दाग – कल्पना मिश्रा 

“मैडम आपसे कोई मिलने आया है ,,,,” 

सियाराम ने कहा तो मैं सोच में पड़ गई ..’इस वक्त,,, इस वक्त कौन आया होगा? सब जानते हैं कि मैं रात में किसी से नही मिलती तो,,,,

“कुछ नाम भी तो बताया होगा सियाराम?” मैंने उससे पूछा। 

“जी मैडम! कोई बुज़ुर्ग सी महिला हैं,सावित्री पाठक नाम बता रही हैं! कह रही हैं कि आपका ज़्यादा समय नही लेगीं, बस दस मिनट के लिए मिलना है।”

“सावित्री पाठक? ठीक है, भेज दो!”  मैंने सियाराम से उन्हें भेजने के लिए कह तो दिया लेकिन दिल और दिमाग़ में ये नाम उथलपुथल मचा गया “कहीं ये वही तो नही?”..और अगले कुछ ही मिनटों में वह मेरे सामने थीं।

हाँ, वही थीं। इन्हें कैसे भूल सकती हूँ मैं! 

“अरे बाबा रे!!! ये सफेद दाग कैसा? इसे तो कोढ़,,,,,?” ये शब्द मेरे कानों में गूँज गये। करीब सात साल पहले यही तो कहा था इन्होंने।  फिर हर बार की तरह मेरे हाथ में छोटा सा सफेद दाग देखकर पूछताछ शुरू हुई फिर उनकी कही बातें उसके दिलोदिमाग़ को घायल कर गई “कहाँ अपना स्वस्थ बेटा और कहाँ ये…माना कि बोलने में थोड़ा सा हकलाता है.. पर इसकी तरह छुआछूत का रोग तो नही है और फिर जानबूझकर तो मक्खी नही निगल सकते ना।” उन्होंने अपने पति से फुसफुसाते हुए भी इतनी तेज़ आवाज़ में कहा कि पास बैठे लोगों को भी सुनाई पड़ गया था! अंततः “माफ करना बहनजी, सब तो ठीक है लेकिन आपने ये नही बताया था कि लड़की को कोढ़ है तो ,,,,,,”  कहकर वह चली गईं।

मैं फिर से रिजेक्ट कर दी गई थी। एक ऐसी बीमारी के लिए ,जिसको छूने से किसी दूसरे को न कोई नुकसान होता है और ना ही वह जानलेवा होती है। ये सफेद दाग जिसे लोग कोढ़ और कुष्ट भी कहते हैं.. इसका कोई इलाज भी नही है! डॉक्टर कहते हैं कि “इस रोग से किसी को नुकसान नही होता है इसीलिए अब तक कोई कारगर दवा इज़ाद नही हुई है” पर वो लोग क्या जाने कि ये दाग नुकसान भले ही ना करते हों,पर कितने ही लोगों को मानसिक कष्ट देने के साथ-साथ उनकी ज़िंदगी बरबाद कर देते हैं ,,,ये मैं समझ सकती थी या वो..जिस पर बीतती है।




मैं जानती थी कि परिणाम यही होगा इसीलिये हर बार मम्मी पापा से शादी के लिए मना करती। पर वो तो अपने जीते जी मेरा ब्याह करके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे,,, शायद सभी माता पिता यही करते हैं। मुझमें कमी है इसीलिए बेचारे एक हकले लड़के से भी मेरा रिश्ता करने के लिए तैयार हो गये थे। आज पापा को उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े और रिरियाते देख कि “बहनजी ये जल्दी ठीक हो जाएगा, इसका होमियोपैथी इलाज चल रहा है”  मै अंदर से टूट सी गई। बल्कि इस बार ज़्यादा ही टूट गई थी क्योंकि बाकी सब तो बहाने से मना करते थे, पर मुँहफट सावित्री पाठक ने तो सीधे ही लट्ठ सा दे मारा था। किसी में कितनी ही कमी क्यों ना हो, लेकिन ऐसे भी कोई कहता है क्या? और लड़की वाले इतने निरीह क्यों होते हैं..? क्यों इतनी बातें सुनकर भी ज़ुबान सी लेते हैं? शायद उन्हें थोड़ी सी उम्मीद रहती होगी कि उनके चुप रहने से क्या पता उनकी बेटी का घर संसार बस जाये? सोचकर मन में झंझावात सा चलने लगता। फिर इतनी ज़िल्लत के बाद मुझे शादी के नाम से नफ़रत सी हो गई।

“पापा, अब मैं शादी नही करूंगी”…उनके जाते ही मैंने ऐलान कर दिया “अभी तक आप लोगों का कहना मानती रही, पर अब बिल्कुल नही,,, और जीवन में शादी ही सब कुछ नही है पापा” मेरी बात सुनकर पापा सन्न रह गये। 

“पर बेटा, इतनी बड़ी ज़िदंगी अकेले कैसे बितायेगी,, कैसे,,,,,?” कहते हुए उनका गला भर्रा गया और आँखे छलक गईं। 

 “मुझे और पढ़ना है पापा। और फिर अपने पाँव पर खड़ी होकर,अपने जैसे लोगों का सहारा बनना है मुझे।” पापा की बात काटते हुए मैं बोले जा रही थी।  

मेरी तमाम दलीले सुनकर वह कुछ नही बोल सके,, शायद उन्हें भी मेरी बातों में सच्चाई नज़र आ रही थी।

 फिर तब से अब तक मैंने पीछे मुड़कर नही देखा और आज परित्यक्ता महिलाओं एवं समाज द्वारा मानसिक प्रताड़ना पाये ना जाने कितने ही लोगों को मानसिक संबल दिया है मैंने।

“कैसी हो दीपिका..?” अचानक एक आवाज़ ने मुझे यथार्थ में ला पटका। मैंने उन्हें भरपूर नज़रों से देखा। बेतरतीब सी सूती धोती पहने,सफेद बाल, चेहरे पर असमय पड़ी झुर्रियां,,,,कुल मिलाकर आज उनके चेहरे से सात साल पहले वाली ठसक गायब थी।




 “आप कौन?” अनजान सी बनते हुए मैंने उन्हें बैठने का इशारा किया।

“अरे!पहचाना नही तुमने? कुछ साल पहले हम मिले थे?,,,,तुम्हारे रिश्ते के सिलसिले में,,, ” अपने शब्दों को चाशनी में डुबाते हुए वह बोलीं। 

“ओह्ह!!! हाँ!!, याद आया! तो?” लापरवाही से मैंने जवाब दिया।

“वो,,,, वो,, अपने बेटे के लिए तुम्हारे पास आई थी…” बोलते हुए वह कुछ सकुचा गईं। 

“अरे!!! क्या हुआ आपके बेटे को? क्या उसे भी मेरी ही तरह,,,?”  आख़िरी शब्द पर ज़ोर देते हुए मैं बोली। 

“नही, नही….ऐसा नही है। पाँच साल पहले उसके साथ हादसा हो गया था जिसमें उसका एक पैर,, ,,”

” हाँ तो?” उनकी बात काटते हुये मेरी आवाज़ थोड़ी तल्ख़ हो गई….”इसमें मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ?”

“मदद कर सकती हो दीपिका…अभी तो मैं संभाल लेती हूँ! मैं माँ हूँ ना.. चाहती हूँ कि मेरे जीते जी उसका घर बस जाये। वैसे अभी देर नही हुई है बेटा,,,, अब तो तुम दोनों ही में कमी है,,,,और शायद ईश्वर की मर्जी है या तुम लोगों का एक-दूसरे के साथ संजोग है इसीलिये अब तक ना तुम्हारी शादी हुई और ना ही मेरे बेटे की,,, तो,,,,,मतलब,, तुम चाहो तो हम तैयार हैं।”अटक-अटककर बोलते हुए उनके हाथ जुड़ गए। 

मेरा सर्वांग जल उठा। ईश्वर की महिमा भी कितनी न्यारी है। उस दिन मेरे पापा हाथ जोड़ रहे थे और आज ये,,,,

“संजोग हो या ना हो,ये मैं नही जानती। लेकिन आपका बेटा मेरे लायक नही है आँटी जी और मैं उसके लिए अपना जीवन ख़राब नही कर सकती”…कहते हुए मैं अंदर जाने के लिए उठ खड़ी हुई। 

कल्पना मिश्रा  

कानपुर

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