बहन की राखी – पूजा अरोड़ा

“इस बार  सुषमा बहन की राखी नहीं आई। ईश्वर करे सब ठीक-ठाक हो।”

बिस्तर पर पड़े हुए सुखदेव बोला।

 

उम्र कोई अस्सी साल । कमजोर शरीर। जर्जर काया मानो बुढ़ापे का एक-एक दिन बस काट रहे हो..

 

“दादा जी!  क्या हो गया जो आपकी बहन सुषमा की राखी नहीं आई । आपको तो उनसे मिले भी कितने साल हो गए हैं।

पता नहीं आजकल वह कौन से गांव में रहती है ना तो उनका फोन लगता है और ना ही कुछ संदेशा है।

आपको तो यह भी याद नहीं कि आखरी बार आप उनसे कब मिले थे फिर भी आप उनको इतना याद करते हो। ना कोई लेना ना देना बस हर साल राखी की उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं।”

गुस्से से उनका पोता मयंक बोला।

 

सच जब उम्र हो जाती है ना तो बच्चे तो क्या उनके बच्चे भी घर के बुजर्गों को डाँटने लगते है।

ठंडी सांस भरते हुए सुखदेव बोले,

“तुम आजकल के बच्चों को तो रिश्तो की कोई कदर नहीं है।

हम चार भाई थे । मेरी कोई बहन नहीं थी। कहने को वह मेरी पड़ोसी की बेटी थी पर बचपन से ही उसी ने मुझे राखी बांधी थी। गांव में ऐसे मुंहबोले रिश्तो का भी बहुत मान रखा जाता था।

वह दिन है और आज का दिन है क्या मजाल जो आज तक किसी भी वर्ष मेरी राखी ना आई हो । बस गाँव छूटा पर राखी का वो बंधन आज भी कायम है। जानता हूँ जब से उसके पति गुजरे तो कभी किसी बेटे के पास तो कभी किसी के पास रहती है सो इसलिए आजकल किधर है मुझे भी नही पता और उम्र भी तो बस करे से दो चार बरस कम ही होगी।

आजकल तो सगे बहन भाई भी एक दूसरे को नहीं पूछते पर उस मुँहबोली बहन ने आज तक अपना फर्ज निभाया है।



बेटा बात सिर्फ राखी की नहीं है यह त्यौहार तो हमें एक दूसरे के रिश्तो की कद्र करना सिखाते हैं वर्ना इस भागदौड़ की जिंदगी में कहां किसी के पास समय है तू ही बता कितनी बार तू अपनी बहन से मिलने जाता है या तेरी बहन इसी शहर में होती है तुझसे मिलने आ जाती है।

तुम आजकल के बच्चे तो बस एक मिनट फोन पर बात करके सोचते हो कि सब ठीक हो गया पर वह आज भी अपने हाथ से राखी खरीद कर अपने बच्चों से मुझे भिजवाती  है उसकी राखी ही मुझे यह बता देती है कि मेरी मुँहबोली बहन जहाँ भी है  वह ठीक है और अपने इस भाई की लंबी उम्र की दुआ मांग रही है ।

चल छोड़ो तुम आजकल के बच्चों को कुछ समझ नहीं आएगी ।बस मैं तो राखी की इंतजार इस करके कर रहा था कि मुझे पता चल जाए कि मेरी बहन ठीक है जहां भी है वह खुश है ।”

सुखदेव ने ठंडी सांस लेते हुए अपने दिल की बात होते मयंक को कही। वो और बात थी कि शायद मयंक ने आधी बात सुनी और आधी नही।

दो दिन और बीत गए थे। अब तो कल राखी थी परंतु इस बार सुखदेव को राखी की आने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही थी।

सुखदेव इस चिंता में घुल रहा था कि जिस तरह वह  बूढ़ा हो रहा है आजकल किसी का भी एक मिनट का भरोसा नहीं ।

काश उसकी बहन सुषमा ठीक हो।

  इंसान के मन में हमेशा बुरे विचार पहले आते हैं और अच्छे बाद में।

अब तो दोपहर भी खत्म होने लगी थी और लगता था इस बार राखी नहीं आएगी और सुखदेव का मन में पुरानी बातें आ रही थी कि जब से चारपाई पर पड़ा सुषमा को नेग भी नही भेज पाता था। झट बच्चे बहाना बना देते थे, “क्या दादाजी! डिजिटल के जमाने में आप मनी आर्डर की बात करते हो।”

 



पोती मेघा ने आकर सुखदेव को कहा,

“दादा जी ! अगर आप की राखी नहीं आई तो इस बार मैं बाजार से लेकर आपको राखी बांध दूंगी। मेरी एक सहेली भी अपने दादाजी और अपने पापा को राखी बांधती है ।” फीकी हँसी हँस दिया था सुखदेव।

उस बच्ची को क्या बताते कि वह राखी के लिए नहीं बल्कि अपनी बहन मुंह बोली बहन सुषमा की कुशल मंगल के बारे में जानने के लिए राखी का इंतजार कर रहे हैं।

 

इतने में पोते मयंक की पत्नि ने आकर एक लिफाफा सुखदेव जी को पकड़ाते हुए कहा, ” लो दादा जी ! आपकी इंतजार की घड़ियां खत्म हुई । आप की  बहन जी की तरफ से आखिर राखी आ ही गई ।”

कंपकपाते  हुए हाथों से सुखदेव ने उस लिफाफे को पकड़ा और उसको अपने माथे पर लगा लिया।

आज उस भाई के हाथ में राखी को पकड़कर जो खुशी आई उसके चेहरे की उस खुशी को बयान नहीं किया जा सकता था ।

ऐसा लगता था मानो सुखदेव को कोई खजाना मिल गया हो ।

उस राखी के जरिए ही तो एक भाई को उसकी मुंह बोली बहन के बारे में यह पता चल रहा था कि वह बिल्कुल ठीक-ठाक है जहां भी है सुखी है।

 

दोस्तों! आधुनिक जमाने में आपसी भेदभाव के कारण यह त्योहार अपनी गरिमा को खोता जा रहा है परंतु यह एक ऐसा पर्व है जो एक भाई और बहन के रिश्तो को और संबंधों को गहरा करने में एक अहम भूमिका निभाता है ।

बहन और भाई का खून का रिश्ता हो या मुँह बोला, उन दोनों के रिश्तो को यह एक रेशम की डोरी ही है जो बांधकर मजबूत बनाती है।

 

#दिल से दिल तक# पूजा अरोड़ा

 

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