करते और लेडिज संगीत में उसका नृत्य देखकर मन्त्रमुग्ध रह गई थी… तभी सोच लिया था उन्होंने कि अगर उमेश जी की सहमति हुई और अनिकेत और गरिमा के जीवन में कोई दूसरा ना हुआ तो गरिमा को ही अपनी बहू बनाएंगी। वहाँ उन्होंने गरिमा के बारे में सब पता कर लिया था। एक दिन मौका देखकर डरते हुए उमेश जी को गरिमा के बारे में बताया। गरिमा के पापा का नाम सुनकर उमेश जी खुश हो गए कि हमारे टक्कर का परिवार है। मुझे कोई दिक्कत नहीं है।अब बचा अनिकेत..उन्होंने अनिकेत से अपने मोबाइल में गरिमा की छवि दिखाकर शादी के लिए पूछा। साथ ही ये स्पष्ट कर दिया कि अगर तुम्हारे जीवन में कोई और है.. तो वो भी बेझिझक बता दो… ऐसे भी अंतर्मुखी स्वभाव का होने के कारण अनिकेत अपनी माँ के अलावा किसी से काम से ज्यादा बात नहीं करता था। 

अनिकेत – (अपनी माँ गले में बाँहें डाल कर) नहीं मेरी प्यारी माँ… कोई नहीं है मेरे जीवन में।

माया जी – ये बता.. मेरी पसंद कैसी लगी।

अनिकेत – मुझे कोई दिक्कत नहीं है।

माया जी – ठीक है.. फिर मैं गरिमा के घर प्रभा को लेकर जाती हूँ और गरिमा से भी पूछ लूँगी कि किसी और को पसंद करती है या नहीं।

अनिकेत – सब का कितना ख़्याल रखती हो आप माँ।




माया जी – (मुस्कुरा कर) ठीक है.. ठीक है.. रहने दे.. आ जा खाना खा लेते हैं।

उमेश जी ऐसे भी बाहर से खा पीकर आते हैं हमेशा… 

दो चार दिन के बाद माया जी, प्रभा जी के साथ गरिमा के घर जाती हैं और शादी विवाह की बातों के मध्य ही गरिमा के मनोभाव जानने का प्रयास करती हैं। गरिमा के ये कहने पर कि उसके माता पिता की पसंद ही उसकी पसंद होगी, सुनकर माया जी खुश हो जाती हैं।

गरिमा और अनिकेत की सहमति से दोनों की शादी धूम धाम से होती है।

  अपनी नौकरी के सिलसिले में अनिकेत गरिमा के साथ मुंबई शिफ़्ट हो जाता है। वहाँ धीरे – धीरे उसका व्यवहार बदलने लगता है। अब शराब पीना और मना करने पर गरिमा के साथ मार-पीट करना उसके लिए आम सी बात हो गई।

एक दिन गरिमा माया जी बात करते करते रोने लगी और पूछने पर कुछ नहीं बोल कर कॉल काट देती है। माया जी परेशान हो जाती हैं और उमेश जी से बेटे बहू के पास चलने के लिए आग्रह करती हैं।

उमेश जी – ठीक है.. लेकिन एक सप्ताह से ज्यादा नहीं रुकना है।

कुछ दिन के बाद की टिकट मिलती हैं.. माया जी बेटे को बता देती हैं कि सोमवार को वो लोग मुंबई पहुंचेंगी।

अनिकेत – अचानक कैसे माँ 

माया जी – कुछ नहीं बेटा.. तुमदोनों की याद आ रही थी और टिकट भी मिल गया है।

अनिकेत – ठीक है माँ.. मैं स्टेशन पहुँच जाऊँगा।

नियत समय पर सब लोग पहुँचते हैं… अनिकेत की चढ़ी चढ़ी आँखें देखकर उन्हें लगता है कि युवा उमेश ही सामने खड़े हैं।

घर पहुँचते ही गरिमा माया जी को देखते ही गले लगकर रोने लगती है।

अनिकेत नजरें चुराता हुआ समान रखने अंदर जाने लगता है।

माया जी – क्या हुआ बेटी.. इस तरह क्यूँ रो रही हो.. बोलकर अनिकेत को देखने लगती हैं।

गरिमा – कुछ नहीं माँ.. बहुत दिनों बाद आपको देखा तो रोना आ गया।

दो दिन में ही माया महसूस करती हैं कि गरिमा बुझी बुझी रहती है और अनिकेत के सामने जाने से कतराती है और पूछने पर कुछ जवाब भी नहीं देती है।

     माया जी के यहाँ होने पर फिलहाल अनिकेत शराब पीकर नहीं आता था। पर छोटी छोटी बात पर गरिमा को अपमानित करना उसकी आदत हो गई थी। एक दो बार माया जी के सामने ही बहुत कटु शब्दों का प्रयोग करता है। जिसके लिए माया जी अनिकेत को बहुत डाँटती हैं और अनिकेत इसका जिम्मेदार गरिमा को ठहराता है। उस दिन बात आई गई हो जाती है।




अब माया जी और उमेश जी के जाने का समय भी आ गया था… गरिमा बार बार रुक जाने या उसे भी साथ ले चलने के लिए कह रही थी।

माया जी -(गरिमा का हाथ पकड़ कर) बेटा छोटे छोटे झगड़े तो होते ही हैं.. कोई बड़ी समस्या है तो मुझे बताओ… मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।

गरिमा – घर पर अकेले अच्छा नहीं लगता है।

माया जी – अरे मेरी बच्ची.. तो आगे की पढ़ाई पूरी कर ले.. ज्ञान कभी जाया नहीं जाता।

गरिमा – पर माँ अनिकेत को पसंद नहीं है..सुनते ही गुस्सा करने लगते हैं। 

माया जी – मैं बात करती हूँ अनिकेत से।

गरिमा – (घबराते हुए) नहीं.. नहीं माँ.. उनसे कुछ मत कहिएगा।

आपके जाने के बाद जाने क्या तमाशा हो.. गरिमा बड़बड़ाती है।

माया जी – रात के बारह बज गए हैं.. अनिकेत नहीं आया है अभी तक।

गरिमा – कभी कभी देर हो जाती है काम में.. और डर रही होती है कि कहीं आज शराब ना पी रखी हो उन्होंने।

गरिमा – आप सो जाईए माँ.. कल निकलना भी है आप लोग को।

माया जी – हाँ बेटा बोलकर अपने कमरे में चली जाती है.. 

थोड़ी देर में अनिकेत भी आ जाता है और नशे में शायद भूल जाता है कि उसके माता – पिता अभी यहीं हैं।

आते ही गरिमा पर उस दिन माया जी से पड़ी डाँट को लेकर चीखने लगता है।

उसकी आवाज़ से उमेश जी की भी आँख खुल जाती है और दोनों कमरे से बाहर आते हैं… अनिकेत की हालत देखकर माया दंग रह जाती हैं। 




गरिमा – अनिकेत शांत हो जाए.. मम्मी पापा सुनेंगे तो क्या सोचेंगे।

अनिकेत – जुबान चलाती है तू, बोलकर हाथ उठाता है गरिमा पर।

जिसे लपक कर माया जी पकड़ लेती हैं और एक थप्पड़ अनिकेत को जड़ देती हैं 

मेरे भरोसे को …मेरी परवरिश के गुमान को तूने तोड़ दिया अनिकेत…आज से मैंने तुम्हें अपने मातृत्व से बेदखल किया.. चोट खाए शेरनी की तरह रोती हुई माया जी चीख कर अनिकेत से कहती हैं।

गरिमा के रोने की आवाज़ से वर्तमान में लौट आती हैं माया। 

माया – ये सब कब से चल रहा है गरिमा।

गरिमा – यहाँ आने के दो चार महीने के बाद से ही मां।  जब से ऑफिस के दोस्तों के साथ पीना शुरू किया अनिकेत ने.. तभी से माँ।

माया जी -(गरिमा का सिर सहलाते हुए) फिर तुमने मुझे क्यूँ नहीं बताया बेटा।

गरिमा – मैंने अपनी माँ को बताया तो उन्होंने कहा.. ये सब तो होता ही रहता है.. इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता है। और माँ ने कहा किसे किसे बताओगी कि क्या बात थी। समाज भी तुम्हें ही दोषी ठहराएगा… यही सोचकर ही मैंने आपको भी नहीं बताया कि आप भी यही बोलेंगी।

माया – कुछ गलत नहीं सोचा तुमने बेटा… दुनिया चांँद पर ही भले चली गई हो। पर हमारी सोच वही के वही है…इसमें बहुत बड़ी गलती मेरी है कि मैं अनिकेत को ये नहीं बता सकी कि उसके पिता जो करते हैं… वो पूरी तरह गलत है। जिसका नतीज़ा आज मेरे आँखों के सामने है… नशा इंसान को विकृत मानसिकता का बना देता है। नशा खुद में ही एक विकृति है बेटा। मैं भुक्तभोगी हूँ इसकी.. पर अब बस.. मेरी बहू इस विकृति को नहीं भोगेगी।

    बेटा मैं तुम्हें भरोसा देती हूं कि खुद की गलती की सजा तुम्हें भुगतने नहीं दूँगी। मैं अब यही रहूँगी और तुम पहले पढ़ाई पूरी करोगी और फिर नौकरी। अगर तब तक मेरा बेटा नहीं सुधरा तो तुम उससे तलाक लेकर अपने जीवन की नई शुरुआत करने के लिए मुक्त रहोगी। तुम्हारा जो भी फैसला होगा.. हम सभी के लिए मान्य होगा और तेरा मेरा माँ बेटी का रिश्ता हर हाल में बना रहेगा। एक विश्वास पूर्ण दृढ़ निश्चय का सवेरा सास-बहू का इंतजार कर रहा था।

#भरोसा 

आरती झा आद्या 

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