अपने- पराये – विमला गुगलानी : Moral Stories in Hindi

आफिस से लौटकर प्रतीक फ़्रेश हुआ, एक बड़ा सा मग काफी बनाई , हीटर और टीवी चलाया और धप्प से रज़ाई

में घुस कर फ़ायर स्टिक पर अपने मनपंसद प्रोग्राम का आंनद लेने लगा। सब कुछ कितना बदल गया है। कम्पयूटर,

मोबाईल, वाई- फ़ाई आदि ने तो दुनिया ही बदल दी। अब टीवी को ही लो, केबल, डिश सब छूट गए, कौन देखे बेतलब

की एड, सारे प्रोग्राम का मजा ही किरकिरा हो जाता है, जब खाना खाते वक़्त सड़े हुए दाँतों की और हारपिक की एड

देखनी पड़े या फिर बीमे वालों की, माना किजिंदगी के साथ और जिंदगी के बाद वाली बात ठीक है लेकिन वो तो

बंदे को ऐसे डराते है जैसे यमदूत सामने ही खड़ा है। फ़ायर स्टिक पर आराम से मनपंसद प्रोग्राम देखो।आधुनिक

तकनीक से लगभग सारे काम घर बैठे ही हो जाते है। बस थोड़ा ध्यान देने की और बैंलेस बना कर रखना जरूरी है,

वरना तो नुक्सानों की भी कमी नहीं।

ठंड का मौसम और गरम रज़ाई , बंदे का नाख़ून तक बाहर निकालने का मन न करे,

लेकिन बेचारे प्रतीक की मजबूरी। आज रात को बास की बेटी की शादी पर जाना जरूरी था। उसे तो ये ताम झाम

बिलकुल पंसद नहीं थे, पर बास से पंगा कौन ले । वैसे भी वो थोड़ा सड़ियल तबियत का था। सभी आफिस वालों ने

मिलकर बहुत बढ़िया गिफ़्ट ख़रीद कर पहले ही दे दिया था, पर वहाँ जाकर शक्ल दिखानी भी जरूरी थी। मन मार

कर प्रतीक रज़ाई से निकला और कार निकालकर चल पड़ा। सुनने में कितना अच्छा लगता है, मन की करो,मन की

सुनो। लेकिन क्या सचमुच ऐसा हो पाता है। इन्सान सामाजिक बंधनों में कितना जकड़ा हुआ है। कभी मजबूरियाँ तो

कभी ज़रूरते न जाने क्या क्या करवा देती है। यही सोचता सोचता वह शादी वाले स्थल पर पहुँच गया। होटल था पर

खाना वगैरह बाहर खुले लान में ही था। काफी भीड़ , खूब सजावट, कितनी ही सटाल्स अनगिनत प्रकार के व्यंजन।

प्रतीक अकसर सोचता कि हमारी शादियों में खाने की कितनी बरबादी होती है। इतना सारा खाने का

समान। पर अगर देखा जाए तो कोई स्टाल भी खाली नहीं थी। लोगों के सामने फलों की भरी प्लेटें ऐसे रखी हुई थी

कि शायद आज फलाहार से ही पेट भरना हो। और वैसे भी इस तरह के कुछ विदेशी फल ख़रीदना भी हर एक के बस

में नहीं। चाट , टिक्की , पापड़ी, गोलगप्पे, पेय पदार्थ और न जाने कितनी तरह के सनैक्स, पर हर जगह ही लाईन

लगी है। न पता चल रहा है, वैज है या नान वैज। पहले पढ़ना पढ़ता है। बेचारे बैरे, यहाँ से वहाँ , वहाँ से यहाँ

लगातार घूमते ही रहते है। आख़िर पेट भी तो पालना है। और इसके बाद खाना भी न जाने कितनी प्रकार की सब्जिया,

रोटियाँ, चावल, चाईनीज, प्रदेशीय, स्वीट डिशिज। प्रतीक ने बास को ढूँढा , शक्ल दिखा कर बधाई दी। और वापिस

आकर एक कोने में बैठ गया। आफिस के बहुत लोग परिवार सहित आए हुए थे और बीवी बचचों के साथ विभिन्न

तरह के व्यंजनों का लुत्फ़ उठा रहे थे। पीने वालों का कोना दूसरी तरफ था।

प्रतीक को इन सबसे कोई मतलब नहीं। घी में इस तरह तली मसालेदार चीजें उसे बिलकुल भी पंसद

नहीं थी। अब तक उसने सिरफ नींबू पानी और चार टुकड़े फलों के लिए थे। एक बात उसे अचछी लगी और वो था

गायन। स्टेज पर बहुत अच्छे गीत ग़ज़ल चल रहे थे। कान फोड़ू सगींत से तो कितना ही सुरमयी था ये। परतुं यहाँ

कोई उस कलाकार को दाद देने वाला नहीं था। मुशकिल से दो चार तालियाँ बजती। किसी को खाने पीने से ही फ़ुरसत

नहीं थी। प्रतीक तो कब का चला गया होता, अगर ये मनपंसद ग़ज़लें न सुनने को मिलती। और साथ में जलता हुआ

अलावदान। अकसर तो बिजली के बड़े बड़े हीटर ही रखे होते है। उसे आग के पास बैठकर ग़ज़लें सुनना अच्छा लग

रहा था। दो बार तो उसने पंसद की ग़ज़ल की फ़रमाइश ही कर दी , जो कि तुरंत पूरी हो गई। प्रतीक का घर से

बिगड़ा हुआ मूड अब ठीक हो चुका था। उसकी जान पहचान के बहुत लोग थे वहाँ, लेकिन प्रतीक अपने ही मूड का

बंदा था।

वो तो बास से मिलने के बाद घर ही जाने वाला था कि उसके कानों में जगजीत सिंह की ग़ज़ल तुम ,

इतना जो मुस्करा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो" सुनाई पड़ी, तो उसके पैर बरबस ही उस तरफ खिंचे चल

पड़े। अब भूख भी लग गई तो वो उठ खड़ा हुआ। शायद कुछ पंसद का मिल जाए। खाने के सामान के चारों तरफ घूम

लिया, मगर कुछ ख़ास पंसद नहीं आया। तभी उसकी नजर पंजाबी स्टाल की तरफ गई। कढ़ी और सरसों का साग

उसके फ़ेवरेट भी थे और देखने में अच्छे भी लग रहे थे। कई प्रकार की रोटियाँ, नान वगैरह थे, लेकिन उसे तलाश थी

मक्की की रोटी की और वो भी ताजा। एक तरफ थोड़ा साईड में तंदूर लगे हुए थे, वो वही पर ही पहुँच गया, तंदूरी

 

रोटी लेने ही वाला था कि उसने देखा, एक तरफ चूलहें पर दो औरते मक्की और बाजरे की रोटियाँ सेंक रही है। उसके

तो मन की मुराद जैसे पूरी हो गई। उसी तरफ लपक लिया और अपनी प्लेट आगे बढ़ाई। उस औरत ने चिमटे से प्लेट

में गरम गरम रोटी रख कर घी लगा दिया। प्रतीक वहीं पास में ही कुर्सी लेकर बैठ गया। रोटियाँ सेकनें वाली औरत ने

सादा सूट और अच्छे से सिर पर चुननी लपेटी हुई थी। दूसरी लड़की सी थी , वो थोड़ा थोड़ा करके आटा गूँध रही थी।

प्रतीक को खाना बहुत अच्छा लगा , उसे अपने गाँव की याद आ गई। ऐसा साग और मक्की की रोटी गावों में ही

मिलती है।

वो एक और रोटी लेने वहाँ फिर पहुँच गया। दो तीन लोग और भी खड़े थे। प्रतीक इंतजार करने लगा।

अचानक ही उसकी नजर रोटी पकाने वाली औरत पर पड़ी तो वो कुछ चौंक सा गया। चेहरा कुछ जाना पहचाना लगा।

वो थोड़ा घूमकर सामने आ गया। ये तो उसके गाँव की रत्नों चाची थी। उनके मुहल्ले में ही रहती थी। अच्छा घर था ,

कुछ ज़मीन वगैरह भी थी। ये यहाँ कैसे, वो सोच में पड़ गया। इसके पति को भी वो पहचानता था, अच्छी खेती बाड़ी

, शायद वो दो भाई थे। प्रतीक ज्यादा नहीं जानता था। वो बारहवीं के बाद जो गाँव से निकला तो आज दस बारह

साल हो गए , बहुत कम जाना हुआ। घर वाले शादी के लिए कितना ज़ोर दे रहे है, पर अभी वो सोच ही रहा है। पढाई

पूरी होते ही उसे अचछी सरकारी नौकरी मिल गई और वो शहर का होकर ही रह गया। रोटी लेकर उसने कई बार

ध्यान से देखा। लड़की की शक्ल भी उसी के जैसी लग रही थ। खाना खतम होते ही वो उठ खड़ा हुआ। मौका तलाशने

लगा कि जब वहाँ कोई न हो तब कुछ बात करे।

एक , दो, लोग वहा रोटी लेने आ ही रहे थे। जब कुछ मिंट वहाँ कोई नहीं आया तो वो पास जा कर बोला,

आप रत्नों चाची हो ना, मैं प्रीतू , रज्जी का बेटा। रत्नों ने आँख उठाकर देखा, पहचानने की कोशिश की, खुशी से भर

आई आँखों को पल्लू से पोंछते हां में सिर हिला दिया। पर यहाँ कैसे? लम्बी कहानी है बेटा। चाची रोटियाँ सेकतें बोली।

तब तक वहाँ दो तीन लोग आ खड़े हुए। चाची गरमा गरम रोटियाँ उनकी प्लेट में डालती गई। प्रतीक ने अपना कार्ड

निकाल कर हाथ में रखा हुआ था। जब वहाँ कोई नहीं था तो उसके हाथ में देकर बोला, कल मुझे फ़ोन पर अपना पता

बताना। बैठ कर बात करेंगे।रास्ते भर और रात भर उसके दिमाग़ में रत्नों चाची ही घूमती रही। गावों में घरों की छते

अकसर मिली हुई ही होती है। शहरों जैसा बेगानापन नहीं होता। उसे याद आया कैसे वो और उसके साथी उनके आम

के पेड़ से कच्चे पक्के आम छत से जाकर ही तोड़ लेते। रत्नों चाची की सास तो कई बार डाँटती लेकिन चाची को तो

उसने सदा ही मुस्कुराते देखा। ज्यादा बातचीत नहीं होती थी। प्रतीक को तो उनकी शादी का भी याद था।

अगले दिन आफिस में जाकर रोज़मर्रा का काम चालू हो गया। मोबाईल दो बार बजा, पर वो

उठा नहीं पाया। सिरफ नं देखकर वापिस काल नहीं की ।आफिस के काम में इतना बिजी हुआ कि कल वाली बात

दिमाग़ से ही निकल गई। शाम को जब गाडी में बैठने लगा तो किसी का फ़ोन आ गया। सुनकर बंद कर रहा था कि

दो मिस्ड काल दिखी, उसे कुछ आया। वापिस काल की, तो लड़की की आवाज़ , भैया मैं, बीना, कल शादी में–।ओह

हाँ, उसे सब याद आ गया। उसका पता पूछकर गाडी उसी और मोड़ दी। एक पुराने से होटल का पता था। जब वो वहाँ

पहुँचा तो रत्नों बाहर ही खड़ी थी।प्रतीक ने बड़े प्यार से उसके पैर छुए तो उसने उसे गले से लगा लिया। रत्नों उसे

लेकर होटल के पीछे बने कमरे में ले गई। ठीक ठाक सा कमरा। थोड़ा बहुत ज़रूरत का सामान । पानी पिलाकर वो

पास ही बैठ गई। प्रतीक समझ नहीं पा रहा था , कैसे बात शुरू करे, मगर करनी तो थी। वैसे गाँव में तो उन दोनों

की बात शायद कभी हुई भी न हो। सिरफ पहचान ही थी। शहर में किसी अपने का मिलना बहुत सकून देता है,लेकिन

रत्नों चाची जिन हालात में मिली वह दुखदायी था। हिम्मत करके उसने पूछ ही लिया। किसी अपने को पाकर आँसुओं

का बहना स्वाभाविक ही है। रत्नों चाची ने अपनी आपबीती कुछ इस प्रकार बताई।

पाँच साल पहले उसके पति की गाँव में साँप काटने से मौत हो गई । उसके पति से पंद्रह साल बड़ा एक

उसका अपाहिज जेठ और तीन ननदें है। ननदें अपने घरों में है, जेठ की शादी नहीं हुई। उसकी अपनी एक बेटी है।

पति की मौत के कुछ समय बाद ही उस पर जेठ से शादी करने के लिए सारे परिवार ने दबाव डालना शुरू कर दिया,

जो कि उसे मंज़ूर नहीं था। सास का कहना था , क्या पता वंश का वारिस ही मिल जाए। तरह तरह से उसे तंग किया

गया। वो बेचारी पाँच जमात पास , करे तो क्या करे। मायके में भाई भाभियों का ख़ुद का गुजारा मुशकिल, और दो

जनों को कौन रखे। बाप है नहीं, माँ को वैसे ही कोई नहीं पूछता। क्या करे। और तो और सास ने बेटी की भी पढाई

छुड़वा दी। भाई के कहने पर जब ज़मीन में अपना हिस्सा मागां तो तूफ़ान आ गया । सब ननदें ननदोई माँ का साथ

दे रहे हैं। बाहर आना जाना बंद। माँ बेटी सारा दिन घर का काम करती। कोई न कोई ननद आई ही रहती। जीना दूभर

 

कर दिया। जो दो चार गहने थे वो पहले ही सास के पास थे। एक रात माँ बेटी सदूकची में कपड़े डालकर भाग

निकली और बस पकड़ कर शहर पहुँच गई। यहाँ रहना भी कहाँ आसान था । घरों में बरतन सफाई का काम तलाश

किया तो दुत्कार ही मिली। बिना जान पहचान कौन अपने घर में घुसने देता।

सड़क किनारे कई रातें गुज़ारी। सारी सारी रात बेटी के सिरहने बैठी रहती। पास में जो थोड़े

बहुत पैसे थे , वो खत्म होने को थे। एक दिन इस होटल पर गई तो बर्तन साफ करने का काम मिल गया। कुछ दिन

बीते ही थे कि यहाँ के रसोईये को गांव जाना पड़ गया। होटल मालिक शादियों में खाना वगैरह बनाने का ठेका लेता

है। उस शादी में मक्की की रोटी बनाने वाला कोई नहीं था। इसे पता लगा तो उसने मालिक से कहा कि वो बना देगी।

सबको उसकी बनी रोटियाँ पंसद आ गई। तब से आज चार साल हो गए वो यही काम करती है, और मालिक ने खुश

होकर रहने के लिए होटल के पीछे कमरा और ज़रूरत का सब सामान भी दे दिया। और तो और बेटी को पास वाले

सरकारी स्कूल में एडमिशन भी दिलवा दी। बेटी दसवीं में पढ रही है।अभी आपसे फ़ोन पर बात के बाद वो टयूशन पर

गई है। कभी कभी मेरे साथ काम पर भी चली जाती है। जहाँ दुनिया में बुरे लोग है, वहाँ भले लोगों की भी कमी नहीं।

शुक्र है दाते का, रत्नों ने उपर वाले का शुक्रिया अदा करने के लिए हाथ जोड़ दिए।

लेकिन चाची आप चाचाजी का हिस्सा ले सकती है, प्रतीक ने कहा। कहाँ बेटा, मैं तो वापिस गाँव नहीं

जाऊँगी और कोर्ट कचहरी , मुझे कुछ नहीं पता। मैनें किसी को बताया ही नहीं कि मैं कहाँ हूँ। उस नर्क से एक बार

मुशकिल से निकली हूँ। यहीं पर रह कर अपनी बेटी को पढ़ाऊँगी, उसे किसी क़ाबिल बनाऊँगी। वो सब तो ठीक है,

लेकिन अपना हक छोड़ना भी अक़्लमंदी नहीं। मेरी बहुत जान पहचान है, सब ठीक हो जाएगा। चिंता नहीं करना।

देखता हूँ , कैसे हिस्सा नहीं मिलता, और जो ज़ुल्म आपने सहे , उनका हिसाब भी चुकता करना है। काग़ज़ात तैयार

करवा कर जलदी मिलूँगा। कुछ भी मुशकिल हो तो मुझे फ़ोन करना। नमस्ते कह कर प्रतीक तो चला गया पर रत्नों

अपने पराए का अंतर समझने की कोशिश कर रही थी।

विमला गुगलानी

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