“मम्मी, मैं साफ-साफ कह देती हूँ, अब मैं वहाँ नहीं रहूँगी!”
फोन के उस पार सन्नाटा पसर गया।
“आजकल कौन सास-ससुर के साथ रहता है? और वो ननद… मुझे तो फूटी आँख नहीं सुहाती!”
पारो की आवाज़ तनी हुई थी।
फोन कान से लगाए बैठी सुजाता माथा थामकर रह गईं।
“क्या हो गया है तुझे? कोई दौरे आते हैं क्या?” वह बड़बड़ाई।
तभी पास बैठे महेश बाबू, जो अब रिटायर हो चुके थे, और हमेशा के ठहरे अंदाज़ में अख़बार पढ़ते थे — उन्होंने अख़बार तह किया और फोन धीरे से ले लिया।
“क्या हुआ? फिर मां-बेटी में जंग छिड़ गई?” उनकी आवाज़ में हल्की मुस्कान थी।
“पापा,” पारो बोली, “मैं कह रही हूँ — अब मैं इस घर में नहीं रहूँगी। बहुत हो गया! अब आपकी परी बेटी हमेशा के लिए आपके पास आ रही है।”
महेश बाबू मुस्कराए। चाय की प्याली में शक्कर डालते हुए बोले —
“अरे वाह! हमारी परी बेटी लौट रही है? इस घर के दरवाज़े तो हमेशा खुले हैं, बेटा… पर…”
“पर क्या?” पारो ने तुनक कर पूछा।
“देखो बेटा,” महेश बाबू बोले, “तुम सबसे छोटी हो, सबकी ज़िंदगी देखी है तुमने। सीमा दीदी, रेखा, पूनम — सबने कितनी मुश्किलें देखीं, लेकिन आज भी अपने घर में टिक कर खड़ी हैं।”
“सीमा दीदी ने ही तो कहा है — किसी से दबने की ज़रूरत नहीं!” पारो ने बीच में काटा।
“हां, कहा तो था। लेकिन ‘दबना’ और ‘झुकना’ में बहुत फर्क होता है। दीदी ने रिश्ते बचाए, हार नहीं मानी।”
महेश बाबू ने फोन रखा और सुजाता से कहा,
“कल पारो को बुला लो, एक बार आमने-सामने बात कर लें।”
—
अगली सुबह।
धूप आँगन में फैल रही थी। तुलसी के पास मूढ़ा रखा था, वहीं बैठे थे महेश बाबू। हाथ में अख़बार नहीं, इस बार एक पीतल की परात में फल थे और नारियल पानी।
पारो आई, चेहरे पर वही ज़िद —
“पापा, आप समझ क्यों नहीं रहे! मैं वहाँ अब नहीं टिक सकती। सास-ससुर के ताने, ननद की शक्ल — सब बोझ लगते हैं।”
महेश बाबू मुस्कराए।
“बैठ बेटा। बहस नहीं करेंगे, आज खेल खेलते हैं।”
“खेल?”
“हाँ, कल्पना कर — दस साल बाद तू माँ बनेगी। तेरा बेटा बड़ा होगा, उसकी शादी होगी। अब सोच, तेरी बहू तुझसे कहे — ‘मैं अब यहाँ नहीं रह सकती। आपकी शक्ल तक नहीं सुहाती!’ — तब तू क्या करेगी?”
पारो सन्न। उसकी ज़बान थम गई।
“और सोच, तेरा बेटा बोले — ‘मम्मी, आप ही देख लो। मैं तो थक गया हूँ!’ तब तेरा दिल टूटेगा या नहीं?”
पारो की आँखें कुछ नम हुईं।
“अब पड़ गई न कलेजे में ठंडक?” महेश बाबू ने चुटकी ली।
“तू सोचती है ये सास-ससुर कोई और हैं। पर वही किसी और की माँ-बाप हैं, जैसे हम तेरे। और जो तू उनके लिए बोझ कह रही है, वही कल को तेरे लिए भी दुआ माँगेंगे।”
वे धीरे से बरामदे में टहलते हुए बोले —
“घर वो नहीं होता जहाँ सब कुछ मन का हो। घर वो होता है जहाँ चाय बनाते वक़्त याद हो कि किसे कौन-सी प्याली पसंद है। जहाँ सास की खाँसी पर दवा मिल जाए और ननद की तुनक पर हँसी।”
थोड़ी देर चुप्पी रही।
फिर बोले —
“पारो, रिश्ता निभाना है तो ‘मैं’ से ‘हम’ तक आना पड़ेगा।”
पारो की आँखें अब भर आईं थीं।
उसने पापा की हथेली थामी, फुसफुसाई —
“पापा… मैं कोशिश करूँगी।”
महेश बाबू मुस्कराए।
“कोशिश नहीं, शुरुआत कर। जा बेटा… और हाँ, आज जब मम्मी जी खाँसे न, तो अदरक वाली चाय बनाकर देना। कह देना — ‘मम्मी, आपके लिए’। देखना, उसी दिन घर बदला-बदला लगेगा।”
वह दरवाज़े की ओर बढ़ने लगी।
पीछे से महेश बाबू की आवाज़ आई —
“और हाँ, अगली बार तेरी सास कहे — ‘बहू, बड़ी प्यारी चाय बनाई’, तो समझ लेना — तू बहू नहीं, बेटी बन चुकी है।”
पारो मुस्कराई। आँसुओं को हथेली से पोछा।
“अब दामाद जी फोन करके ना कह दें — ‘पापा, पारो को समझाइए, घर सूना-सूना लगता है’”, महेश बाबू हँसे।
वह मुस्कुराते हुए चली गई। इस बार उसके बैग में कपड़े कम, समझदारी ज़्यादा थी।
महेश बाबू ने आसमान की ओर देखा, और खुद से बोले —
“बिटिया भागी नहीं, लौटी है… शायद अब वही ‘घर’ अपना बना पाएगी।”
दीपा माथुर