रात के खाने के बाद सब लोग
अपने-अपने कमरों में जा चुके थे।
घर की दीवारों पर पसरी खामोशी ने जैसे अंजलि के भीतर के तूफान को और उकसा दिया था।
वह छत पर चली आई। सिर के ऊपर आकाश, बिखरी हुई चाँदनी,v और एक ऐसा अकेलापन…
जो उसकी आत्मा की परछाई जैसा था।
अंजलि ने धीमे से अपनी हथेलियाँ खोलीं।
कुछ बरस पहले यहाँ मेंहदी के रंग थे, चूड़ियों की खनक थी, सपनों की महक थी।
आज वही हथेलियाँ सूनी थीं…
बस एक अदृश्य जंजीर की कसावट थी।
वह बुदबुदाई —
“माँ कहती थी, सहती रहो बेटी, यही ससुराल है।
पापा ने कहा था, जिद नहीं करना, घर का सम्मान सबसे ऊपर है।
लेकिन माँ, पापा…
क्या मेरे सपनों का कोई मोल नहीं?”
उसकी आँखों से एक मोती गिरा —
धरती पर नहीं, उसकी आत्मा पर।
और वहीं से अंकुर फूटा… विद्रोह का।
धीरे-धीरे उसके भीतर एक आवाज़ उगने लगी —पहले धीमे, फिर तेज़, फिर गर्जना सी।
“अब नहीं। अब चुप नहीं। अब समझौता नहीं।”
सुबह हुई तो घर की रूटीन मशीन की तरह चलने लगी।
पर आज अंजलि के कदमों में एक नई दृढ़ता थी।
वह सीधे माँजी के कमरे में गई।
उनकी पूजा थाली अब भी कांप रही थी — जैसे समय खुद काँप उठा हो।
“माँजी,” अंजलि ने विनम्र लेकिन दृढ़ स्वर में कहा,
“मैं आप सबकी इज्ज़त करती हूँ। आपके घर की भी।
पर अब मैं अपनी भी इज्ज़त करूँगी।
मैंने तय कर लिया है — मैं अपनी पढ़ाई पूरी करूँगी।
मैं नौकरी करूँगी।
मैं अपनी पहचान बनाऊंगी — एक पत्नी और बहू से आगे भी।
मुझे आपकी दुआ चाहिए, रोक नहीं।”
माँजी ने चौंक कर उसे देखा।
इतने बरसों में पहली बार उन्होंने अंजलि की आँखों में वह चमक देखी थी, जो किसी दहकती हुई मशाल की तरह थी।
पति दिनेश भी आ गया।
उसके माथे पर शिकन थी।
“अंजलि, ये सब क्या? घर, बच्चे, जिम्मेदारियाँ…? ये सब छोड़कर अपने सपनों के पीछे भागोगी?”
अंजलि ने बहुत शांति से जवाब दिया —
“सपने छोड़ने से घर नहीं बसते, दिनेश।
सपनों के साथ जीने से घरों में रौशनी आती है।
मैं भाग नहीं रही, मैं खड़ी हो रही हूँ — अपने आप के साथ।”
दिनेश कुछ कह नहीं पाया।
उसके भीतर भी कहीं हल्की सी हूक उठी थी —
कि शायद वह भी कभी अपने सपनों से समझौता कर चुका था।
अंजलि ने फिर धीरे से कहा —
“मैं किसी के खिलाफ नहीं लड़ रही, मैं खुद के लिए खड़ी हो रही हूँ।
क्योंकि एक घुटती हुई आत्मा, एक मरी हुई औरत, किसी घर को रोशन नहीं कर सकती।
अगर मुझे अपना आकाश नहीं मिलेगा, तो इस घर की छत भी मेरे लिए जेल हो जाएगी।”
कुछ क्षणों के लिए कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया।
फिर माँजी ने बहुत धीमे से अपनी थाली नीचे रख दी।
आँखों के कोनों से ढुलक आए आँसूओं को पोंछते हुए बोलीं —
“जा बेटी… जा…
हमसे बहादुर बन कर दिखा।
हम तो बस निभाते रहे…
तू जी लेना।”
उस दिन अंजलि ने खुद से, अपने परिवार से, और इस ब्रह्मांड से एक नया रिश्ता बाँधा।
संघर्ष आसान नहीं था —
आलोचनाएँ, ताने, तिरस्कार — सब सहना पड़ा।
पर हर दर्द ने उसे एक नई परत दी, हर आंसू ने उसे एक नया आकाश दिया।
कुछ वर्षों में उसने अपनी पढ़ाई पूरी की।
स्कूल में अध्यापिका बनी।
छोटे बच्चों को सपनों का महत्व सिखाया —
सिखाया कि “समझौता केवल वहाँ करो जहाँ आत्मा सहमत हो, जहाँ आत्मा रोए नहीं।”
समय ने करवट ली।
आज वही माँजी अपनी सहेलियों से गर्व से कहती हैं —
“हमारी बहू स्कूल में पढ़ाती है… और देखो, पूरा घर भी संभालती है।”
दिनेश भी अब उसके संघर्ष को समझ चुका था।
कभी-कभी तो खुद बच्चों के लिए नाश्ता भी बना देता था — अंजलि की क्लास के दिनों में।
और अंजलि?
उसने अपनी हथेली की सूनी लकीरों में खुद से नई लकीरें लिखीं —
प्यार की, आत्म-सम्मान की, सपनों की।
जब भी कोई नन्हा बच्चा उसकी क्लास में आता और कहता —
“मैम, मैं बड़ा होकर कुछ बनना चाहता हूँ!”
तो अंजलि की आँखें भर आतीं…
क्योंकि वह जानती थी —
सपनों से समझौता नहीं किया जाता।
उन्हें जिया जाता है।
लेखिका : दीपा माथुर