अंतिम यात्रा या उत्सव – रश्मि प्रकाश : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : आज दोपहर को माँ का फोन आया,‘‘हैलो बेटा, जानती है वो पड़ोस वाली माया चाची थी ना रात को दिल का दौरा पड़ने से चली गई ,सुरेश चाचा के पास।उनके दोनों बेटों को देख कर लग ही नहीं रहा था उन्हें उनके जाने का कोई दुख हैं, उनको शमशान घाट ले जाने की तैयारी पूरे जोर शोर से कर रहे थे।जितने लोग आ रहे थे वो सब रो रहें थे पर बेटों की आँखो में आँसू ना थे।’’हाए हाए बेचारी माया चाची चली गईं कर के माँ रोने लगी

‘‘ माँ तुम फोन पर ऐसे क्यों रो रही हो? मुझे अजीब सा लग रहा… उनका अंतिम संस्कार हो गया?’’ पृथा ने माँ से पूछा

‘‘ हाँ बेटा.. अपनी आवाज को संयत कर माँ ने बताना शुरू किया,‘‘ जानती है सौ लोगों से ज्यादा लोग गए होंगे उनकी अंतिम यात्रा में.. तेरे पापा और भाई भी गए थे। अंतिम यात्रा पर दोनों बेटे लोगों से हाल चाल तो पूछ ही रहे थे,ये भी पूछ रहे थे काम धंधा , ऑफिस सब कैसा चल रहा है… बोलो भला अंतिम यात्रा में लोग ऐसी बातें करते वो भी माया चाची के बेटे खुद सबको पूछ रहे थे। अंतिम यात्रा पर गए लोग उनसे सहानुभूति जताते तो पता वो क्या बोल रहे थे… अच्छा हुआ चली गई हमेशा बाबूजी को याद कर माँ दुखी होती रहती थी.. माना अभी पचहत्तर वर्ष की ही थी, अपने सब काम खुद ही कर लेती थी पर जाने वाले को भला कौन रोक सकता है। बेटा उन दोनों भाई को देखकर सब यही कह रहे थे कैसे बच्चे है माँ के जाने का उनको कोई अफसोस ही ना हो रहा। सौ लोग सौ बातें बना रहे थे। माया चाची की अंतिम यात्रा में पूरे रास्ते उनपर फूल बरसाते ले गए। ये वही माया चाची है जो दीवाली पर घर फूलों से सजाने कहती तो बच्चे सुनकर अनसुना कर देते थे…गुलाब गेंदे की शौकीन माया चाची को जीते जी तो कभी फूलों से सजा घर ना दिखाया अंतिम यात्रा में पूरे फूलों से सजा दिया… क्या फायदा ऐसे दिखावे का…!’’माँ की आवाज में उनके बच्चों के लिए गुस्सा दिख रहा था।

‘‘अच्छा अच्छा, तुम परेशान मत हो माँ अपना ध्यान रखना.. उनके घर तो अभी तेरहवीं तक सब व्यस्त ही रहेंगे। तुम भी बीच बीच में हो आना माया दादी के घर। उनके बच्चे तो तुम्हें भाभी भाभी कह बड़ा मान देते हैं। चलो माँ कुछ काम कर लूं अभी ,फिर बात करती हूं।’’ पृथा ने कह फोन रख दिया


पृथा काम क्या करती उसे तो रह रह के माया दादी याद आ रही थी। पड़ोसी होने के नाते उनके साथ बहुत पारिवारिक संबंध बन चुका था, हर त्योहार साथ मनाया जाता.. मेरी दादी नहीं थी तो वो मेरी दादी की कमी पूरी किया करती थीं.. इतना लाड़ प्यार देती की कभी कभी उनके पोते पोतियों को जलन होने लगती थी। सुरेश दादा जब तक जिन्दा रहे दादी बनठन कर रहती थी पर उनके जाने के बाद जैसे वो जीना ही भूल गई थी। बहुएं ना उनकी पसंद का खाना देती ना कभी मन से एक नयी साड़ी दी। अपनी पुरानी साड़ी ही धुलवा के उन्हें दे दिया करती थी ये कहकर,‘‘ अब आप कहां आती जाती है जो नए कपड़ों की जरूरत होगी। इन सब से काम चल ही जाता है तो बेकार के खर्चे क्यों करना। जबकि माया दादी नए कपड़ों की बहुत शौकीन थी.. तीज त्यौहार पर नया ही पहनती। दादा जी के रहते हर दीवाली फूलों की लड़ियों से घर सजाती पर उनके जाने के बाद बच्चों ने फिजूल खर्ची और काम बढ़ने के डर से सब बंद कर दिया था।एक बार वो हमारे घर आई थी,माँ ने बेसन के लड्डू दिए वो बड़े चाव से खाते हुए बोली,‘‘ बहुत दिनों बाद कुछ मीठा खाने को मिला है वरना सादा भोजन करती हूं बच्चे कहते इस उम्र में पेट नाजुक हो जाता तो जो हजम हो सके वो ही खाओ,बस जो मिलता निगल जाती हूँ। सोचती हूँ ठीक ही कहते ठीक-ठाक रहूँ,किसी पर बोझ ना बनूं अपने हाथ पैर सलामत रहते उनके पास चली जाऊं।’’और दादी सच में ऐसे ही चली गईं किसी पर बोझ ना बनी।

माँ हर दिन फोन कर हाल समाचार बताती रहती थी।

मेरा बहुत मन किया दादी के काम में मैं भी शामिल हो पाऊं ये सोच कर मैं वहाँ चली गईं।

जब वहां पहुंची तो माया दादी के बच्चों को देखकर मुझे भी एहसास हुआ मानो कोई उत्सव कोई उत्सव मना रहे हैं। हलवाई बुला रखे थे तरह तरह के पकवान बन रहे थे जो दादी को पसंद थे।

बस पूरे घर में एक ही इंसान दुःखी नजर आया वो थी माया दादी की बेटी कम्मो बुआ। मुझे देखते कस कर पकड़ ली और रोते रोते बोली,‘‘ देख ना पृथु तेरी दादी छोड़ कर चली गई हम अनाथ हो गए हैं.. अब तो मां गई समझो नैहर ( मायका) छूट ही गया।’’ उनके रूदन से मेरा मन भी रो उठा।

‘‘ क्यों रोती हो बुआ…दादी दादा जी के पास चली गई, देखो चाचा दादी की पसंद का पकवान बनवा रहे उनकी आत्मा तृप्त हो जाएगी आप बस सोचो जहाँ रहे खुश रहें।‘‘ पृथा ने कहा


‘‘ काश माँ को ये सब जीते जी ही कभी कभी खिला देते तो वैसे ही उनकी आत्मा तृप्त हो जाती।’’ कम्मो बुआ के दुखद पर कटाक्ष भरे शब्दों से माँ की कही बात सच लगने लगी।

काम वाले दिन हर पकवान दादी की पसंद का , उनकी तस्वीर के पास गेंदा गुलाब के फूल और लड़ियां मानो दादी जीते जी जो खोजती रही वो उनके मरने के बाद मिल रहा था।

नयी साड़ियों का ढेर लगा हुआ था पर पहनने वाली तो जा चुकी थी। माया दादी के जाने का गम कही अंदर ही अंदर दबा हुआ था पर सामने जो दिख रहा था वो देखकर चाचा और चाची पर गुस्सा भी आ रहा था पर मैं तो अपनी थी ही नहीं जिसके लाड में खींच कर आती थी वो तो जा चुकी थी।

तभी माया दादी के किसी बेटे की हँसी भरी आवाज सुनाई दी,‘‘माँ के साथ उस पीढ़ी का अंत हो गया। अब हमारी पीढ़ी का वक्त आ गया है।’’(माया चाची ही उनके साथ वालों में आख़िरी बची हुई थी उनके जाते उस पीढ़ी का अंत हो गया था)

मैं वहां से चुपचाप अपने घर आ गई। माँ को पकड़ कर बोली ,‘‘ माँ कितना अच्छा हो ना लोग अपने माँ बाप को जीते जी खुशियां दे दें.. जाने के बाद लोगों में वाहवाही लेने से क्या उनकी आत्मा तृप्त हो जाती होगी? क्या वो आशीर्वाद देते होंगे?’’

माँ अपनी भावुक पृथा को सीने से लगा कर बोली,‘‘ बेटा आजकल लोग यही कर रहे है… दिखावे में रहते… हमने तो माँ पिता सास ससुर की सेवा मन से कर ली उनके आशीर्वाद का ही परिणाम है मुझे मेरे बच्चे समझदार मिलें बस तुम और दामाद जी पृथ्वी (बेटा)और बहू हमेशा हमारा मान करो ताकि हम यूं माया चाची की अंतिम यात्रा की तरह दिखावे में दुनिया से विदा ना ले। अपने सास ससुर को भी उतना ही मान देना जितना हमें देती हो..जीते जी आशीर्वाद जो देंगे जाने के बाद भी आशीर्वाद ही देंगे।’’

उस अंतिम यात्रा ने पृथा को यह समझा दिया कि मान सम्मान जो करना वो जीते जी कर लो.. जाने के बाद किया तो क्या किया।

आप मेरी इस बात से कितने सहमत है? आपके विचारों का इंतजार रहेगा।

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धन्यवाद

रश्मि प्रकाश

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