एहसास – डा. नरेंद्र शुक्ल

‘बहू तुझसे नीरज ने कुछ कहा ? रमा के कमरे में दाखिल होते हुये सास ने कहा ।‘

‘ऩ.. . नहीं तो मां । सपनों की दुनिया में खोई रमा , पंलग से उतरकर, सिर पर चुन्नी लेते हुये बोली । ‘

‘आइये , बैठिये न मम्मी । रमा ने पंलग पर बिछी चादर को ठीक कर दिया । ‘

‘बेटा तू खड़ी क्यों है । आ इधर मेरे पास बैठ । सास ने रमा का हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बैठा लिया । ‘

‘देख बेटा, अब तुझे तो पता ही है कि इस साल बिजनैस में कितने घाटा हुआ है । सालों का पुश्तैनी कारोबार तक , सब कुछ स्वाह हो गया है। लाखों की देनदारी सिर पर सवार है । सूखी रोटी चल जाये वही बहुत है । पर , कर्ज़ तो चुकाना ही होगा । तेरे पिता जी भी बीमार रहने लगे हैं । मुझसे उनकी हालत देखी नहीं जाती । नीरज भी टेंशन में रहने लगा है। अब सुनती हूं कि वह पीने भी लगा है । देख बेटी, अगर तू अपने पिता जी से दो लाख रूपये मांग ले तो वह एक बार फिर से कोशिश कर सकता है । सास ने सीधे- साधे शब्दों में स्पस्ठ रूप से सब कुछ कह दिया । ‘

‘पर मां, पिता जी पर तो पहले से ही पांच लाख रूपये का कर्ज़ है । अब भैया के गुजर जाने के बाद, घर में कोई कमाने वाला भी तो नहीं है । पेंशन के पैसों से ही बड़ी मुश्किल से घर चल रहा है । रमा की आंखों से आंसू बहने लगे । ‘




‘सब ढ़कोसला है । क्या मुझे नहीं पता नहीं कि लुधियाना वाले घर का भी किराया आता है । सास को तनिक भी दया नहीं आई । ‘

‘पर मम्मी, उसका तो केस चल रहा हैं । सारा किराया कोर्ट – कचहरी के खर्चे और वकील की फीस में चला जाता है । रमा ने सिसकते हुये कहा । ‘

‘मैं सब जानती हूं । मुझे ज्यादा समझाने की जरूरत नहीं है । चल उठ । रूपये ले कर आ । नहीं तो तेरे लिये इस घर में अब कोई जगह नहीं है । वह उसे बाजू से पकड़ कर, घसीटती हुई, दरवाज़े तक ले आई ।‘

‘मैं सच कह रहीं हूं मम्मी । उनके पास रूपये नहीं हैं । रमा ने गिड़गिड़ाते हुये सास के पैर पकड़ लिये ।‘

‘मुझे कुछ नहीं पता । चुपचाप रूपये लेकर आ । सास ने उसे घर से बाहर धकेल कर दरवाज़ा बंद कर लिया । ‘

‘रूपये नहीं हैं । उंह । वह बड़बड़ाते हुये किचन की ओर चल दी । ‘

लगभग दस मिनट के बाद, घर की घंटी बजी । उसने सोचा , रमा ही होगी । कमबख़्त ऐसे नहीं मानेगी । अभी ठीक करती हूं । हाथ में छड़ी लेकर वह दरवाज़े तक बढ़ी । लेकिन, दरवाजा़ खोलते ही उसके होश उड़ गये । सामने रोती- बिलखती उसकी अपनी बेटी राधिका खड़ी थी । उसके माथे से खून बह रहा था । बाज़ूओं पर भी जख़्म के निशान थे ।

वह बेचैन हो गई – ‘ क्या हुआ मेरी बेटी को । घर पर सब ठीक तो है ।‘

‘मां । मां राकेश ने मुझे बहुत मारा । घर से भी निकाल दिया है । कहते हैं नई गाड़ी खरीदनी है । दस लाख रूपये चाहियें । ‘




‘पर बेटा, हमने शादी में मारूति दी तो थी । मां का चेहरा एकाएक गुस्से से तमतमा उठा । ‘

‘वे कहते हैं कि यह मिडिल क्लास कार है । सब स्टैंडर्ड है । उनके दोस्त उनका मजा़क उड़ाते हैं । उन्हें बड़ी कार चाहिये । उन्होंने मुझे बहुत मारा मां । वे आप सब को भी गालियां देते हैं । वह फफक – फफक कर रोने लगी । ‘

‘चुप हो जा मेरे बेटे । मां ने उसे गले लगा लिया । उसकी आंखों के सामने बहु का रोता-बिलखता चेहरा उभर आया – चुप हो जा रमा । यह तेरा ही तो घर है मेरे बेटे । मैं तेरी गुनहगार हूं । मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूंगी । सदा अपने सीने से लगाये रखूंगी । वह रोने लगी- अपनी मां को माफ नहीं करेगी बेटी । और एक मां ने अपनी बहू को सीने से चिपटा लिया ।

आज उसे एहसास हो गया था कि बहू भी बेटी है । उसे दहेज़ के लिये तंग करना एक ऐसा गुनाह है जिसका कोई प्रायश्चित नहीं ।

डा. नरेंद्र शुक्ल

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