बेटियां बोझ नहीं होती – गणेश पुरोहित

  उसकी स्मृति पटल पर मम्मी-पापा का एक वार्तालाप उभरा। मम्मी कह रही थी- क्यों लड़की को बाहर पढ़ने भेज रहे हो ? जानते नही, जमाना कितना खराब है। लड़किया घर में, मोहल्ले में और अपने शहर में सुरक्षित नहीं है, फिर पराये शहर में बिना मां-बाप के साये के कैसे रहेगी ? मेरा मन नहीं कर रहा है… 



इसे इंजीनियरिंग के बजाय बीएससी करवा लीजिये…कम से कम लड़की निगाहों में तो रहेगी। वैसे भी ज्यादा पढ़ा लेंगे तो इतना पढ़ा लिखा लड़का कहां से लायेंगे ? तब पापा ने मम्मी को झिड़कते हुए कहा था-जमाना खराब है यह मान कर यदि सभी लड़की का भाग्य मां-बाप अपनी मुट्ठी में बंद करके रखेंगे तो कोई भी बेटी जमाने की रफ्तार के साथ दौड़ नहीं पायेगी।

 हम उसे पैसे के बल पर जबरन पढ़ने के लिए बड़े शहर में थोड़े ही भेज रहे हैं, वरन उसमें काबलियत हैं, इसलिए भेज रहे हैं। जब बीटेक फाइनल में उसका अच्छी कम्पनी में प्लेसमेंट हो गया तो मां क्रोध से बिफरते हुए बोली-मुझे नहीं भेजना बेटी को महानगर में नौकरी करने…बेटी कमा कर लायेगी और हम खायेंगे, ऐसे संस्कार नहीं हैं हमारे।…. 

आपने पढ़ाई करवा दी, अब शादी करवा दो।…. सामने वाला चाहेगा तो उसे नौकरी करायेगा… हम क्यों करवायें ? जवाब में पापा बोले, हम उसे नौकरी इसलिए नहीं करवा रहें कि उसकी कमाई खाना चाहते हैं। हम नौकरी इसलिए करवा रहे हैं, क्योंकि उसका सुनहरा भविष्य सामने खड़ा है और हम जानबूझ कर उसे अंधेरे कमरे में बंद कर रहे हैं। 



लड़की जात है, इसका मतलब यह नहीं होता कि उसके आगे बढ़ने और उज्जवल भविष्य बनाने का अधिकार नहीं है। तुम्हें मालूम है पैंतिस वर्ष से नौकरी कर रहा हूं, पर मेरी सेलेरी मेरी बेटी की पहली सेलेरी से कम है।  पापा की जिद के आगे अंतत: मां को झुकना पड़ा और सीने पर पत्थर रख कर उसने दुखी मन से बेटी को नौकरी करने की अनुमति दे दी।

        दो साल से वह घर से दूर बड़े शहर में नौकरी कर रही है। घर वालों को उसकी योग्यता के अनुसार वर ढूंढ़ने में पसीना रहा है। जहां भी पापा बात करते हैं, उसकी नौकरी अवरोध खड़ा कर देती है। चाहे हम अपने आपको कितना ही आधुनिक और प्रगतिशील मान ले, परन्तु मध्यमवर्गीय परिवार की लड़कियां अब भी मां-बाप पर बोझ ही बनी हुई है।



 पापा की मन:स्थिति भी मम्मी की तरह होती तो उसकी सारी महत्वकांक्षाएं दब कर रह जाती और वह किसी परिवार की बहू बन कर कम्पयूटर पर उंगलियां चलाने के बजाय किचन में रोटियां बेल रही होती। उसने एक बार फिर जी भर कर शिखर को देखा। सचमुच शिखर ने उसके माता-पिता के साथ-साथ उसका भी टेंशन दूर कर दिया था। उसकी दृष्टि में प्रेम के साथ-साथ कृतज्ञता भी थी, जिसे महसूस कर शिखर मुस्करा रहा था।

गणेश पुरोहित

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