दीपा और रागिनी बचपन की मित्र हैं और संयोग से दोनों की शादी भी एक ही शहर में हो गई ।
समान शौक , बचपन की दोस्ती और एक ही शहर में रहते अब भी इनकी प्रगाढ़ दोस्ती में कोई अंतर नहीं पड़ा है।
एक दिन अचानक ही रागिनी ने दीपा को फोन किया और पूछा
हैलो, कैसी है दीपू?? कहां है आजकल, कोई आर्टिकल कोई कहानी नहीं दिख रही तुम्हारी??
“अरे क्या बताऊं यार,कि दिन कहां और कैसे निकल जाता है मुझे पता ही नहीं चलता।
मैं तो क्या मेरी कलम भी अब तो तड़प रही है लिखने को लेकिन समय ही नहीं मिलता है।
कब सुबह होती है किधर शाम आ जाती है पता ही नहीं चलता । घर और ऑफिस के बीच में चक्करघिन्नी बनकर रह गई हूं मैं तो “, दीपा ने रुआंसी होते हुए कहा।
एक रागिनी ही तो है जिससे वह अपने दिल का हाल बिना लाग-लपेट के कह सकती है।
अरे ऐसा क्या है? समय निकालो भई और इस शौक को जीवित रखो नहीं तो एक दिन तुम यूं ही तड़पकर मर जाओगी और किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा, अपनी तड़प को जिंदा रख,तभी लिख पाएगी।
एक हम हैं कि चाहें तब भी कुछ न लिख पाएं । अरे तुम्हें ऊपर वाले ने इस नैमत से नवाजा है और तेरी जान भी इसमें बसती है तो समय तो निकालना चाहिए न तुझे?
“तू कह तो सही रही है यार रागिनी ,पर समय जैसे उड़ने लगा है आजकल, लेकिन तू सही कह रही है, समय निकालना होगा, नहीं तो ये तो कभी मिलेगा ही नहीं , वैसे भी समय कहां किसी के लिए थमता है?
नहीं अब और नहीं आज से ही समय निकालूंगी चाहे जो करना पड़े।”
“मन में ये जो अपराध बोध की गांठ पड़ गई है न कि लेखन को समय देने से परिवार को समय नहीं दे पाती , सबसे पहले इसे ही खोलना होगा।
अरे अपने शौक को पूरा करने में कैसा अपराध बोध,है न?
फिर घर के सभी काम तो में ससमय करती ही हूं।”
ये हुई न बात, यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहती थी पर मेरी सहेली तो स्वयं ही बहुत समझदार है । इसे समझाने की जरूरत ही नहीं पड़ती बस कभी कभी इसकी ट्रेन बेपटरी दौड़ने लगती है, हाहाहाहाहा, तब इसे पटरी पर लाना पड़ता है।
अच्छा सुन आज शाम तुम लोग मेरे घर आ जाओ या फिर मैं आ रही हूं और बाकी की बातें मिलकर ही करेंगे।
रागिनी ने बिना किसी भूमिका के कहा।
अरे नेकी और पूछ पूछ, ऐसा कर तू ही आजा ,सभी को साथ लेकर।
दीपा खुश होकर बोली।
रागिनी बोली,”अरे ये तो टूर पर गए हैं और बच्चे अपनी ट्रिप पर मैं अकेली हूं और अपने लिए ट्रिप प्लान करने से पहले तुझसे मिलना चाह रही थी।”
अरे , कहां जा रही है तू , रागिनी, कब जाएगी?
अभी सोचा नहीं बस निकलना है पर।
ओके तो मैं भी चलूंगी तेरे साथ ,किसी शांत जगह पर चलते हैं जहां प्रकृति का सानिध्य हो और कोई आपाधापी न हो । मैं अपनी लेखनी को समय दूंगी और तू अपनी फोटोग्राफी करना ।
ठीक है?
वाह ये हुई न बात, सहेली हो तो ऐसी , बस तेरी इसी अदा पर तो मैं फिदा रहती हूं मेरी जान, रागिनी इतराये हुए बोली, बस तू ये आदर्शवादिता के खोल से निकल ले , फिर जिंदगी बहुत आसान हो जाएगी।
चल बस फिर शाम को मिलकर पैंकिंग करते हैं और चलते हैं कुल्लू की वादियों में।
ओके डीयर,
मिलती हूं शाम को।
तो फिर कब निकलना है, रागिनी??
तुम बताओ,कब चल सकती हो??
ऐसे तो शायद कभी समय मिले ही नहीं इसलिए तू बस प्लान बता।
मैं वैसे ही छुट्टी लेती हूं ऑफिस से भी और घर से भी, मुझे भी लग रहा है कि एक ब्रेक जरुरी है इस फिक्स रूटीन से।
ठीक है ,विपन चलेंगे या नहीं??
मैंने पूछा नहीं ,पर इसबार हम दोनों ही चलते हैं, एकबार फिर से दोस्ती को जीने,ये लोग साथ होंगे तो फिर वही घर-गृहस्थी।
बात तो सही है फिर मैं भी अतुल से कहती हूं कि अभी हम दोनों जा रहे हैं बाद में कोई प्लान परिवार के साथ करेंगे।
हां यही ठीक है,इस बार इस पुरानी ख्वाइश को जी ही लेते हैं ,
जहां खुला आसमान, करोड़ों तारे और हों सखियां हाथ में हाथ डाले, हाहाहाहाहा, और दोनों सखियां पैंकिंग में व्यस्त हो गईं।
पूनम सारस्वत
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
#मन की गांठ