अधिकार अपनी मृतक देह पर – पुष्पा जोशी : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : परिवार में सभी लोगों के कुछ अधिकार होते हैं, कुछ फर्ज होते हैं, और जब ये सन्तुलित होते हैं,तो जीवन सहज हो जाता है। मगर स्वाति के जीवन में तो बचपन से ही उसे सिर्फ फर्ज का पाठ पढ़ाया गया। परिवार में उसके क्या अधिकार हैं, उसे पता ही नहीं था, और न उसने जानना चाहा। बस परिवार के प्रति  अपने फर्ज को निभाती रही। जब पैदा हुई तो घर में  दादा – दादी किसी को कोई खुशी नहीं थी।एक माँ थी जो उसे प्यार करती थी।

जैसे-जैसे वह बढ़ी  होती गई, पढ़ाई करने के साथ उसे उसके फर्ज का पाठ पढ़ाया गया। माता -पिता भाई के प्रति उसके क्या फर्ज हैं। जब उसका छोटा भाई हुआ, तो बहुत खुशियाँ मनाई गई। पूरे मुहल्ले में मिठाई बांटी गई। घर पर अगर किसी वस्तु जैसे पढ़ने के लिए टेबल ही क्यों न हो,अगर उसके बड़े भाई को पसन्द आती तो दादी कहती ‘बेटा स्वाति इसे भाई को दे दे।’

मध्यमवर्गीय परिवार था, कई जगह समझौता करना पड़ता और समझौता हर जगह स्वाति ही करती। उसकी पसंद का खिलौना छोटे भाई को देना पड़ता। भाई की शादी हुई तो अपना कमरा भाई को देना पढ़ा ऊपर से हमेशा सुनना पढ़ता तू तो पराई अमानत है,घर तो बहू का ही होता है। शादी हुई तो सोचा यह घर तो पराया था, वह घर तो मेरा होगा।

मगर मायके और ससुराल के लोगों की मानसिकता में अन्तर था, उनके लिए बहू पराए घर से आई तो पराई है, और बेटी तो उनकी अपनी है। पति सुमेर पहले माँ का बेटा है, बाद में पति। उसकी हर बात पर सास का नियंत्रण था। यहाँ भी उसे सबके प्रति उसके फर्ज का  ही पाठ पढ़ाया गया। वह सबके प्रति अपने फर्ज निभाती रही।सास -ससुर की सेवा. ननन्द, देवर की फरमाइशों को पूरा करना। आए -गए का सत्कार करना। पति की आवश्यकताओं की पूर्ति करना….. और भी सभी फर्ज वह निभाती रही। ननन्द और देवर की शादी हो गई।

वह दो जुड़वां बच्चों की माँ बन  गई, तो फर्ज में और इजाफा हो गया। उनका लालन-पालन करना उसका फर्ज था,और वह उसने बखूबी निभाया।बच्चे बड़े हो  गए उनका विवाह हो गया और नौकरी लग गई।

सास ससुर दुनियाँ छोड़कर चले गए। उनके तैरह दिन के कार्यक्रम यथावत किए। उनके नाम से साल भर दान पुण्य का काम चलता रहा।उसने अपने परिवार के प्रति अपने सारे फर्ज को निभाया। आज उसका शरीर थक गया है ।

उम्र ७० साल की हो गई है। बेटे अमित और सुमित दूसरे शहर में नौकरी करते हैं,औरअपनी दुनियाँ में मस्त है। माँ के त्याग को भूल गए, माँ ने जो किया वह तो उनका फर्ज था। और अब उनका माँ के लिए क्या फर्ज है……? दोनों मौन है । दोनों भाई एक दूसरे पर टालते हैं। स्वाति जी का स्वास्थ खराब हो गया है,किसी असाध्य बिमारी ने उन्हें घेर लिया है, बिस्तर पर है।

सुमेर जी ने दोनों बेटों को फोन किया मगर दोनों बहानेबाजी करते रहै, कोई नहीं आया स्वाति जी जानती थी कि वे अब ज्यादा दिन इस संसार में नहीं रह पाऐंगी, उन्होंने जीवन में पहली बार अपने अधिकार का प्रयोग किया और एक निर्णय लिया, उन्होंने एक बार भी बेटों को फोन नहीं लगाया क्योंकि उन्हें मालुम था, कि सुमेर जी उन्हें  कई फोन लगा चुके हैं।

दौपहर में पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी और उनकी पत्नी तबियत पूछने आए थे। वे इस परिवार के शुभचिंतक थे। स्वाति जी ने उनसे कहा ‘भाई साहब आपसे कुछ काम था, वादा कीजिये कि आप उसे करेंगे।’

‘वादा करता हूँ भाभी! मैं करूँगा।’ स्वाति जी ने उन्हें एक नंबर देकर कहा कि ‘जब मेरी मृत्यु हो जाए तो आप इस नंबर पर खबर जरूर कर देना।’ वे बोले ‘ठीक है।’ उन्होंने नंबर देखा भी नहीं और डायरी में रख लिया।
एक दिन स्वाति जी की सॉंसें बहुत तेज चल रही थी, सुमेर जी ने उन्हें दवा दी। घर के सारे काम करने के लिए कामवाली लगवा रखी थी।उससे ठीक से बोलते नहीं बन रहा था। उसने सुमेर से कागज और पेन मांगा ।

दवा के असर से कुछ आराम मिला तो उसकी ऑंख लग गई। सुमेर जी को भी नींद आ गई थी। उसकी नींद खुली तो उसने कांपते हाथों से कागज पर लिखा-
‘सुमेर,
तुम्हारे साथ चलते-चलते, अब मेरे जाने का समय आ गया है। मुझे अब तुमसे कोई शिकायत नहीं है। एक समय था जब तुम मुझसे ज्यादा, अपनी माँ का ध्यान रखते थे, उनकी बात तुम्हारे लिए पत्थर की लकीर थी। उस समय मुझे हमेशा तुमसे शिकायत रहती थी, पर मैंने तुमसे कभी नहीं कहा। आज सोचती हूँ, तो लगता है तुम सही थे।

तुमने  मम्मीजी का ध्यान रखा और वही उचित था । अगर, तुमने उनका  ध्यान नहीं रखा होता, तो शायद वे भी तुम्हारे बारे में वही सोचती, जो इस समय मैं अपने बच्चों के बारे में सोच रही हूँ। मैंने मनसा, वाचा, कर्मणा जितना बन सका अपने फर्ज निभाए है । आज तक अपने किसी अधिकार की बात नहीं की, आज पहली और आखरी बार अपनी इस देह पर अपने अधिकार की बात कर रही हूँ।

यह देह मेरी है, मरने पर इसका क्या करना है,यह फैसला लेने का अधिकार मेरा है, उसे कोई छीन नहीं सकता। मैं जानती हूँ, मेरे मरने की खबर सुनकर दोनों लाल दौड़ते हुए आऐंगे, हो सकता है चिता को अग्नि देने के लिए विवाद भी हो जाए दोनों की उम्र बराबर है। वे चिता को अग्नि दे,  तैरह दिन का कार्य कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करना चाहेंगे।

मैं उन्हें इस फर्ज से मुक्त करती हूँ, जो मेरे जीते जी मेरी चिंता नहीं कर सके मरने के बाद…… क्या फायदा? इसलिए मैंने अपनी इस देह का दान कर दिया है, मैंने इसके लिए अस्पताल में नाम लिखवा कर सारी कार्यवाही पूरी करली है। हो सकता है मेरे इस निर्णय को पूरा करने में तुम्हारें हाथ कांप जाए, बेटो के कहने पर तुम किसी दुविधा में पढ़ जाओ, तुम्हें दुविधा से बचाने के लिए यह काम मैंने पड़ौस वाले शर्मा जी को सौंप दिया है। मैं अपनी इस देह का दान कर मानवता के फर्ज को निभा रही हूँ। फिर से कह रही हूँ मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है।
तुम्हारी
स्वाति’
खत लिखकर उसने तकिये के नीचे रख दिया। उसे आभास हो गया था कि वह कुछ समय की मेहमान है। सुबह सुमेर ने आवाज लगाई ‘स्वाति…. स्वाति…. ।’  मगर अब वह नहीं थी,वह घबरा गया उसकी रूलाई नहीं रूक रही थी। उसने बेटों को फोन लगाया। बेटे बहू दौड़ते हुए आए। आस पास के लोग इकट्ठा हो गए थे।

सुमेर को याद आया कि कल स्वाति ने कागज पेन मांगा था उसने उसके बिस्तर के आसपास देखा, तकिये के नीचे स्वाति का खत मिला। पढ़कर फफक कर रो पढ़ा। शर्मा जी ने उन्हें धीरज बंधाया उन्होंने एक फोन लगाया अस्पताल से गाड़ी आ गई थी, और स्वाति की देह मानवता का फर्ज निभाने के लिए उसपर रखी जा रही थी।

बेटो ने विरोध किया तो सुमेर ने कहा -‘तुम्हें कोई अधिकार नहीं है, अपनी माँ के इस निर्णय के विरूद्ध जाने का।’ उन्होंने खत बच्चों के हाथ में पकड़ा दिया, पढ़कर बहुत रोए पछताए मगर अब क्या फायदा पंछी तो उड़ गया था।
समय रहते माता पिता के प्रति अपने फर्ज निभा लो वरना बाद में पछतावे के सिवा कुछ हासिल नहीं होता।

प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

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