आत्मसम्मान – सोमा शर्मा : Moral Stories in Hindi

रामू एक दर्जी था — सीधा-सादा, मेहनती और ईमानदार। शहर के एक कोने में उसका छोटा सा टीन का खोखा था, जहां वह दिन-रात सिलाई करता। कपड़े सिलाने वालों की भीड़ नहीं रहती थी, लेकिन जो आते, वो उसकी मेहनत की कद्र करते थे… या ऐसा रामू सोचता था।

रामू का पहनावा सादा था, बात करने का ढंग नम्र और आंखों में एक मासूम चमक। मगर आज के ज़माने में ये चीजें किसी की इज्जत तय नहीं करतीं — ये बात उसे तब समझ आई जब बगल में एक बड़ी सी बुटीक खुली।

“मॉडर्न फैशन हाउस” — बड़ी चमचमाती दुकान, जहां एसी चलता था, ग्लास डोर लगती थी, और अंदर डिजाइनर कपड़े सजे रहते थे। वहाँ अमीर घरों की महिलाएं, कॉलेज की लड़कियां और हाई-प्रोफाइल ग्राहक आते-जाते थे। एक दिन रामू अपने एक ग्राहक की डिजाइन लेकर उसी बुटीक में गया, ताकि वही कपड़ा देख सके।

जैसे ही वह अंदर गया, वहाँ बैठी रिसेप्शनिस्ट ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और रूखा अंदाज़ अपनाया –
“भैया, यहाँ सिलाई नहीं होती… और ये कपड़े बहुत महंगे हैं। आपके बस की बात नहीं है।”

वाह तरीका हो तो ऐसा – मीनाक्षी सिंह

रामू चुपचाप लौट आया। उस दिन पहली बार उसे एहसास हुआ कि इज्जत इंसान की नहीं पैसों की होती हैं।

कुछ हफ्ते बाद शहर में एक प्रतियोगिता हुई – “स्थानीय हुनर को पहचानो”। कपड़े डिज़ाइन करने का मुकाबला था। रामू ने खूब मेहनत से एक कुर्ता तैयार किया – हल्के रंग का, हाथ की कढ़ाई से सजा हुआ, बेहद सादगी और कला से भरा। उसने उसमें अपने वर्षों का अनुभव और दिल की मेहनत सी दी।

प्रतियोगिता के दिन जब उसका डिज़ाइन सामने आया, सभी जज और दर्शक दंग रह गए। वहीं उसी बुटीक की मालकिन और उनकी डिज़ाइनर टीम भी मौजूद थी। वे भी उसकी कलाकारी देखकर हैरान थीं।

रामू को पहला पुरस्कार मिला — एक लाख की राशि और एक फैशन शो में हिस्सा लेने का मौका। अब वही लोग जो उसे पहचानते भी नहीं थे, तारीफों की बारिश करने लगे।

अगले ही हफ्ते उसी बुटीक की मालकिन उसके खोखे पर आईं। साथ में वही रिसेप्शनिस्ट भी थी, जो पहले उसे देख कर मुँह फेर चुकी थी।
“रामू जी,” मालकिन ने मुस्कुरा कर कहा, “हमारे बुटीक में डिज़ाइनर की जगह खाली है। अगर आप चाहें तो हम मिलकर काम कर सकते हैं।”

रामू ने मुस्कुराते हुए कहा,
“माफ कीजिए, मैं वही रामू हूँ जो कुछ हफ्ते पहले आपके यहाँ खड़ा था। तब मेरे हाथों की कद्र नहीं थी क्योंकि मेरे पैरों में चप्पल और जेब में पहचान नहीं थी। आज इज्जत इसलिए मिल रही है क्योंकि नाम छप गया है और इनाम मिल गया है। लगता है इज्जत इंसान की नहीं, पैसों की होती है।”

सफर – उषा भारद्वाज

मालकिन और उनके साथ आई टीम निरुत्तर रह गई।
रामू ने कहा, “मैं दर्जी हूँ, कारीगर हूँ… और मुझे अपनी दुकान से प्यार है। अब मैं वही करूँगा – खुद के दम पर, अपनी इज्जत खुद कमाऊँगा।”

उस दिन रामू ने साबित कर दिया कि इज्जत भले देर से मिले, लेकिन जब आत्मसम्मान से मिले, तो उसका रंग कभी फीका नहीं पड़ता।

समाप्त।

सोमा शर्मा

#”इज्जत इंसान की नहीं पैसों की होती हैं “)

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