चाहतें जो हुई पूरी – सीमा वर्मा  

” चाहत में आनंद है। आनंद  ही जीवन है।  जीवन आनंद के बिना मृत है।  “

उम्र के इस सुहाने पड़ाव में दिल की धड़कन के हर सांस में यही जपती हुई मैं अपने  “सर सुशोभित जी ” को दिल से धन्यवाद देती हूं।

मैं  पहले क्या थी ?

एक साधारण से कॉलेज की अति सामान्य स्टूडेंट जो किसी तरह अपने क्लासेस लड़खड़ाते हुए चढ़ती जा रही थी।

आप कहेंगे , तब तुम मोहित हो गई थी। इसलिए सुशोभित सर को इतना श्रेय दे रही हो।

आप गलत नहीं !! यह पूरी तरह सही है।

मेरे पिता एक बहुत बड़े बिजनेसमैन थे।

मैंने हमेशा हंसती खेलती जिंदगी देखी थी। लेकिन इसके पीछे मेरी सिसकती जिंदगी को किसने देखा ?

मैंने किसी को देखने भी तो नहीं दिया था।या जब सर मेरे ट्विटर बंद करके आए थे मैंने उन्हें अपनी सदाबहार ही उपेक्षा से ही उनका स्वागत किया था मेरे पिछले 18 साल की जिंदगी में मैंने सिर्फ यही एक चीज सीखी थी। वह यह कि तुम अपने लोगों की जितनी उपेक्षा कर सकती हो करो।

जितना अपने अपनों के प्रति निर्मोही और जड़ बन सकूं। मुझे अपेक्षाकृत उतनी ही शांति मिलती।

पर मैं झूठी और मैं निर्मोही थी।

जड़ और उपेक्षा करने वाली बनने का सिर्फ नाटक करती थी।

मैं जानती हूं कि मैं मन ही मन अपने परिवार को कितना प्यार करती थी।

छोटा भाई और छोटी बहन मेरी गोद में थपकी लेकर ही बड़े हुए हैं।

मैं गुस्से की हालत में जब घर में सबसे बोलना बंद कर देती तब मेरी छोटी बहन आकर मुझे हंसाती।

इतनी छोटी थी मुझसे पर पता नहीं उसने इतनी व्यावहारिकता कहां से सीख ली थी ?




मेरी भरी नाराज़गी में मुझसे आ कर पूछती ,  “दीदी , मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है” मैं उसकी और आश्चर्य से देखती , हैरत से पूछती ,

” आखिर तुम्हें क्या  समझ में नहीं आ रहा है , क्या हुआ ?

तब वह मायूस होकर मेरी गोद में गिर पड़ती।

मैं समझ जाती, वह मुझे मनाना चाहती है ,

सुलझाना चाहती है।

ऐसे वातावरण में मैं पलती-बढ़ती गई।

मुझे आर्थिक कठिनाइयां तो जरा भी नहीं थी। थी।

लेकिन जब बहुत छोटी थी,  तब अम्मा को अपने बनाव श्रृंगार से ही फुर्सत नहीं मिलती थी।  एवं पापा को सिनेमा का रात नौ बजे वाला शो देखने का शौक था।

दोनों रात के नौ बजे वाला शो देखने चले जाते और मेरे पास दाई रख दी जाती।

खैर …  मैं व्यस्क तो बहुत पहले हो गई थी।

मेरे जीवन में युवक नहीं आए, यह कहना सरासर गलत होगा।

बहुत सारे परिवारों से आए दिन मिलना-जुलना होता था , तो युवक क्यों ना आते ?

पर जो भी आए , वे हृदय से सुनने वाले  फिल्मी गीत की तरह बिल्कुल खोखले और  प्रेम के नाम पर नकली हीरो।

मुझे उन्हें बनाने उन पर रोब जमाने में मजा आता।  सच तो यह है कि जब मैं परिवार में किसी से नहीं दबती तो बाहर वालों से दबना तो बिल्कुल मुश्किल था।

इन हालात में मेरे जीवन में एक दिन सुशोभित सर आए।  पापा ने कहा ,

” बेटा यह तुम्हारे नए टीचर हैं। अब से तुम्हें पढ़ाने आया करेंगे जिससे तुम्हारे रिजल्ट थोड़े इम्प्रूव कर सके  “

मैं अपनी चिर परिचित रुची के मुताबिक उनका उपर से नीचे तक मुआयना कर डाला था।

वे एक नये ही तरह के इंसान थे। मेरी भरी-पूरी सुंदरता देखने के लिए उनमें कोई ललक नहीं था।

आते ही आते ही उन पर  मैं अपनी पुराने चाल की तरह रोब गांठने वाली थी। लेकिन वह बिल्कुल निर्लिप्त भाव से बोले,

” चलो किताब खोल कर शुरू हो जाओ “

तब मुझे बेहद गुस्सा आया था।

उनका चेहरा पारदर्शी आईने की तरह था।

जिसमें जब चाहो अपनी शक्ल देख लो। 

मैं कभी भी बहुत तेज विद्यार्थी नहीं रही थी। लेकिन उनके निर्देशन में मैंने अपनी परीक्षा में सर्वाधिक अंक पाए थे।

क्या यह सर की पढ़ाई का असर था ?

हां !  एक बात और थी !




सर ने मेरे अंदर की अनंत गहराईयों में छिपे हुए किसी बंद ज्योति की तरह सोई हुई  ‘चाहत’ को जगा दिया था।

मैं उसके सुडौल व्यक्तित्व को बार-बार देख  कर  मानों राकेट पर बैठ कर धरती से बहुत ऊपर उठ जाती।

उस दिन  दशहरे का मेला घूमने सारे परिवार के लोग गये थे।  सर की छुट्टी थी मुझे सिरदर्द हो रहा था इसलिए मैं नहीं गयी थी।

लेकिन सर आ गये थे।

न जाने किस भावावेग में मैं उनसे लिपट गई थी। उनके चौड़े वक्ष पर शीश रखकर लगा था। जैसे मैं इंद्रधनुषी बादलों के ऊपर लेट गई हूं तब सर ने मेरे केश सहलाते हुए पूछा  ,

” अच्छा मुझे बताओ क्या जीवन में शरीर ही सब कुछ होता है ?

यह सब कुछ शरीर तक ही सीमित है ?

मैं सर का मतलब नहीं समझ सकी इसलिए पूछा माने ?

” माने-वाने  कुछ नहीं तुम पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रही हो। जब दो मन परस्पर विश्वास और एकता की अटूट भावना से एक साथ होते हैं।

तो शरीर से परे भी कुछ होता है जो बिल्कुल निस्त्ब्ध और शांत होता है।

जहां सिर्फ शांति है, एकदम शीतल और मधुर शांति!!  “

लेकिन यह भी कहना मूर्खता होगी कि उन कुछ क्षणों के ज्वार-भाटे में गर्म सांसों की थिरकन नहीं उभरी थी।

बोलते हुए सर ने मुझे खुद से अलग कर दिया।

पर उस लंबे समय में  कुछ मिनट जरूर ऐसे थे कि हम एक दूसरे को सब कुछ देकर निस्वार्थ चाहत में डूब गए थे।

मेरे भीतर कुछ ऐसा उग आया था। जिसने मुझे सामान्य नहीं रहने दिया था। मेरा पढ़ना ,उठना- बैठना यहां तक कि नहाना, बाल धोना, घूमना सभी कुछ एक मधुर गीत बन गया था।

मैंने सर को बंधु बना लिया था।

उन दिनों घर में मेरी शादी की बात उठने लगी थी।

एक दिन घर में पापा के साथ एक युवक को आते देखकर मैं ठिठक गई। कुछ समझ नहीं सकी वह कौन है ?

जब मां ने कहा ,

” जा बाल- वाल ठीक कर ले !

और सिंदूरी रंग वाली बनारसी साड़ी पहन कर  नीचे आ जा “

“कलकत्ते से आया है , यह लड़का ‘ प्रबोध’ तुम्हारे बड़े काका ने भेजा है “

सुनकर मेरे होश उड़ गए।

तो मुझको देखने के लिए आया है। यह फटीचर चेहरा,  कैसा बैलून जैसा है। बालों का जंगल लिए हीरो बना है। किसी बिजनेसमैन का छोकरा लगता है कितना महंगा सूट पहना है।

मेरी आंखें बंधु को याद करके छलछला आई थीं।




तभी नीचे से अम्मा ने आवाज लगाई ,

” बिटिया, चाय ले कर आ जाओ “

गुस्से में मैंने लाल की जगह ‘ऐश कलर’ की जॉर्जेट की साड़ी पहन ली थी। कमरे में प्रवेश करते ही ,

” वाह गोरे चंपई रंग पर एश कलर कमाल है, आप तो रंगों के चुनाव में बड़ी कुशल लगती हैं”

सुनकर एकबारगी तो मेरी हंसी छूट गई।

मैं मन ही मन गुस्से से सोची ,

” तो यह तोता बोलता भी है “

और जोर से धन्यवाद देती हुई ,

” अब जब इस हसीं … दुनिया को रिझाना होगा तो कहो क्या करोगे  आप ? “

” अरे आप … , आप तो कविता बोल रही हैं ”  ” हां … कविता तो नहीं  “

” मेरी कविता में जरा रुचि कम है क्षमा करेंगी”

मैं हंसी … फिर ढिठाई से बोली ,

” इसमें क्षमा करने की क्या बात है ?

कविता में रुचि अक्सर इंसानों को होती है और उनकी संख्या निरंतर घट रही  “

” आप तो खूब ही जबाव देती है “

” तो चलूं पापा ? “

कहती हुई प्रबोध जी पर अवहेलना भरी दृष्टि डाल कर मैं उपर चली आई।




उस दिन शाम में जब सर आए थे। तब मैं जाकर टेबल पर बैठ गई और फिर खूब मजे ले-लेकर सुबह वाली बात का जिक्र किया।

सर गंभीर बने बैठे रहे धीरे से बोले,

” किताबें निकालो और अपने पिता की आशा पर पानी फेरने की कोशिश मत करो।

पढ़ो और खूब पढ़ो दोनों सेमेस्टर के नंबर बहुत मैटर करते हैं  “

चिढ़ कर मैं बोली ,

” और मैंने जो अभी बताया “

” उसके बारे में फिर सोचा जाएगा “

और सच ! हमने उसके बारे में फिर कभी नहीं सोचा।

 पापा और उस लड़के में क्या बातें हुई थीं ?

वह मैं नहीं बता सकती हूं लेकिन उसी गर्मियों में जून के महीने में मेरा विवाह तय हो चुका था।

मैं रोती,, कलपती सर के सामने बिलखती रही लेकिन अभी उनकी परमानेंट नौकरी नहीं लगी थी। वे चुपचाप घर में चल रहे मेरे विवाह की तैयारियों में जुटे रहे।

वह विवश थे। अतः मुझे भी चुपचाप रह जाना पड़ा मेरी चाहत को जुनून बनने से पहले ही सर ने थाम लिया था।

तब आई थी 16 जून की वह रात लगा कि जैसे मैं नहीं मेरी प्रेतात्मा उठ रही है।

उस पूरी रात भर मैंने छत पर सोए-सोए तारों की गिनती की थी। बहुत तड़के बल्कि मुंह अंधेरे कहना चाहिए मैं उठ गई थी

और बाकी के बचे सारे दिन सिर झुकाए माता पिता के निर्णय को मान सारे विधी – व्यवहार को निभा अपनी पुरानी चाहत दिल में दबाए हुए ससुराल चली आई थी।

तरुण अवस्था में पहली नजर में जो प्रबोध जी  मुझे परम बुद्धू ‘तोता’ लगे थे। वही अब सदैव अपनी सूझबूझ भरी बातों से मुझमें नवजीवन का संचार करते हुए मेरी अपूर्ण चाहत को पूरी करते रहते हैं।

यह जिंदगी भी ना !

एक अजीब करिश्मा है। सब कुछ हाथ से छूट कर पल भर में एक अंडे की शक्ल में बदल जाता है। जिस पर उंगली फिराओ तो वह घूम कर वहीं घूम आएगी जहां से चली थी।

सीमा वर्मा / नोएडा

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