सखियों ये कहानी शुरू होती है एक छोटे से गांव से। जिसमें बहुत ही छोटे से परिवार में एक बूढ़ी अम्मा और उसके पोते राजू और उसके पोते की बहू धनिया रहते हैं। मैने (अब तो पड़ जाएगी ना तुम्हारे कलेजे में ठंडक ) इस कथन पर दो तरीके से इस कहानी में दादी अम्मा के जरिए कहने की कोशिश भर की है
अगर सही लगे तो जरूर बताएं क्योंकि मुझे लगता है हर कथन के दो मायने होते है तो ये जरूरी तो नहीं कि हम एक पर ही चलते रहें।
अरी ओ धनिया कहां चली गई किधर चली गई चूल्हे की आग पूरी ठंडी पड़ चुकी है। कब खाना बनाएगी । कब मुझे खिलाएगी । तुझे पता है ऐसे बिछावन पर पड़े पड़े मुझे भूख जल्दी लग जाती है मगर ई धनिया का कहीं पता नहीं। रे धनिया भूख के मारे जब मुझे कुछ हो जाएगा । तब तेरे कलेजे में ठंडक पड़ेगी क्या। देखना मैं चली जाऊंगी तो अकेली रह जाएगी हां कह देती हूं तोहे।
अरे दादी अम्मा!! मैं यही हूं कहां जाऊंगी आपको छोड़कर खाना बन चुका है। वह तो मैं पीतल वाली थाली नल पर धोने चली गई थी। अब ले आई हूं आप काहे को फिक्र करती हो। और यह कहते-कहते धनिया ने दादी अम्मा को उस पीतल की थाली में हंडिया में रखी हुई गरम-गरम खिचड़ी और थोड़ा दही परोस दिया और फिर बड़ी प्यार से उन्हें अपने हाथों से खिलाने लगी क्योंकि दादी अम्मा के हाथों में कई दिनों से बहुत दर्द था।
इसीलिए वो अपने हाथों से खा नहीं पाती थी और और ना ही और कुछ कर पाती थी इसीलिए धनिया जैसे ही भोर होती अपना बिछावन छोड़ जल्दी-जल्दी नहा धोकर अपनी दिनचर्या में लग जाती थी शाम ढलने तक बदन टूटने लगता था मगर जैसे ही दादी अम्मा की सूरत देखती उनका आशीर्वाद पाती तो तुरंत खुद की तकलीफ का पन्ना एक झटके में फाड़ देती।
जैसे ही खिचड़ी के थोड़े निवाले दादी अम्मा के पेट में गए दादी अम्मा आशीष देने लगी कहने लगी तेरे ब्याह को अभी छ महीने ही हुए है धनिया । बेटा बहु भी दो महीने पहले दुर्घटना में चले गए । मेरे निगोड़े दोनों हाथों में राम जाने क्या हो गया है। जो कुछ भी नहीं कर पाती हूं। राजू भी घर गृहस्थी चलाने खातिर शहर जा बसा है ।
जो महीने में एकबार हम दोनों से मिलने आवे ।तुम्हारे ससुर ने राजू को खेत में काम करने को बड़ी समझाए मगर राजू तो ठहरा जिद्दी । जो कहता था अपना खेत होगा तभी करूंगा मगर किसी और के खेत में काम नहीं करूंगा इससे तो भले मैं शहर जाकर नौकरी कर लूंगा।
अब बताओ दोनों में बात तो एक बराबर है ना । गांव में दूसरों के खेत में नौकरी करे या फिर शहर की नौकरी मगर इन लड़कों को कौन समझाए। यहां रहता तो हम दोनों के साथ रहता। घर की खिचड़ी खाता । कह देती हूं धनिया जाने तोरे खिचड़ी में स्वाद है या तोरे हाथों में। बस खा के मन और पेट दोनों भरे है ।अब कौन जाने शहर में उसने क्या खाया होगा।
ऐसी ही थी अम्मा । उनकी बातें बिना किसी झूठे आवरण के सीधी और सपाट होती थी। मगर उसके पीछे छुपे हुए प्यार और चिंता को मैं भली भांति समझ जाती थी। दादी अम्मा के भी राजू और मेरे सिवा और था ही कौन। मैं जब भी दादी अम्मा को कलसी के पानी से शरबत बनाकर पिलाती तो बड़ी खुश होकर पीती थी और अपने पास बैठा कर बोल पड़ती ।
हां धनिया मेरे कलेजे में बड़ी ठंडक पड़ गई है। अब तु भी पीले कहकर अपना बचा हुआ गिलास का शर्बत मेरे हाथों में थमा देती । कुछ दिन पहले तक दादी अम्मा अपना सब कुछ कर रही थी हमारे जीवन की गाड़ी कभी थोड़ी ठीक कभी धीमे जैसे तैसे आगे बढ़ रही थी क्योंकि शायद अमीरों के घर में दिन पंख लगा कर उड़ जाते होंगे जो मैने कभी देखे ही नहीं ।
यहां तो दिन कटने पर लगता है । लो आज का दिन जैसे तैसे कटा अभी कल का बाकी है । मैं अपनी थाली भी दादी अम्मा के आंख लगने पर ही परोसती थी की दादी अम्मा मेरी थाली ना देख ले। जिसमें थोड़ी सी खिचड़ी और दही थोड़ा सा ही होता था मगर न जाने कहां से दादी अम्मा की आंखें खुल जाती और बोल उठती ।
अरे धनिया तुम्हारा पेट भी इतना छोटा तो है नहीं कि उसमें इतनी सी खिचड़ी और दही समाये। रोज कहती हूं पेट भर खाया कर मगर ये धनिया सुनती ही नहीं है। यह तो जब तक मुझसे चार बातें नहीं सुन लेती। तब तक इसके कलेजे में ठंडक नहीं पड़ती है। आपकी अभी-अभी तो आंख लगी थी।अब फिर उठ गई हो और फिर बीच में ही उठकर धनिया ने अपनी थाली में खिचड़ी और थोड़ा दही भी परोस लिया ।
लो अब अच्छे से खा लेती हूं । तब तो आपके कलेजे में ठंडक पड़ जाएगी दादी अम्मा। अब सो जाओ आराम से कहकर धनिया दादी अम्मा को देखते हुए वह खिचड़ी और दही प्रेम से खाने लगी।
स्वरचित
सीमा सिंघी
गोलाघाट असम