आपको बहु नहीं रोबोट चाहिए – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

सुबह के हल्के कोहरे के बीच कॉलोनी की छतों पर धूप अब तक पूरी तरह नहीं फैली थी।

घर के भीतर घड़ी की सुइयाँ जैसे सारा की धड़कनों के साथ दौड़ रही थीं।

रसोई से उठती चाय की भाप और गीले गैस का धीमा सुलगता स्वर, उस घर की रोज़ की कहानी कहते थे।

सारा ने मोंटू का टिफ़िन तैयार किया, उसका छोटा बैग सलीके से करीने से रखा।

कपड़े सोफे पर रख दिए — नीले रंग की शर्ट और नेवी ब्लू ट्राउज़र, जो उसे बहुत प्यारी लगती थी।

“अभी सो रहा है मोंटू… वरना मैं तैयार कर देती,”

सारा खुद से ही बुदबुदाई और दीवार घड़ी की तरफ देखा —

“ओह! देर हो रही है ऑफिस की।”

बिना ढंग से जूते पहने, बालों को हल्का सा क्लिप से पकड़ा, वो दरवाज़ा खोल कर निकल गई।

पीछे से सास की आवाज़ आई —

“सारा! कपड़े ठीक से पहन लेती, बाल तो सँवार लेती!”

लेकिन सारा को ऑफिस की बस पकड़नी थी। जवाब देना भी अब थकावट जैसा लगने लगा था।


शाम को घर लौटी, तो दरवाज़ा खोलते ही मोंटू दौड़ता हुआ आया —

“मेरी मम्मी आ गई! मेरी मम्मी आ गई!”

सारा की आँखों में जैसे चमक लौट आई।

थकान एक पल में उड़ गई।

उसे गोद में उठाकर, वहीँ से हँसते हुए बाथरूम की ओर बढ़ी —

“आ गई बेटा तेरी मम्मी!”

हाथ-मुँह धोए, कपड़े बदले और बाहर निकली तो मम्मी जी की आवाज़ गूँजी —

“चाय का टाइम हो गया है, जल्दी ड्रेस चेंज कर!”

“आई मम्मी जी!” कहती हुई सारा मोंटू को गोद में उठाकर बाहर आई।


फटाफट रसोई में गई, चाय चढ़ाई, आटा गूंथा, सब्ज़ी काटी।

चाय पीते ही पापा जी टीवी पर न्यूज़ चला कर बैठ गए।

मम्मी जी अपनी बेटी से फोन पर बातों में व्यस्त हो गईं।

सारा ने रसोई की शेल्फ पर गद्दी बिछाई, लकड़ी का पट्टा रखा और मोंटू को वहाँ बिठाकर होमवर्क कराने लगी।

एक हाथ से होमवर्क, दूसरे से सब्ज़ी भूनना —

इसमें भी उसने खेल बना दिया था, ताकि मोंटू को बोझ न लगे।

इतने में बर्तन कर लिए, सब्ज़ी बन गई।

“फुल्के तो सब गर्म-गर्म ही खाएँगे,” ये तो घर का नियम था — चाहे कितनी भी रात हो जाए।

किसी का ध्यान नहीं था कि सारा भी थकी होगी।

थाली परोसते-परोसते झपकी आने लगती, पर किसी ने कभी कहा नहीं —

“ठीक है बहू, आज मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ।”

एक दिन विशाखा आई।

माँ के बुलावे पर कुछ दिन घर रुकने आई थी।

पहले दिन ही उसने सारा की दिनचर्या देख ली —

सवेरे से शाम तक बस काम, काम, और जिम्मेदारी।

शाम को जब सारा मोंटू का होमवर्क कराते-कराते झपकने लगी,

और मम्मी जी रोटियों के लिए आवाज़ देने लगीं, तो विशाखा का सब्र टूट गया।

“भाभी, भैया आपकी हेल्प नहीं करते?”

सारा कुछ कहती उससे पहले ही मम्मी जी बोल पड़ीं —

“अरे छोरा थका हारा ऑफिस से आता है, आते ही इसकी मदद करेगा क्या?”

विशाखा चुप नहीं रही।

सीधे मम्मी जी की ओर मुड़ी और दृढ़ स्वर में बोली —


“मम्मी, आपको बहू नहीं… चलता-फिरता रोबोट चाहिए क्या?”

मम्मी जी चौंक कर पलटीं।

“आप कहती हैं शेखर थका आता है,

तो भाभी क्या फूलों की सेज से आती हैं?

वो भी तो ऑफिस जाती हैं — सुबह मोंटू का टिफ़िन, फिर काम, फिर घर।

कभी थकने का हक़ नहीं है उन्हें?”

कमरे में सन्नाटा था।

“आपने कभी अपने बेटे से कहा कि चल, रोटियाँ सेंक दे?

या पूछा कि आज सारा कैसे महसूस कर रही है?”

अब मम्मी जी के चेहरे पर हल्की शिकन थी।

“मम्मी, मेरी सासु मां को देखिए —

वो हर सुबह मेरा टिफ़िन बनाती हैं,

बच्चों को तैयार करती हैं,

शाम को मेरे लौटते ही गले लगती हैं।

हम दोनों साथ में चाय पीते हैं, सब्ज़ी काटते हैं,

और जब मैं बच्चों को पढ़ाती हूँ,

तो वो चुपचाप रोटियाँ बेल देती हैं।

कभी-कभी कहती हैं, ‘जा बेटी, थोड़ी देर लेट जा।'”

विशाखा की आँखें नम थीं,

“आपने भाभी को बहू माना, बेटी क्यों नहीं?”


शेखर कमरे के बाहर खड़ा था, सारा की आँखों में थकान और विशाखा की आँखों में सवाल देख रहा था।

उसने धीरे से सारा का हाथ पकड़ा —

“सॉरी… मैंने कभी सोचा ही नहीं।”

मम्मी जी आगे आईं।

पहली बार सारा की आँखों में देखा — जैसे पहली बार उसे ‘देखा’ हो।

“बहू, आज रोटियाँ मैं बेलूँगी… तू मोंटू को सुला ले।

और कल से सब्ज़ी हम दोनों मिलकर काटेंगे।”

सारा की आँखों से दो मोती गिरे,

लेकिन वो आँसू दुख के नहीं थे —

सम्मान के थे।

रात को सब खाने की टेबल पर बैठे।

सारा मुस्कुरा रही थी।

विशाखा ने धीरे से सारा की ओर आँख मारी —

“एक कप चाय और दो बूंद समझ… बस यही चाहिए एक अच्छे रिश्ते के लिए।”

दीपा माथुर

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