अपनों के बीच कैसी मेहमाननवाजी ? – भाविनी केतन उपाध्याय 

” क्या हुआ गरिमा ? उदास और विचलित क्यों है ? ” अपनी पत्नी को मायूस और उदास देखकर अमर ने कहा।

 

” आप ने देखा,जब से हम आए हैं शादी में शरीक होने पर एक भी बार भाभी या भैया ने हमारे बारे में कुछ नहीं पूछा और तो और आज सुबह का चाय नाश्ता भी मुझे ही बनाना पड़ा। मैंने यह सोचकर बना दिया कि अपना ही तो घर है इस में क्या ? पर यहां तो कोई पूछने वाला ही नहीं है। अगर मुझे पता होता कि मां बाबा के चलें जाने के बाद भैया भाभी का रवैया मेरे साथ ऐसा होगा तो मैं कभी अपनी भतीजी की शादी में शरीक होने नहीं आती।

 

दूसरी बात भाभी ने जरुरी भी नहीं समझा कि हमें वो चिंकी को देने वाले हैं वो दिखाए…. माना शादी ब्याह का घर है तो हजारों काम होंगे पर कुछ तो…” कहते हुए गरिमा की आंखों से आसूं लुढ़क आए और उसकी हिचकी बंद गई । वो तो अच्छा था कि कमरे में उस समय वो दोनों ही थे ।

 

अमर ने गरिमा के आसूं को पोंछते हुए हाथ थामे हुए कहा,” देख गरु, कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं कि उसमें ना चाहते हुए भी हमें समझौता करना पड़ता है और तुम्हारा यह रिश्ता भैया भाभी के साथ का है । अगर तुम अभी उस रिश्ते में समझौता नहीं करोगी तो शायद मामला उलझ जाए और तुम्हारा रिश्ता ख़राब हो जाए । परिवार और रिश्तेदारों में थोड़ा बहुत समझौता करने से अगर परिवार और रिश्तेदारी बच जाए तो उसमें कोई बुराई नहीं है ।

 




अपने ही घर में जब तुम बेझिझक होकर चाय नाश्ता बना लेती है तो यहां क्यों नहीं ? ये भी तो तुम्हारा ही घर है फिर…. अपने ही घर में अपनों के बीच कैसी मेहमाननवाजी ?

 

तुम भी मानती है कि शादी ब्याह के घर में हजारों काम रहते हैं तो फुर्सत नहीं मिलना जायज़ है और भैया भाभी तो दोनों अकेले ही सबकुछ कर रहे हैं भाग भागकर….. तो तुम्हें नहीं लगता कि हमें आगे बढ़ कर उनका हाथ बढ़ाना चाहिए… हम घरवाले होकर भी मेहमानो की तरह रहें तो हमारे रहने ना रहने का क्या फायदा ?

 

एक और बात चिंकी को क्या देने वाले हैं उनकी… जब बेटी उनकी है तो उन्हें जो भी देना है हमें क्या करना है ? वैसे भी हम कब आए हैं शादी में सम्मिलित होने ? एंड वक्त पर… तो वो चाहते हुए भी दिखा नहीं पाएंगे… शादी में सम्मिलित हर कोई सज्जन नहीं होता इसलिए दुल्हन का सब सामान सही सलामत ससुराल पहुंच जाए यह बात तो तुम भी मानती है ना ….

 

जब मुझे भैया भाभी की बात से कोई बुरा नहीं लग रहा तो तुम्हें क्यों लग रहा है वो भी अपने मायके में ? “

 

” मुझे अपने लिए नहीं पर आप के लिए बुरा लग रहा था कि घर के पहले दामाद हो तो थोड़ी आवभगत पर आप का भी तो हक़ बनता है ना…” गरिमा ने हिचकिचाते हुए कहा।

 

” बनता है और भैया भाभी ने किया भी तो है हमारा जोरों शोरों से स्वागत…. फिर हम वो पुराने ज़माने के फूफाजी नहीं है जो हर बात पर मुंह फुलाकर नाराज़ हो जाए…. शादी में सम्मिलित होने आए हैं तो शादी का आनंद लेंगे ना कि मुंह फुलाएं बैठे रहेंगे… चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ, हमें कमरे में आए बहुत देर हो गई है लोग क्या कहेंगे…” अमर ने मुस्कुराते हुए कहा तो गरिमा भी हंस पड़ें और मन ही मन इतराने लगी ऐसा हमसफर पाकर….

#उम्मीद 

स्वरचित और मौलिक रचना ©®

धन्यवाद,

आप की सखी भाविनी केतन उपाध्याय 

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