‘बुरा सपना’ – पूनम वर्मा | Short Inspirational Story In Hindi

घन्न… घन्न… मोबाइल में अलार्म बज रहा था । सुबह के पाँच बज रहे थे । मैंने उठकर अलार्म बन्द किया और बिस्तर पर जाकर बैठ गई । मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा था । नाक बंद, गले में दर्द और हल्का बुखार भी लग रहा था । मैं किचन में  गई और एक गिलास पानी गर्म करके पिया और फिर बिस्तर पर लेट गई । मोबाइल में अब छः बजे का अलार्म लगा दिया । सोचा, बच्चों को तो आठ बजे स्कूल भेजना है, छः बजे उठकर बच्चों के साथ-साथ पति का भी नाश्ता तैयार कर दूँगी । फिर सबको भेजकर दिन में आराम कर लूंगी । सोचते-सोचते  न जाने कब आँख लग गई । नींद खुली तो तो दिन के ग्यारह बज रहे थे । मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी । ये मुआ अलार्म क्यूँ न बजा । चेक किया तो अलार्म बजने में अभी सात घण्टे बाकी थे । मैंने ए एम की जगह पी एम लगा दिया था । हे भगवान ! अब क्या होगा ?  बच्चों का स्कूल भी छूट गया ! और इनका ऑफिस ? मैं दौड़ी-दौड़ी दूसरे कमरे में गई । बच्चे आराम से सो रहे थे । मुझे गुस्सा आ रहा था । मैंने चादर खींचकर उन्हें जगाया । “अभी तक सो रहे हो, आज स्कूल नहीं जाना था क्या ?” तभी ये बाथरूम से निकले और मुझे उलाहना देने लगे, “बच्चों को क्यों डाँट रही हो, तुम भी तो सो रही थी । तुम्हारी वज़ह से आज मुझे भी ऑफिस जाने में देर हो जाएगी । बॉस की डाँट पड़ेगी सो अलग ।”

“सो रही थी तो जगाया क्यों नहीं ।”

“अब बिना मतलब बहस मत करो और जाओ कुछ हल्का नाश्ता तैयार करो, मैं दस मिनट में ऑफिस निकलूंगा ।”

इनका फरमान सुनते ही मैं किचन की तरफ दौड़ी । जल्दी-जल्दी नाश्ता तैयार कर इन्हें भेजा और फिर इत्मीनान होकर सोफे पर बैठ गई । सिर अभी भी भारी लग रहा था । घर के सारे काम पड़े थे पर कुछ करने की हिम्मत नहीं हो रही थी । बच्चों को स्कूल न भेजने का अफसोस हो रहा था सो अलग । मन-ही मन अपने आप पर तरस खा रही थी, “आखिर एक अकेली औरत क्या-क्या करे ! किचन से लेकर सब्जी मंडी तक, बच्चों के लंच-बॉक्स से लेकर उनके होमवर्क तक और पति को सुबह जगाने से लेकर उनकी हर चीज सम्भालने तक । और तो और मैं सोई क्यों रह गई या मेरी तबियत कैसी है किसी ने पूछा भी नहीं । ओह ! अब थक चुकी है यह औरत ! इस पुरुष के वर्चस्व वाले परिवार में स्त्री का कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया है । नारी का शोषण अब बर्दाश्त नहीं होगा । अब पति और बच्चों की कामचोरी नहीं चलेगी । अब तो कोई न कोई फैसला लेना ही पड़ेगा । अब मैं करूँगी हड़ताल !

कुछ खटर-पटर की आवाज़ मेरी नींद में खलल डाल रही थी पर मेरी आँखें अपने दरवाजे खोलने को बिल्कुल तैयार न थीं ।  जब मैं बहुत परेशान हो गई तो एक झटके से दरवाजा खोल दिया । सामने पतिदेव चाय लेकर खड़े थे । मेरी आँखें आश्चर्य से फ़टी-की-फटी रह गईं । मैं असमंजस में थी । मुझे यह भी नहीं पता चल रहा था कि यह सुबह है या शाम । मैंने पूछा- “शाम हो गई ! आप ऑफिस से आ भी गए ?”


मेरा सवाल सुनते ही मेरे पति और दोनों बच्चे हँसने लगे । मैं आश्चर्य से तीनों को देख रही थी ।

“अरे मम्मी ! अभी सुबह हुई है सुबह ।” बेटे अमित ने हँसते हुए कहा । 

उनकी बातें सुनकर मेरा सिर चकरा रहा था । मैंने अमित को डाँटते हुए कहा “देखो ! मुझे गुस्सा मत दिलाओ । मुझे पहले से ही सिरदर्द हो रहा है । सही-सही बताओ ! ये सब हो क्या रहा है ?”

सुनकर अमित थोड़ा सकपकाया लेकिन उसकी दबी हँसी कुछ और ही बयान कर रही थी । मैंने सुमित की ओर देखा, वह भी दोनों हाथों से मुँह बन्द कर हँसी को दबाने का असफल प्रयास कर रहा था । तभी पतिदेव मामला सुलझाने सामने आए ।

“हे देवी ! आप अभयदान दें तो आपका असमंजस दूर करूँ ।”

जवाब में मैं बस आँख फाड़े आतुरता से उनके जवाब का इंतज़ार कर रही थी । उन्होंने मौके की नज़ाकत को समझ अविलम्ब सफाईनामा पेश किया, “दरअसल हुआ यह कि आज जब मेरी नींद खुली तो आप गहरी नींद में सो रही थीं और आपका बदन तप रहा था इसलिए मैंने आपको जगाना उचित नहीं समझा । फ्रेश होने के बाद जब मैंने मोबाइल देखा तो बच्चों के स्कूल से मैसेज आया था कि आज भारत बंद है इसलिए सभी स्कूल बंद रहेंगे और साथ ही आज मेरा ऑफिस भी बंद है । फिर हम तीनों ने मिलकर घर की साफ-सफाई की और नाश्ता बनाया । अब चाय बनाकर आपके साथ पीने की इच्छा से उपस्थित हुआ हूँ । कुछ समझीं ? अब जल्दी से उठकर फ्रेश हो जाओ । हम साथ में नाश्ता करेंगे । फिर तुम्हें दवा भी तो लेनी है ।” 

मैं अवाक थी, यह क्या हो रहा है ? मुझे कुछ विश्वास नहीं हो रहा था । मैंने फिर पूछा, “अभी समय क्या हुआ है ?”

“नौ बजे हैं !” उन्होंने सहजता से उत्तर दिया । पर मेरे लिए यह विश्वास करना सहज नहीं था ।


“आज आप ऑफिस नहीं गए ?”

“नहीं भई ! अभी तो बताया ।”

“तो वो हड़ताल…”

“कैसी हड़ताल ?

तभी अमित पूछ बैठा, ” मम्मी आप  नींद में भी हड़ताल-हड़ताल बोल रही थीं, कहाँ हुई हड़ताल ?” 

“मतलब वो सपना था !” मैं बुदबुदाई ।

पतिदेव ने फिर पूछा “अरे भई ! कौन-सा सपना और कैसी हड़ताल ?”

“अब छोड़ो भी ! आँख भी खुल गई और हड़ताल भी टूट गई ।” कहते हुए मैं चाय पीने लगी । 

पूनम वर्मा

राँची, झारखण्ड ।

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