बिस्तर पर लेटे हुए गिरिजा जी को नींद नहीं आ रही थी, आंखों से आंसू लुढ़क कर गालों को गीला कर रहे थे, और वो साड़ी के दुपट्टे से उन्हें पौंछे जा रही थी, लेकिन आंसूओं की झड़ी रूक नहीं रही थी।
वो तकिये को मुंह में छुपाने लगी, लेकिन उनकी हिचकियां रह-रह कर उन्हें परेशान कर रही थी, अनमने मन से उठकर पानी का गिलास पकड़ा और घूंट-घूंट कर वो पीने लगी, बरसों पुराना दृश्य उनकी आंखों के सामने जीवित होने लगा, वो उसे स्मृति से मिटाना चाहती थी, लेकिन आज प्रायश्चित के इन आंसूओं ने उन्हीं सूखे पड़े दिवस को फिर से जीवनदान दे दिया।
ठीक इसी तरह पच्चीस बरस पहले उनकी सास पलंग पर लेटे-लेटे खांस रही थी, खांसी है कि एक बार जो उठती तो चलती रहती थी, उस कर्कश आवाज से उनके मनोरंजन में खलल पड़ता तो उससे वो सहन नहीं होता था, बरसों से बीमार सास पुष्पा जी पर वो बाणों की अग्नि वर्षा कर देती।
‘कितनी बार कहा है, तकिए में मुंह दबाकर खांसी किया करो, मुझे ये खुलखुल की आवाज बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती है, सुबह से घर के कामों में खटकती हूं, सुयश पढ़ने गया है, जरा सी देर मनोरंजन के लिए टीवी चलाती हूं तभी आपको विध्न डालना होता है, सारा मजा किरकिरा कर देते हो, अब धनवान के घर में ब्याही होती तो टीवी मेरे कमरे में होता, पर फक्कड़ के घर आ गई तो बारी-बारी से देखना होता है।
फिर मेरे ससुर जी कोई जायदाद तो छोड़कर नहीं गये जो मैं आपको अलग से कमरा दे देती, अब बाहर चौक में ही टीवी और आप, साथ में सुयश सबको
यही रहना है, उसके आने के बाद खाने पीने में लग जाओ, बस यही तो समय मिलता है, और आपकी खांसी शुरू हो जाती है।
पुष्पा जी लाचार सी उस छोटे से तख्त से उठकर बाहर बरामदे की धूप में चली जाती थी, और वहीं तकिया ले जाकर उसमें मुंह छुपाकर खांसती थी, ताकि बहू के मनोरंजन में विध्न ना हो।
वो एक अजीब सी बीमारी से ग्रसित हो गई थी, उन्हें खांसी चलती पर टीबी की बीमारी नहीं थी, अस्थमा भी नहीं था, वो शहर के प्रदूषण की चपेट में आ गई थी, इसी वजह से उन्हें एलर्जी हो गई थी और अब वो गाहे-बगाहे खांसती रहती थी।
पुष्पा जी बरामदे में काफी देर बैठी रही, सुयश उनका पोता विद्यालय से आ गया, भोजन कराने के बाद, गिरिजा उसको पढ़ाने लगी और उसने साथ ही साथ रात के खाने की भी तैयारी कर ली, मुकेश उनके पति का घर में प्रवेश हुआ था कि वो बिफर गई, या तो इस घर में तुम्हारी मां रहेगी या मैं रहूंगी, मैं अब इस बीमार के साथ नहीं रह सकती हूं।’
धीरे ब़ोल गिरिजा, मां और बेटा सुन लेंगे तो उन पर गलत असर होगा, अब वो बड़ा हो रहा हैं, सब समझते हैं, फिर मां भी कहां जायेगी? मां का हमारे सिवा कौन है? मुकेश ने समझाते हुए कहा।
‘मुझे नहीं पता, तुम्हारी मां काम की ना काज की, औरों के घरों में सास सब्जियां साफ कर देती है, कपड़े समेट देती है, रोटियां सेंक देती है, पर मुझे तो इनसे जरा भी आराम नहीं मिला है, उल्टा इनका काम करो और दिनभर इनकी खांसी बर्दाश्त करो, इनको वापस गांव छोड़ आओं।
गांव …..मुकेश चौंक गया, गांव में तो कोई है भी नहीं, पिताजी भी नहीं रहें, और ऐसे में मां को अकेला कैसे छोड़ दूं??
तुम्हारा तुम जानों, जो भी करना है वो करो, पर मुझे इस मुसीबत से छुटकारा चाहिए, वरना मैं अपने मायके चली जाऊंगी, अपने बेटे और अपनी मां को संभाल लेना, गिरिजा की बातों ने मुकेश को उलझन में डाल दिया, वो रात भर सो नहीं पाया।
दो दिन बाद सुबह जल्दी उठकर उसने पुष्पा देवी का सामान बांधा और उन्हें ऑटो में बिठाकर ले गया, गिरिजा जी अब खुश थी, अब उन्हें सास से छुटकारा मिल गया।
मां के समाचार लेने मुकेश जी ही जाते रहते थे, कभी गिरिजा ने उनकी झूठे भी खैर-खबर नहीं ली।
कुछ सालों बाद एक दिन घर पर फोन आया उस समय मुकेश जी तबीयत खराब होने की वजह से वो सो रहे थे, तो उनका फोन गिरिजा ने उठाया, उधर से आवाज आई, ‘ वृद्धाश्रम में आपकी मां का देहांत हो गया है, आप उन्हें अंतिम संस्कार के लिए ले जाइये, ये सुनते ही गिरिजा जी ने मुकेश जी को उठाया।
ये सब क्या है? आपने मां को गांव नहीं भेजा? मुझसे इतने साल झूठ बोला, वो गुस्से से बोली।
हां, झूठ बोला, वहां मां को गांव में अकेले किसके सहारे छोड़ देता? तुम मुझे गांव मां को मिलने या संभालने के लिए जाने देती? यहां तो मेरा जब मन हुआ मैं मां से मिल आता था, मां की पसंद की चीजे उन्हें दे आता था, उनकी सेवा कर आता था, तुमने तो उन्हें घर से निकाल दिया, अपनी संतान से दूर रहने का कष्ट तुम्हें उस दिन समझ आयेगा, जब तुम्हारी अपनी संतान तुमको अपने से दूर कर देगी।
ऐसा लगा जैसे उस दिन मुकेश जी ने गिरिजा जी को अनजाने में श्राप दे दिया हो।
चार-पांच साल निकल गये, और उनका बेटा सुयश बड़ा हो गया था, अब उनकी इच्छा हुई कि वो अपने बेटे की शादी करें।
उन्होंने लड़की अपनी पसंद की ढूंढ़ी और बहू को ब्याहकर घर पर ले आई, कुछ महीनों तक तो सब बहुत अच्छा चला। अचानक एक दिन सुबह मुकेश जी टहलने निकले थे, और तेज गति से आती हुई कार की चपेट में आ गये, उसी समय उनकी मौत हो गई, घर में कोहराम मच गया, अब गिरिजा जी एकदम से अकेली रह गई।
बेटे-बहू अपने में व्यस्त रहते थे, दोनों पांचों दिन नौकरी करते थे, और बाकी दो दिन शॉपिंग करना और घूमना फिरना चलता रहता था।
बेटा कभी-कभी गिरिजा के पास आकर बैठता था, लेकिन बहू को वो फूटी आंख भी सुहाती नहीं थी।
धीरे-धीरे समय निकला, कई दिनों से उन्हें अपनी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी, उनकी भूख कम हो गई थी, और कमजोरी भी बहुत महसूस हो रही थी, शरीर भी थका-थका सा रहने लगा था, बेटा सुयश अस्पताल ले गया, सारे टेस्ट हुए, उसमें से कुछ रिपोर्ट बाद में आई, जिनमें लिखा था कि गिरिजा जी को कैंसर हो गया है।
ये सुनते ही उनकी बहू निधि बिदक गई, नहीं मै इनका इलाज नहीं करवाऊंगी, कैंसर का इलाज तो बहुत महंगा होता है, इसमें लोगों के घर, दुकान तक बिक जाते हैं, लोग कंगाल हो जाते हैं, आप इनको कहीं छोड़ आओं।
सुयश हैरान था, आखिर मम्मी को कहां छोड़ आऊं?
वो मेरी मम्मी है, मैं उनका इलाज करवाऊंगा।
वृद्धाश्रम…. हां, यही ठीक रहेगा, दादी जी को भी तो इन्होंने वहीं पर बरसों रखा था, हम भी इन्हें वहीं छोड़ आते हैं, अब मैं नौकरी करूंगी या तुम्हारी मां की सेवा करूंगी, मुझसे ये सब नहीं होगा।
बहू-बेटे के बीच का वार्तालाप गिरिजा जी ने सुन लिया और उन्हें बहुत दुख हुआ, जो दुख उनकी वजह से उनकी सासू मां ने सहा था, वो ही दुख उनके पास आज लौटकर आया है,आज वो अपनी सास की पीड़ा को दिल से महसूस कर रही थी, क्यों कि कल जहां उनकी सास खड़ी थी, आज वो वहीं खड़ी है।
वो अपराध बोध से ग्रसित हो गई, उन्हें अपने द्वारा किया गया पाप अब बोझ लगने लगा, वो रात भर करवट बदलती रही।
सुबह उठकर अपना जरूरी सामान और कुछ दवाईयां रख ली, अब वो अपने पाप का प्रायश्चित करने को स्वयं आतुर थी।
बेटा सुयश, मैं अब ये घर छोड़कर जा रही हूं, मैं अपना दर्द और तकलीफ स्वयं ही सहन कर लूंगी, तुम दोनों को परेशान होने की जरूरत नहीं है, मैं उसी वृद्धाश्रम जा रही हूं, जहां तेरी दादी को मेरी वजह से तेरे पापा छोड़कर आये थे,अब मुझे इस घर से जाना होगा, तभी मेरा प्रायश्चित पूरा होगा।
मेरा वहां जाना बहुत जरूरी है, मेरा प्रायश्चित करना भी बहुत जरूरी है, मुझे तू छोड़कर आजा, सुयश मौन था और निधि मन ही मन खुश हो रही थी, वहीं कार में बैठते ही गिरिजा जी को मुकेश जी की आवाज सुनाई दे रही थी….. अपनी संतान से दूर रहने का कष्ट एक दिन तुमको जरूर समझ आयेगा….कार तेज गति से वृद्धाश्रम की ओर आगे बढ़ने लगी।
#प्रायश्चित
धन्यवाद
लेखिका
अर्चना खंडेलवाल ✍🏻