सत्ता की चाहत – कमलेश राणा

 

जमींदार सज्जन सिंह बहुत ही नेक इंसान थे उनके न्याय और दयालुता के चर्चे दूर दूर तक थे। हर तरह का सुख उनके जीवन में था पर कहते हैं न कि ईश्वर कोई न कोई कमी हर इंसान के जीवन में छोड़ देता है ताकि वह गुरूर में अंधा न हो जाये।

 उनके जीवन में भी एक संतान की कमी थी उनका आंगन बच्चे की किलकारी के लिए तरस रहा था। अपने वंश को आगे बढ़ाने की चाह हर प्राणी में बहुत तीव्र होती है और वह भी इससे अछूते नहीं थे। तीन विवाह कर चुके थे पर कोई लाभ नहीं हुआ, हर मंदिर, गुरुद्वारे पर मत्था टेका पर निराशा आशा में नहीं बदल पाई। हार कर उन्होंने अपना उत्तराधिकारी गोद लेने का फैसला किया। 

दूर के एक रिश्तेदार के पुत्र को उन्होंने गोद ले लिया और अपना वारिस घोषित कर दिया उसका नाम था रतनसिंह। उस समय उस बालक की उम्र दस वर्ष थी। जैसे जैसे वह बड़ा होता गया रूप रंग के साथ अपने गुणों से वह लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगा। जागीर का सारा काम अब रतनसिंह ने अपनी देखरेख में ले लिया। सज्जनसिंह जी भी बड़े खुश थे उनके काम से। 

तभी एक चमत्कार हुआ जागीरदार साहब की छोटी पत्नी गर्भवती हो गई। गढ़ी में खुशियाँ छा गई,, हो भी क्यों न इतने लंबे इंतज़ार के बाद खुशियों ने दरवाजा जो खटखटाया था उनका। नौ महीने बाद उन्होंने एक सुंदर पुत्र रत्न को जन्म दिया, गढ़ी को दुल्हन की तरह सजाया गया, मंगल गान गाये गये, गरीबों को खैरात बांटी गई। 




अब सज्जनसिंह जी अपने परिवार में मस्त हो गये और रतनसिंह जी अपने आप को और अधिक निखारने में। वह प्रतिदिन अखाड़े में दांव पेंच आजमाते और पहलवानी में महारत हासिल कर रहे थे। डर तो उनको छू भी नहीं गया था। वह सर पर पगड़ी के नीचे हरदम चक्र बांधकर रखते थे यह उनका गुप्त हथियार था। चक्र चलाने में गज़ब की महारत हासिल थी उन्हें,, छोटे मोटे पेड़ वह चक्र से ही काट दिया करते थे। भैसे का शिकार कई बार तलवार से ही किया उन्होंने। लोग उनके सामने गलत काम करने से घबराते थे। 

उनकी बढ़ती लोकप्रियता को देखकर अब जागीरदार साहब को अपने बच्चे के अधिकारों की चिंता सताने लगी थी। असली वारिस के आने से उनका मन रतनसिंह जी की तरफ से उचटने लगा था। अब तक रतनसिंह जी भी बाल बच्चेदार हो चुके थे उनके साथ उनकी एक बाल विधवा बुआ भी रहती थी। 

एक दिन गांव में दंगल था उसे देखने के लिए दरोगा जी विशेष रूप से पधारे थे। अंग्रेजों का जमाना था उस समय दरोगा का बड़ा दबदबा होता था। किसी बात पर रतनसिंह जी की उनसे बहस हो गई और उन्होंने पूरे गांव के सामने दरोगा जी को काफी खरी खोटी सुना दीं यह बात उन्हें बड़ी नागवार गुजरी और दूसरे दिन सिपाही रतनसिंह जी को पकड़कर थाने ले गये। 




उस समय महिलाएं बड़े पर्दे में रहतीं थी। जब बुआ को पता चला तो वह दौड़ती हुई जागीरदार साहब के पास मदद के लिए पहुंची तो उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि तुम यह चिट्ठी लेकर तुरंत दरोगा जी के पास चली जाओ। मैंने इसमें लिख दिया है कि वह तुरंत रतनसिंह को छोड़ दे वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा। 

बुआ वह चिट्ठी लेकर थाने पहुंची तो उसे पढ़कर दरोगा ने उन्हें कुछ देर इंतज़ार करने के लिए कहा और अंदर चला गया। उसने चार सिपाहियों की मदद से रतनसिंह जी को पारा पिला दिया जिससे उनकी मौत हो जाये क्योंकि जो चिट्ठी बुआ लेकर आई थी उसमें लिखा था कि यह आदमी जिंदा बाहर नहीं निकलना चाहिए। 

कितना बड़ा घात हुआ इतने बहादुर इंसान का ऐसा अंत!!! वह भी केवल सत्ता के लिए,, कम से कम इंसानियत के नाते उनके बच्चों के बारे में तो सोचा होता। पर खुद पर आंच न आये इसलिए सज्जनसिंह जी ने आजीवन उनके परिवार का दायित्व निभाया लेकिन अपने वारिस के लिए रास्ता साफ कर लिया। चिट्ठी की सच्चाई बहुत समय बाद किसी सिपाही ने बुआ को बताई परंतु बच्चों के भविष्य के लिए उन्होंने इस सच्चाई को अपने सीने में दफन कर लिया। फिर भी कहीं न कहीं से यह बात फैली पर जागीरदार साहब के डर से किसी ने मुँह नहीं खोला।

 विश्वास में विष देने वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया उन्होंने पर ऐसा कभी किसी के साथ नहीं करना चाहिए क्योंकि ऊपर वाले के यहाँ देर है अंधेर नहीं पता नहीं गलत कार्य का कितना दंड भुगतना पड़े। सत्ता की चाहत इंसान से जाने क्या क्या करवा लेती है। 

# चाहत

कमलेश राणा

ग्वालियर

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