आज तो तूने मेरी माँ बन कर दिखा दिया बिटिया (भाग 2) – निभा राजीव “निर्वी”

सामाजिक कुरीतियों के समर्थन से अधिक उन्हें अपनी बिटिया की खुशी प्यारी थी। हर्ष के अतिरेक से परिधि की आंखें भर आईं। उसका प्रथम प्रेम राहुल उसके जीवन में जीवन संगी के रूप में पदार्पण करने वाला था। वह तो राहुल के अतिरिक्त कभी किसी और के विषय में सोच ही नहीं पाई थी। आज यूँ लग रहा था, जैसे उसके सारे सपने साकार हो गए। घर में जोर शोर से विवाह की तैयारियां शुरू हो गईं।       

             गीता जी जल्दी-जल्दी भोजन तैयार करने में लगी थी। भोजन बनने के पश्चात उन्हें परिधि को लेकर   उसके लिए आभूषण लेने जाना था। परिधि भी साथ साथ खड़ी उनका हाथ बंटा रही थी। तभी गीता जी के मोबाइल की घंटी घनघना उठी। अखिलेश जी का नाम फ्लैश हो रहा था ।उन्होंने झटपट हाथ धोकर तौलिए से हाथ पोंंछते पोंछते फोन उठाया और हेलो बोला। फोन सुनते ही वह वहीं चक्कर खाकर गिर पड़ी.. फोन उनके हाथों से छूट गया। परिधि ने उनकी हालत देखकर उनको संभाला और दूसरे हाथ से फोन उठाया। उधर से किसी अपरिचित व्यक्ति की आवाज आ रही थी,

जिस ने सूचना दी कि अखिलेश जी और अनिकेत के ऑटो का बस से एक्सीडेंट हो गया और वही घटनास्थल पर ही अखिलेश जी और अनिकेत की मृत्यु हो गई। परिधि के आंखों के समक्ष अंधेरा छा गया पर दूसरे ही क्षण उसने पूरी शक्ति लगाकर खुद को संभाला और माँ को बिस्तर पर लिटाया और आगे की प्रक्रियाएं पूर्ण करने को खुद को मानसिक रूप से तैयार करने लगी।

          अखिलेश जी और अनिकेत के जाने के बाद गीता जी बिल्कुल टूट भी गई थी, जैसे उन्हें जीवन से किसी प्रकार का मोह न रह गया हो। परिधि जब जबरदस्ती उन्हें खाना खिलाती तो वह किसी प्रकार यंत्र चालित सी उसे बस गटक लिया करती थी। घंटों शून्य में निर्मिमेष ताकती रहती थी। उनका स्वास्थ्य भी बहुत खराब रहने लगा था।

             राहुल के माता-पिता अखिलेश जी और अनिकेत के देहांत पर आए तो थे परंतु बातों बातों में इस बात का संकेत सा भी दे दिया कि अब यह विवाह नहीं हो सकता, क्योंकि अब अपनी रुग्णा माता का दायित्व पूरी तरह से परिधि के ऊपर था। वे कतई नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र भी विवाह पश्चात इस बोझ को साझा करे। गीता जी ने हृदय पर पत्थर रख कर करबद्ध हो अवरुद्ध कंठ से कहा “- आप लोग किसी बात की चिंता न  करें, मैं अकेली रह लूंगी। परिधि अब आपकी बहू है और सदैैव आपकी बहू ही बन कर रहेगी। उसे अपने चरणों में स्थान दे दें।…..”


            यह सुनते ही परिधि उद्विग्न होकर उठ कर खड़ी हो गई “-नहीं माँ, तुम माँ हो मेरी और तुम्हारी देखभाल का पूरा दायित्व है मेरा और यही मेरा कर्तव्य भी है। मैं विवाह तभी करूंगी, जब मैं विवाह के पश्चात भी तुम्हारा ध्यान रख सकूं। अन्यथा मुझे भी इस विवाह में कोई रुचि नहीं है।”….

           गीता जी ने परिधि को समझाने की बहुत चेष्टा की परंतु वह अपने निर्णय पर अडिग थी और टस से मस नहीं हुई। राहुल के माता पिता शोक संवेदना प्रकट करने की औपचारिकता पूरी कर वहां से चलते बने। राहुल ने भी अपनी तरफ से उन्हें समझाने की बहुत चेष्टा की, परंतु वे तो अपना निर्णय सुना चुके थे।

             दूसरे दिन राहुल गीता जी और परिधि से मिलने घर आया। परिधि के हाथों पर हाथ रखते हुए राहुल ने भरे गले से कहा “- मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं परिधि और विवाह भी तुमसे ही करूंगा। विवाह के पश्चात मैं भी तुम्हारे साथ मिलकर माँ का ध्यान रखूंगा और मेरा यह निर्णय जिन्हें पसंद ना हो, मैं उनका साथ कभी नहीं दे सकता। मैं सदैव तुम्हारे साथ था, हूं और रहूंगा, चाहे इसके लिए मुझे अपने संकुचित विचारों वाले माता-पिता को भी क्यों न छोड़ना पड़े।”

          परिधि ने डबडबाई आंखों से राहुल का हाथ थाम लिया और दृढ़ स्वर में बोल पड़ी “- नहीं राहुल, यह सर्वथा अनुचित है। जैसे मेरा मेरी मां के प्रति कर्तव्य है, वैसे ही तुम्हारा भी तुम्हारे माता पिता के प्रति कुछ कर्तव्य है। उन्होंने भी बहुत कठिनाई से तुम्हें पाला पोसा होगा। और मेरे लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या होगा कि मैं ऐसी स्त्री कहलाऊं जिसने एक माता पिता को उसके पुत्र से दूर कर दिया। नहीं राहुल, यह कदापि सही नहीं है।

यह आवश्यक नहीं है कि हर प्रणय की परिणति विवाह ही हो। मैं और तुम एक दोस्त की तरह भी तो रह सकते हैं और उस हालत में भी तुम मेरा साथ दे सकते हो। इसलिए आज मैं स्वयं इस विवाह  को ” ना ” कह रही हूं। मेरे मन में कोई दुख अथवा क्षोभ नहीं है और ना ही मुझे तुमसे कोई शिकायत है। तुम मन में किसी प्रकार का बोझ मत रखो, क्योंकि यह मेरा अपना निर्णय है। अब काफी देर हो चुकी है राहुल, प्लीज तुम अपने घर जाओ।”

         राहुल ने उठकर खड़े होते हुए कहा “- मैं जा तो रहा हूं परिधि, पर मैं सदैव तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा और उस दिन की भी प्रतीक्षा करूंगा जिस दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा।” और फिर भावावेश में तीर की तरह वहां से निकल गया।

                 गीता जी परिधि का हाथ थाम कर फूट फूट कर रो पड़ी, “- वैसे तो मैं तेरी माँ हूं , पर आज तो तूने मेरी माँ बन कर दिखा दिया बिटिया। तेरा यह त्याग बहुत बड़ा है। हौसला बनकर लौह स्तंभ सी जो तू मेरे साथ खड़ी है ना,  तो मैं हर कठिनाई हंसते-हंसते झेल जाऊंगी। सदा सुखी रह मेरी लाडो…. पर मैं फिर कहूंगी कि  एक बार अपने निर्णय पर फिर से अवश्य विचार करना।”  

          इस पर परिधि ने मुस्कुराकर लाड से माँ की गोद में अपना सर रख दिया और उनका हाथ पकड़ कर अपने सर पर रख लिया। गीता जी ने भावुक होकर उसका माथा चूम लिया।

#त्याग

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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