चाहत – आरती झा आद्या

ये कैसी पुरानी सी शर्ट पहन ली है तुमने, कहां से ले आए ऐसी मिट्टी रंग की शर्ट….ऑफिस ऐसे ही जाने का विचार है क्या…निभा पति को आईने के सामने शर्ट ठीक करते देख कहती है।

अच्छी लग रही है ना। पापा की शर्ट है। आज पापा का जन्मदिन है ना… बहुत याद आ रही है पापा की तो मैंने उनकी ये शर्ट डाल ली। पापा की पसंदीदा शर्ट थी ये, पर मां को पसंद नहीं थी इसीलिए सिर्फ सहला कर रख देते थे.. आनंद निभा की बात पर ध्यान न दे अपनी रौ में बोलता गया।

हां तो सही तो है… ऐसी प्रिंट और ऐसा रंग कौन पहनता है… निभा कह रही होती है।

अरे यार अब तुम मेरी मां मत बन जाना… कहता हुआ आनंद गाड़ी की चाभी उठा निकल गया।

सोनी सुनो..आज मम्मी जी अपने कमरे की सफाई के लिए बोल मंदिर गई हैं… अपनी घरेलू सहायिका से निभा कहती है।

उतारना वो डब्बा, देखू क्या है उसमें। कभी कभी मम्मी जी इसे उतरवा कर फिर थोड़ी देर बाद नम आंखों के साथ रखवा देती हैं…निभा छज्जे पर रखे डब्बे की तरफ़ इशारा करती है।

ये लो दीदी… पकड़ना इसे…सोनी निभा से कहती है।

ये तो इसमें डायरी है, किसकी है… इसमें तो पापाजी का नाम लिखा है। लगता है पापाजी की है…सोनी ये ले डब्बा रख दे…डायरी निकाल कर डब्बा सोनी को थमा देती है।

आज आंटीजी ने देर नहीं लगा दिया है मंदिर में दीदी…सोनी काम खत्म कर निभा से कहती है।

आज पापाजी का जन्मदिन है ना तो मंदिर में खाना बांटने का प्रोग्राम था उनका.. निभा कहती है।

तो आपलोग नहीं गए… सोनी आश्चर्य से पूछती है।

आनंद की इच्छा तो थी, पर पता नहीं क्यूं मम्मी जी ने मना कर दिया और तुम जानती ही हो उनकी बात न मानना मतलब घर का माहौल जहर कर लेना… निभा कहती है।

हां.. सास बहू एक सी ही हो… दरवाजा बन्द कर लो दीदी.. निभा की बात सुन खुद में बड़बड़ाती सोनी निभा से कहती हुई निकल गई।




अब आराम से बैठ डायरी पढ़ती हूं… अपने बिस्तर पर पैर फैला कर बैठती निभा सोचती है।

आज मैं बहुत खुश हूं। आज मैं दूल्हा बना हूं और मेरी दुल्हन वो है जिसे मैंने चाहा है…डायरी का पहला पन्ना पलटते ही निभा पढ़ती है।

अभी तो शादी के दो महीने भी नहीं बीते हैं और ऐसा लग रहा है मानो हम दोनों ने ही गलती कर दी। रोज रोज चीखना चिल्लाना समझ नहीं आ रहा है कि क्या हो जाता है सुमन को। कैसे कोई किसी की मन की बात जान सकता है। सब्जी ही तो लेने गया था आज और उसके अनुसार दस मिनट की देर उसके शान में गुस्ताखी हो गई। बिना खाए पिए पड़ी हुई है। अगर मैं खा लूं तो इसके लिए भी महाभारत मचाएगी… दो तीन खाली पन्ना पलटते के बाद निभा पढ़ती है।

माना कमियां मुझमें भी हैं, लेकिन अलग हो जाना समाधान तो नहीं है। हम दोनों ही थोड़ा थोड़ा बदलेंगे, तभी चीजें ठीक होंगी…सिर्फ झगड़ते ही थे कि कभी प्यार से भी रहे हैं दोनों.. निभा पढ़ती हुई सोचती है।

माता पिता हैं वो मेरे, उनसे बातें न करूं। उसकी खुशी के लिए मैंने सारे रिश्ते नाते दोस्त तो छोड़ ही दिए हैं। हंसना बोलना कहीं आना जाना छोड़ ही दिया है। उसे बुरा न लग जाए, इसलिए मन की बात मन में ही रख लेता हूं, फिर भी मजाल है, जो किसी बात पर खुश हो जाए… ओह पुरुष भी इतने दर्द से गुजरते हैं क्या… निभा पढ़ती हुई सोचती है।

आज बहुत दिनों बाद खुशी का पल आया है, मेरे आनंद का जन्म हुआ है… इसी दो पंक्ति से पापाजी के खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है.. निभा के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

कैसे समझाऊं सुमन तुम्हें, बच्चा है वो। अनुशासन का “अ” भी नहीं जानता। 

कितना खुशमिजाज बच्चा है मेरा, आज तबियत खराब होने के कारण सुमन तुम आनंद के स्कूल फंक्शन में नहीं आ सकी तो देखो कितनी बातें कर रहा है, उछल कूद कर रहा है। हर बात पर टोका टोकी सही नहीं है सुमन।

आज मेरा बच्चा कैट क्वालीफाई कर गया….




आज मेरे बच्चे का प्लेसमेंट हो गया…बहुत खुशनसीब पिता हूं मैं, घर के ऐसे माहौल में भी आनंद सफलता की सीढियां चढ़ता गया। सुमन बहुत बहुत बधाई हो तुम्हें भी…

आज हम लड़की वाले से मिल कर आए हैं। सुमन की पसंद है निभा, मुझे भी अच्छी लगी निभा… तभी तो झटपट शादी हो गई… निभा खुद पर इतराई।

आज मुझे ब्लड कैंसर डायग्नोस हुआ है। चलो ऐसे भी जीने की इच्छा तो बहुत पहले ही खत्म हो गई थी। अब ब्लड कैंसर मुक्ति दिला ही देगा… इसका मतलब पापाजी को छः महीने पहले से अपनी बीमारी के बारे में पता था और उन्होंने किसी को भी नहीं बताया… डायरी के उस पन्ने पर इंगित तारीख देख निभा आश्चर्यचकित रह जाती है।

आज मैंने आनंद से कह दिया है कि मेरी बीमारी पर पैसे लगाने की जरूरत नहीं है। जानी हुई बात है कि अब मुझे जीना नहीं है। मेरा आनंद इतना संस्कारी है, अपनी मां को संभाल लेगा। वैसे भी सुमन हमेशा यही कहती रही है कि मेरे साथ उसकी जिंदगी जहर बन गई। अब मुक्त मिल जाएगी इस जहर से….

निभा में भी वही गुण दिखने लगे हैं, जो शुरू से मैंने सुमन में देखे हैं। अरे पत्नी हो, पति की मित्र बनो न, मां बनने की क्या आवश्यकता है? कैसे कहूं तुझसे मेरी बच्ची। आनंद के बचपन का दोस्त है निर्वेद, कैसे निभा ने कह दिया, मुझे पसंद नहीं वो इसलिए दोस्ती रखने की जरूरत नहीं है, उस दिन से कैसा कैसा चुप चुप सा हो गया है आनंद। क्यूं नहीं दिखता निभा को… ओह कितनी वेदना थी पापाजी के हृदय में… निभा के गालों पर गर्म गर्म अश्रु ढ़ुलक गए।




आज डॉक्टर ने स्पष्ट कह दिया अब कोई उम्मीद नहीं बची है। फिर भी जाने किस आस पर मेरा बच्चा जिद्द पर अड़ा है। समझता हूं मैं मेरा दर्द मेरी बैचैनी तुझसे देखी नहीं जा रही है। लेकिन मेरे बच्चे एक दो दिन और। मेरी बहू बेटे एक दूसरे के अभिभावक नहीं, दोस्त बने। एक दूसरे पर छींटाकशी न कर, एक दूसरे के लिए उम्मीद बने। मेरे और सुमन की तरह आधी अधूरी ज़िंदगी न जी कर, एक दूसरे के संग पूरी ज़िंदगी के मालिक बने…अब तो बस यही एक चाहत,एक अरमान लेकर जा रहा हूं। काश मेरे जाने के बाद मेरी ये चाहत पूरी हो जाए…. सुमन कभी अपनी कोई कमी स्वीकार नहीं कर सकी, इसलिए सुधार भी नहीं हो सका। उसके लिए तो पूरी दुनिया गलत और वो सिर्फ सही। हम दोनों ही अपने अपने रास्ते पर, अपने अपने जीवन में एक दूसरे के साथ होते हुए भी अकेले रह गए। मेरे बच्चों तुम दोनों हमारी वाली गलती मत करना। तुम्हें खुश देखना ही मेरी चाहत है… टेढ़े मेढ़े शब्दों में बहुत सारी बातें लिखने की कोशिश की गई थी, जो इधर उधर हो गई थी और निभा उन शब्दों को, पंक्तियों को मिला मिला कर पढ़ने का प्रयास करने लगी।

पूरी जिंदगी ऐसे ही गुजर गई पापाजी आपकी। औरतें तो फिर भी अपने छोटे बड़े सारे दुख किसी न किसी से कह लेती हैं। औरतों के दुख दर्द सुनने के लिए कई सारे कानून भी बनाए गए हैं। लेकिन उन पुरुषों का दर्द क्या कभी कोई समझ सकेगा, जो किसी से कह नहीं पाते और परत दर परत ख़ुद की भावनाओं को छुपा लेते हैं। 

पापाजी ने आज आईना दिखा दिया मुझे। सच में कहीं ऐसा न हो कि सब कुछ होते हुए भी सिर्फ मेरी बकझक के कारण हम साथ रहते भी साथ न हो… निभा डायरी बंद कर सोचने लगती है।

पापा जी आपकी चाहत जरूर पूरी होगी। मैं आपकी चाहत जरूर पूरी करूंगी। अपनी गलती सुधार कर आनंद की सखी बनूंगी… डायरी हाथों में लिए अपने ससुरजी की तस्वीर के सामने खड़ी निभा मन ही मन कहती है।

 

आरती झा आद्या

दिल्ली

 

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