चाची – पूनम सारस्वत : Moral Stories in Hindi

कुछ आर्टिकल लिख रही थी उमा कि बाई ने आकर बताया गेट पर कोई है । आपके नाम से पूछ रहीं हैं ।

मेरे नाम से ?

जी कह रहीं हैं कि उमा हैं ?

इस तरह तो मुझे केवल मेरे बहुत अपने ही संबोधित करते हैं,पर बिना सूचना के इस समय कौन हो सकता है? सोचती हुई उमा स्वयं ही मेन गेट तक चली आई ।

चाची…….. खुशी के अतिरेक में उमा लगभग चीखती हुई सी गेट पर पहुंची ,उसकी आंखें आगंतुक को देखकर नम हो गईं थी और दिल भी भीग सा गया था।

वह यह भी भूल गई कि जो आर्टिकल वह लिख रही थी उसे रात तक भेजना भी है। हुंह देखा जाएगा।

चाची ?आप ?यूं ?अचानक??

इतने प्रश्न थे दिलो-दिमाग में पर जुबां पर एक बार में इतने ही आए।

अरे तू इतना चौंक क्यों रही है उमा? 

मैंने तुझे डिस्टर्ब तो नहीं कर दिया , बेवक्त आकर?

अरे चाची ये क्या कह रही हो ? मैं हनुमान जी नहीं हूं , अन्यथा तो आपको दिल खोलकर दिखा देती कि मुझे कैसा लग रहा है।

मैं आपको बता ही नहीं सकती कि मैं कितना खुश हूं , मैं तो सोच भी नहीं सकती थी कि आप यूं अचानक मुझे मिल जाएंगी ?

मैं तो उम्मीद ही छोड़ चुकी थी ।

चलिए बताइए कैसी चल रही जिंदगी सब ठीक है या वही सब चल रहा है ?? 

ये क्या हाथ में चोट? सब ठीक तो है चाची? 

उमा का दिल कांप उठा किसी अनहोनी की सोचकर।

अरे नहीं अब तो सब ठीक हो गया है रे,अब कोई परेशानी नहीं तभी तो तेरे पास आ सकी हूं , नहीं तो तुझे तो पता ही था कि मैं कहीं किसी से मिल नहीं सकती ,बैठ नहीं सकती। बहुत नरक हो गई थी जिंदगी।।ये हाथ में चोट तो गिरने से लग गई थी।

गिरने से? कैसे गिर गईं आप ,आप कुछ छुपा रही हो न?

अरे पगली मैंने आज तक तुझसे कुछ छुपाया है? जो आज छुपाऊंगी?

तो फिर कैसे गिरीं?

अब मैं अंदर चलूं? न बैठने को कहा न पानी की पूछा बस लगी है तहकीकात में।

ओह , सॉरी मैं तो भूल ही गई आइये अंदर आइए ,अब तसल्ली से बैठकर बातें करेंगे।

मैं भी कितना समझदार बनती हूं पर अपनों को देखकर एकदम ही अल्हड़पन उतर आता है मुझमें , हे भगवान , कहते हुए उमा ने अपने माथे पर हाथ मारा।

जो दिल के अच्छे होते हैं न वो ऐसे ही होते हैं उमा, उन्हें अपनों की फ़िक्र अपने से भी अधिक होती है । तुम भी बिल्कुल वैसे ही हो।

अरे चाची मैं कहां फ़िक्र कर पाती हूं, देखो न आपने कितने कष्ट सहे और मैं तो आपको देखने भी न आ सकी।

हां वो इसलिए कि मैंने ही तुझे मना किया था। तू वह सब देखती तो जरूर कोई क्रांतिकारी कदम उठा लेती,और मैं  शांति से समय काटना चाहती थी।

हां ये तो है चाची , मैं भी अपने आप को इसलिए ही रोके रखी ,यदि मैं कुछ भी ग़लत देखती तो कोई ब़ड़ा डिसीजन ही लेती और आप धर्म संकट में पड़ जाती कि बहू-बेटे को छोड़ें या धर्मपुत्री को बस यही सोचकर मैं कड़वा घूंट पीती रही ।

 

बिंदी,ओ बिंदी अच्छी सी चाय बनाओ और हां सूजी का हलवा भी बनने रख दो चाची को बहुत पसंद है, उमा ने मेड से कहा ‌।

अरे क्यों परेशान कर रही है उसे ? चाची ने औपचारिकता से कहा तो, उमा बोली ठीक है उसे परेशान नहीं करती मैं ही बनातीं हूं ।

अरे बैठ जा , तू नहीं बदली बिल्कुल भी ज़माना बदल गया।

मैं वो किरदार नहीं हूं चाची जो वक्त के साथ पोशाक बदलते हैं।

मैंने हमेशा अपनी शर्तों पर जिंदगी जी है इसलिए बहुत कम ही लोग हैं जो जिंदगी में हमेशा के लिए शामिल हैं।

लेकिन ये वो लोग हैं जिन पर मुझे अपने आप से भी ज्यादा भरोसा है।

सही कहा तूने।

तेरी बातें और दिया हुआ विश्वास ही तो था कि मैं इतना लंबा वनवास सकुशल काट आई।

तू पूछ रही है न सबकुछ कैसे बदला तो सुन ये इतना आसान नहीं था, पर मेरा धैर्य और ईश्वर पर विश्वास बस उसने ही मुझे हिम्मत दी।

 तेरे चाचा जी ने तो बच्चों से सारे संबंध खत्म करने का निर्णय ले लिया था। मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें रोका आज मेरे निर्णय से वो भी खुश हैं ।

बच्चे भी अब तो खूब ध्यान रखते हैं , उन्हें अपनी ग़लती जो समझ आ गई है।

वीर की जब शादी की तो मैं बहुत खुश थी । इकलौता बेटा घोड़ी चढ़े तो कौन मां होगी जो खुश न होगी ।

शादी खूब धूमधाम से की , तेरे चाचा ने अपनी औकात से बढ़कर पैसा लगाया कि बेटे को ये न लगे कि अपनी तंगहाली की वजह से मेरे अरमान पूरे न किए ।

बहू आ गई , देखने में तो सुघड़ थी ही काम भी सब ठीक से कर लेती। मैं तो हमेशा की तरह अब भी उसके साथ लगी रहती थी कभी किसी काम को करने को नहीं कहा उससे जो कर लें ठीक न करें तो मैं स्वयं कर लेती,पर उससे कभी नहीं कहा,ये तो तुझे भी पता है,तूने एक बार मुझे डांटा भी था इस बात पर कि जो काम उसे करने चाहिए वह भी मैं क्यों करती हूं।

हां, सही तो कहती थी आप तो उसके कपड़े तक धोती थीं और वह आपको कुछ समझती ही नहीं थी इसलिए मुझे बुरा लगता था,सुन सुनकर।

हां, मैं न तो सुबह जल्दी उठने को कहती न शाम को झाड़ू बुहारु करने को जो काम वह न करती मैं स्वयं कर लेती, फिर मुझे काम था भी क्या?

पर न जाने रिश्तेदारों को क्यों यह सब रास न नहीं आया,कि आय के सीमित साधनों में भी ये सब खुश कैसे हैं??

तुझे तो पता है बिजनेस में घाटे के चलते उस समय हमारी माली हालत कितनी खराब थी,वो तो तूने इतना सहारा न दिया होता तो न जाने क्या होता?

अरे हां ठीक है आप आगे बताओ।

 

रिश्तेदारों ने बहू के कान‌ भरने शुरू कर दिए उसमें भी मेरे स्वयं के भैया भाभी सबसे आगे निकले,और ये कान की कच्ची निकलीं बस यहीं से समस्या शुरू हो गई। 

रही सही कसर इनकी बहिन ने पूरी कर दी जो अपनी ससुराल में कभी खुश नहीं रही , उसने सुख देखा नहीं था तो इनका सुख उनसे नहीं देखा गया ।

वो भी कान भरती रही, बहुत मीठी है तेरी सास देखना तुझे कुछ नहीं देगी , अरे मीठा बोल बोलकर तुझसे काम कराती रहती है, कोई जरूरत नहीं गर्म खाना देने की अरे हट्टी कट्टी है खुद न बना ले… जैसा ज्ञान नित फोन पर फ्री में मिलता था इन्हें ।

एक दिन मेरी एक सहेली दोपहर में आ गई तो मैंने गलती से इससे कह दिया चाय बनाने को,उस वक्त तो चाय बना दी और बाद में इसी बात को मुद्दा बनाकर खूब बकबक की कि मुझे समझ क्या रखा है दो पल चैन से सोने नहीं देती हैं? 

आपको बहू नहीं चलता फिरता रोबोट चाहिए था जो आपके मुताबिक चलता रहे,आप जैसे कमांड दें वो वैसे काम करे।

उसी के बाद मैंने तुझसे मना किया था आने को कि कहीं तेरे आगे इसने उपद्रव कर दिया तो?

 मैंने तो कभी फोन पर बात करने को भी मना नहीं किया था अल्पना से,फिर भी अब ये बात बात पे झुंझलातीं, मुझसे उलझने की नाकाम कोशिश करती पर मैं चुप ही रहती ।

उधर न जाने बेटे को क्या पढ़ाया कि पहले तो गर्मी की छुट्टियां होते ही ससुराल चला गया और लगभग महीने भर में आया और आते ही “हमें, आपसे अलग रहना है” का फरमान सुना दिया।

हम दोनों तो हक्के-बक्के रह गए। बच्चों के बिना कैसे रहेंगे?

फिर सोचा ईश्वर की यही इच्छा है तो ऐसा ही सही ,और हमने हंसी खुशी इन्हें जाने दिया ।

कोई मनमुटाव तब भी नहीं किया ।

अब अकेले रहने पर एक तो सारा खर्च अपने ऊपर आ गया ऊपर से मकान का किराया भी , इन्हें कुछ ही दिनों में आटे दाल का भाव पता चलने लगा । प्राइवेट स्कूल में मिलता ही क्या है कि ये अकेले घर खर्च चला लेते?

अब वही फोन का ज्ञान इन्हें खटकने लगा क्योंकि उस ज्ञान से पेट थोड़े ही भरना था?

दो छोटे बच्चों के साथ न तो काम खत्म होता था, न कहीं आ जा सकते थे।

बिना खूंटे का बंधन इन्हें अब समझ आने लगा था।

यहां तो इन्हें पूरी आजादी थी किसी तरह का कोई बंधन मैंने  कभी लगाया ही नहीं था। बच्चे भी अधिकतर समय हमारे पास ही रहते थे तो आपस में साझा समय बिताने को भी समय मिल जाता था वीर और अल्पना को, लेकिन अकेले होने पर बच्चों को पूरा समय भी देना पड़ता और जब परेशान हो जाते तो दोनों आपस में ही उलझ जाते।

 

एक दिन त्योहार के बहाने से दोनों मिलने आए।

हम तो बहुत खुश, अरे बच्चे यूं ही मिलने भी आते रहें तो भी आत्मा तृप्त हो जाती है ।

एक मां का दिल ही यह बात जान सकता है ।

अब क्योंकि हमने तो कुछ कहा ही नहीं था अपनी मर्जी से गए थे इसलिए इनसे लौटने की कहते भी न बन रहा था ।

तुझे तो पता ही है उमा तेरे चाचा जी को गर्म खाना खाने की आदत है , बहू के सामने मैं कैसे डरते डरते दो गर्म रोटियां सेंक कर उन्हें देती थी मैं ही जानती हूं । गर्म न हो तो वो घर सिर पर उठा लें , गर्म सेंकू तो बहू की अनवरत बड़बड़ाहट , चुप सुनती रहती कभी यूं भी नहीं पूछा था कि जब बना मैं रही हूं तो तुझे क्या कष्ट है?

अब जब हम दोनों ही रह गए थे तो जो मर्जी चैन से बनाते खाते।

उस दिन दोनों बहुत देर रुके रहे । जैसे कुछ कहना चाहते थे पर शब्द न मिल रहे हों। 

मैं सब समझती रही पर आज भी हमेशा की तरह चुप रहना ही बेहतर समझा।

मैं भी कहां भूली थी वह दिन जब बुखार में तपते हुए भी मैंने ही अपने दोनों के लिए खाना बनाया था पर यह बाहर निकल कर नहीं आई थी ‌।

शाम को दोनों बोले अच्छा मम्मी जी चलते हैं ।

मैंने भी कहा ठीक है ,आ जाया करो कभी कभी।

उनकी रही सही उम्मीद भी ढह गई कि मम्मी-पापा वापस आने को कहेंगे।

यूं ही और आठ महीने बीत गए ।

एक दिन फिर आए दोनों ,इस बार बच्चों को नहीं लाए थे , उन्हें वहीं मामा के पास छोड़ कर आए थे।

कैसे हैं आप लोग , कोई परेशानी तो नहीं?

बेटा हम लोग अच्छे हैं ,कैसी भी कोई परेशानी नहीं है , यहां तो मोहल्ला-पड़ोस ही इतना अच्छा है कि जरा सा आवाज लगा दो चार जने खड़े होते हैं मदद को तो परेशानी का सवाल ही नहीं।

हमने पलट कर ये भी न पूछा कि तुम तो परेशान नहीं?

क्योंकि वो  परेशान तो हैं हमें इधर उधर से पता चल ही रहा था, लेकिन हम अपनी तरफ से कुछ भी कहना नहीं चाहते थे।

काफी देर बाद बहू सकुचाते हुए बोली मम्मी हमें माफ कर दीजिए , हमें वापस बुला लीजिए, हमसे गलती हो गई।

मैं दूसरों की बातों में आकर आपको जान न सकी, और रोने लगी ।

मैंने कहा बेटा रो मत , और हम तो तुमसे नाराज़ हैं ही नहीं , हम तो जैसे बच्चे खुश उसी में खुश रहते हैं, तुम्हें साथ में परेशानी थी हमने नहीं रोका, पर क्या  हम खुश थे तुम्हारे जाने से? बिल्कुल नहीं वो दिन हमने बच्चों के बिना कैसे काटे हम ही जानते हैं। 

पर अब वापस आने के लिए तो मुझे तुम्हारे पापा से पूछना पड़ेगा, उन्हें तो तुम जानती ही हो ।

गुस्से को जाहिर नहीं करते पर इतनी आसानी मानेंगे भी नहीं।

ठीक है मां,कहकर वह चुप हो गई।

उस दिन बहू बेटा जल्दी ही चले गए।

मैंने तुम्हारे चाचा जी से कहा बच्चे हैं, भूल का एहसास हो गया है आने दो न वापस?

वो बोले भूल का एहसास नहीं हुआ है, आटे दाल का भाव पता चला है इसलिए वापस आना है 

 यहां सब किया धरा मिलता था न तो उन्हें लग रहा था कि हमारे साथ रह कर एहसान कर रहे हैं ।

मैंने बहुत समझाया अपने ही बच्चे हैं , फिर और है भी कौन अपना?

बड़ी मुश्किल से वो तैयार हुए वे भी इस शर्त पर कि तुम नहीं जाओगी उन्हें बताने ,अब वो जब फिर से पूछने आएं तो कह देना कि हमें शांति से रहना पसंद है और इसी शर्त पर वह वापस आ सकते हैं।

मैंने उस वक्त इनकी हां में हां मिलाना ही उचित समझा।

पर इनकी यह बात सही थी कि हमें जाकर नहीं कहना कि आ जाओ।

कुछ दिन बाद बहू अकेले आई। गुमसुम सी बैठी रही।

क्या हुआ बेटा क्यूं परेशान है?

मम्मी हमें वापस बुला लो न वहां हमारा मन भी नहीं लगता बच्चे भी आपको बहुत याद करते हैं।

प्लीज़ मम्मी मुझे माफ कर दो न?

मैंने भी देख लिया कि हां इसे दिल से पश्चाताप है तो कह दिया कि ठीक है घर तुम्हारा ही है जब चाहो आ जाओ पर अब आकर क्लेश मत करना हंसीं खुशी रहना ।

मम्मी मैं बिल्कुल अच्छे से रहूंगी मुझे पता चल गया है कि आप दिखावा नहीं करतीं आप सच में ही बहुत अच्छी हैं।

दिखावा??

कैसा दिखावा,किसको दिखावा?

मैं हैरान होकर पूछा बैठी।

तो वह बोली मम्मी जी शुरू शुरू में जब मैं आपकी तारीफ अपनी बहनों से करती तो वह कहतीं कि ये सब दिखावा है, कोई सास अच्छी नहीं होती । तुझसे काम कराने को मीठा बोलतीं है और भी न जाने क्या क्या कहतीं और धीरे धीरे मेरे मन में आपके प्रति आक्रोश बढ़ता गया।

 सब मेरी ही गलती थी मम्मी जी , मुझे उनकी बातों में नहीं आना चाहिए था।

ओह अच्छा ऐसा था । चलो कोई बात नहीं देर आए दुरुस्त आए ‌। पर मैं एक बात आज तुमसे कहूंगी कि हमें कान का कच्चा नहीं होना चाहिए।

लोग इसका बहुत फायदा उठाते हैं और दूसरों का जीवन बर्बाद कर देते हैं।

जी मम्मी जी ध्यान रखूंगी और यह कहकर उसने मेरे पैर छू लिए ।

अगले हफ्ते सारे साजो सामान के साथ वापस आ गए और संग  हंसते खिलखिलाते हमारे जीने का सहारा, हमारे  बच्चे वापस ले आए ।

बस वो दिन है और आज का दिन बहुत अच्छे से रहती है। अब तो सबका पूरा ध्यान रखती है।

और सबसे बड़ी बात अब वह फोन पर समय नहीं गुजारती, बल्कि बुटीक खोल लिया है घर पर ही और बस बचे हुए समय का सदुपयोग उसमें करती है, जहां जरूरत होती है मुझसे राय भी लेती है।

अब तो तू समझ गई कि सब ठीक हो गया है हमारे जीवन में??

 

ओह चाची आप नहीं जानतीं कितना बड़ा बोझ हटा दिया आपने मेरे दिल से , मैं सच में बहुत खुश हूं और अपने हाथ से आज आपको आपकी पसंद की कॉफी पिलाऊंगी।

उमा बच्चों की तरह चहक उठी।

तो अब तो आएगी न हमारे घर उमा??

मेरे आने से उन्हें बुरा लगा तो??

 

नहीं वो खुद कह रही थी कि दीदी को बुलाओ आप मुझे उनसे भी माफी मांगनी है , मैं बेवजह उन्हें भी गलत समझती रही ।

हम् चाची आपकी बहू मुझे ठीक से जानती भी कहां है? उससे कहना ऐसी ननद से दूर ही रहने में भलाई है, हाहाहाहाहा।

अरी पागल तुझसे तो वो न जाने क्या क्या सीखेगी? 

जब तूने मुझे इतना आत्मविश्वास दिया विपरीत परिस्थितियों में तभी तो आज हम सिर उठाकर खड़े हैं और यह बात मेरे बेटे ने उसे न बताई होगी क्या कि तेरी ही वजह से आज हम सड़क पर न होकर अपने घर में हैं । कौन होगा ऐसा जो बिना शर्त पैसा दे दे कि आप मकान बनाओ,कम से कम किराए के पैसे से तो बचोगे।

तू तो मेरी सगी बेटी से बढ़कर है और यह बात तेरे भैया भाभी को भी समझ आ गई है ।

वो खुद आएगा तुम दोनों को बुलाने।

चाची मैं आज बहुत खुश हूं।

हम जरुर आएंगे। आप भी आते रहा करो, हमें अच्छा लगेगा।

अच्छा उमा अब चलती हूं।

जी चाची हम जल्दी ही आएंगे।

लेखिका : पूनम सारस्वत

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