दिल्ली के पॉश इलाके में रहने वाली अनामिका शर्मा एक शिक्षित और आधुनिक सोच रखने वाली महिला थीं। बड़ी कंपनी में मैनेजर, पति डॉक्टर, और एक प्यारी सी सात साल की बेटी — आरुषि। सब कुछ व्यवस्थित, लेकिन ज़िंदगी बहुत व्यस्त।
हर साल नवरात्रि आते ही अनामिका अपनी मां की सिखाई परंपरा निभातीं — घर सजता, कलश की स्थापना होती और नवमी के दिन अपार्टमेंट की कुछ गरीब घरों से आने वाली बच्चियों को बुलाकर “कन्या पूजन” होता। आरुषि उस दिन खूब खुश होती — वो भी कन्या थी, उसे भी पूजा जाता, ढेरों चॉकलेट मिलती।
इस बार भी वही हुआ। अनामिका ने बड़ी सजावट की, नौ कन्याएँ बुलाईं, पैर धोए, भोजन कराया। तस्वीरें ली गईं, सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली गई:
“आज नवरात्रि पर कन्याओं का पूजन किया, माँ दुर्गा का आशीर्वाद मिला।”
लेकिन उसी शाम कुछ हुआ जिसने सब बदल दिया।
जब अनामिका कार पार्क कर रही थीं, उन्होंने देखा कि उन्हीं में से एक कन्या — सुजाता, जो पास की झुग्गी में रहती थी — पार्किंग के कोने में उदास बैठी थी। अनामिका पास गईं और पूछा, “क्या हुआ बेटा?”
सुबकते हुए सुजाता ने कहा, “मैडम जी, मेरे स्कूल की फीस नहीं भर पाई माँ, आज मास्टर जी ने डाँटा। आप लोग हर साल हमको बुलाते हैं, पैर भी छूते हैं… क्या हम इतने दिन बस उसी दिन देवी होती हैं?”
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अनामिका निशब्द रह गईं। आँखें भर आईं।
वह केवल रस्म निभा रही थीं, आस्था नहीं, संवेदना के बिना।
उसी दिन रात को, अनामिका ने एक निर्णय लिया। अगली सुबह उन्होंने अपनी सोसायटी ग्रुप में एक मैसेज डाला:
“हम हर साल 9 कन्याओं को पूजते हैं। क्यों न इस बार 9 कन्याओं की पढ़ाई, सुरक्षा और भविष्य की जिम्मेदारी लें? देवी पूजन तब ही सार्थक है जब वो जीवन में बदलाव लाए।”
बात लोगों को छू गई। कुछ ही हफ्तों में एक छोटी-सी “आराधना निधि” बनाई गई, जिसमें सोसायटी के सदस्य आर्थिक रूप से कमजोर बच्चियों की शिक्षा में योगदान देने लगे।
आरुषि, जो पहले सिर्फ पूजा में बैठती थी, अब हर रविवार को उन बच्चियों के साथ मिलकर पढ़ती, खेलती और दोस्ती करती
स्वरचित मौलिक व अप्रकाशित रचना लक्ष्मी कनोडिया खुर्जा