आत्मसम्मान (भाग 2) – निभा राजीव “निर्वी”

  ऋषि ने मुस्कुराते हुए कहा-“जी बिल्कुल बंदे का फोन हाजिर है।” फिर उसने अपने फोन से उसके लिए कैब बुक कर दी।

और उसके साथ ही कैब के पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगा। वह युवती बिल्कुल चुप थी और सामने शून्य में देखती जा रही थी।

ऋषि ने कहा- “जी मुस्कुराने के पैसे नहीं लगते हैं।” युवती ने सख्ती से उसे देखा, पर कहा कुछ नहीं। ऋषि ने कानों को हाथ लगाते हुए कहा- “सॉरी!”


उसकी इस हरकत पर युवती के चेहरे पर मुस्कुराहट की हल्की सी झलक आ गई। ऋषि ने कहा-“जी, हम एक ही सोसाइटी में रहते हैं। मेरा नाम ऋषि है और मैं इस शहर में नया-नया आया हूं और यही एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता हूं। क्या मैं भी आपका परिचय जान सकता हूँ?”

            “जी, मेरा नाम इला है और मैं यही पास के एक स्कूल में शिक्षिका के तौर पर काम करती हूं। ” युवती ने सीमित शब्दों में कहा।

तब तक कैब आ चुकी थी। इला ने धन्यवाद कर कैब मे बैठते हुए कहा-” जी, कल से मेरा ऑटो आ जाएगा, आपको परेशानी नहीं होगी।” ऋषि को भी ऑफिस के लिए देर हो रही थी। उसने मुस्कुराकर हाथ हिलाया और ऑफिस के लिए निकल गया।

            उसके बाद से उन दोनों मैं ऑफिस निकलते समय अक्सर बात चीत शुरू हो गई। ऋषि बड़बोला था लेकिन इला ज्यादा बातें नहीं करती थी और अपने आप में सिमटी सी रहती थी ।उसने बताया कि उसके पिता का बचपन में ही देहांत हो चुका था।फिर माँ ने दूसरों के कपड़े सीकर जैसे तैसे उसे पाला।इला बचपन से ही एक टांग से लाचार थी।  फिर भी उसने लगन से अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर यहां स्कूल में शिक्षिका के तौर पर नियुक्ति हो गई।। पर दो साल पहले मां का भी लंबी बीमारी के बाद से देहांत हो गया तब से वह अकेली ही रहती है। हंसी मजाक और मौज मस्ती को समय को नष्ट करने का साधन के अलावा कुछ नहीं समझती थी।

        एक रविवार ऋषि ने बहुत जिद कर दी कि वह उसके साथ कॉफी पीने चले। पहले तो इला ने बहुत मना किया पर ऋषि मायूस हो गया तो उसने हामी भर दी।

                कॉफी पी कर निकले तो सामने एक खिलौनों के खोमचे वाला था। वहां से ऋषि ने एक बुलबुले बनाने वाला खिलौना खरीद लिया। इला के चेहरे से साफ स्पष्ट हो रहा था कि उसे ऋषि की ये हरकतें बहुत बचकानी लग रही है। पर उसने कुछ नहीं कहा।

ऋषि चलते-चलते और बातें करते-करते बीच-बीच में बुलबुले बनाने लगा। तभी एक बुलबुला जाने कैसे आकर उसकी नाक पर ठहर गया और कुछ देर हिलने के बाद फट गया। अचानक से इला खिलखिला कर हँस पड़ी। ऋषि अपलक उसकी ओर देखता रह गया। कितनी खूबसूरत लग रही थी वह। तभी इला ऋषि को किस प्रकार अपनी ओर देखता पाकर असहज हो गई। ऋषि ने भी झट दृष्टि फेर ली।फिर दोनों ने कैब ली और बातें करते करते घर आ गए।


                 अब कभी कभी ऋषि इला को सोसायटी के क्लब हाउस में कैरम खेलने के लिए जबरदस्ती ले जाने लगा। शुरू शुरू में तो वह मना करती थी पर बाद में वह भी खेलने के लिए और ऋषि से जीतने के लिए बहुत उत्साहित रहने लगी थी। ऋषि को पता ही नहीं चल पाया कि कब वह मन ही मन इला को चाहने लगा है। एक दिन वह इला को उसके घर के दरवाजे तक छोड़ने गया था ।अवसर पाकर उसने झट से कह दिया-” इला बहुत प्रेम करता हूं मैं तुमसे। और तुमसे भी विवाह भी करना चाहता हूं। मुझे कोई जल्दबाजी नहीं है। तुम सोच समझकर कल उत्तर देना।”

      फिर इस भय से कि इला कहीं नाराज ना हो जाए वह उल्टे पांव बिना पीछे मुड़े अपने घर आ गया। पूरी रात आंखों आंखों में ही कट गई। ऋषि उहापोह में था कि इला की प्रतिक्रिया क्या होगी।

              दूसरे दिन जब वे मिले तो इला ने बस एक वाक्य कहा- “मुझे किसी की दया नहीं चाहिए ऋषि।”

ऋषि ने तड़प कर कहा-“इला यह दया नहीं है। मैं सचमुच प्रेम करता हूं तुमसे।”

इला ने उसकी आंखों में देखते हुए कहा-” हो सकता है तुम सच कह रहे हो ऋषि। पर ऐसा भी तो हो सकता है कि बाद में मैं तुम्हें बोझ लगने लगूँ।”

ऋषि ने दृढ़ता से कहा”ऐसा कभी नहीं होगा इला।”

इला ने कहा -” हो सकता है ऐसा कभी ना हो, लेकिन यह भी हो सकता है कि कभी मेरे ही मन में यह आ जाए कि मैं तुम्हारे लिए बोझ हूं और फिर यह जीवन ही मुझे कठिन लगने लगे। एक बात बताओ।क्या हर रिश्ते को बंधन में बांधना आवश्यक होता है? क्या मैं और तुम जीवन भर अच्छे दोस्त बनकर नहीं रह सकते? मैं तो कछुए की तरह अपनी ही खोल में बंद थी। हंसना मुस्कुराना तो जानती भी नहीं थी। तुमसे यही तो जीवन जीना सीखा है ऋषि। तुम्हारी सोहबत में मैं भी हंसना सीख गई हूँ। यदि मैने तुमसे विवाह कर लिया तो कहीं ना कहीं मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुंचेगी ।इस रिश्ते को यूं ही रहने दो…पावन.. निर्मल..बंधनों से मुक्त….. हमेशा के लिए। “

            ऋषि कुछ कहता उससे पहले इला मुड़ कर अपने घर के अंदर जा चुकी थी। ऋषि ने इला का आज एक अलग ही रूप देखा। आत्मविश्वास की प्रतिमूर्ति…सौम्य….गरिमामयी इला।

निभा राजीव “निर्वी”

 

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