आदत  -पुष्पा कुमारी “पुष्प”

“साहब रिक्शा चाहिए क्या?”

श्रीवास्तव जी पत्नी का हाथ थामें टहलते हुए पार्क के गेट से बाहर निकल ही रहें थे कि वहीं खड़े रिक्शाचालक ने उससे पूछ लिया।

“भई रिक्शा तो मैं ले लेता!.लेकिन मुझे चलाना नहीं आता।”

अपनी पत्नी की ओर देखते हुए उस हमउम्र रिक्शा चालक से श्रीवास्तव जी मजाक कर गए। उसकी बात सुन रिक्शा चालक को भी हंसी आई।

“नहीं साहब!.मेरा मतलब था कि आपको कहीं जाना हो तो मैं छोड़ दूंँ।”

“जाना तो है लेकिन वापस छोड़ना यहीं होगा।”

श्रीवास्तव जी की पहेली जैसी बातों को उनकी पत्नी समझ पाती उससे पहले ही सड़क के उस पार पार्किंग एरिया में गाड़ी संग इंतजार करते ड्राइवर को हाथ हिला थोड़ा और इंतजार करने का इशारा कर वह पत्नी का हाथ थामें रिक्शे की पिछली सीट पर जा बैठे।”

“बताइए साहब!.कहां जाना है?”

रिक्शा चालक ने रिक्शा आगे बढ़ा दिया।

“स्टेशन वाले हनुमान जी के दर्शन करवा दो!”

श्रीवास्तव जी के इतना कहते ही रिक्शा थोड़ा आगे बढ़ स्टेशन जाने वाली मुख्य सड़क की ओर मुड़ गया।

पत्नी संग मुश्किल से रिक्शे की सीट में खुद को एडजस्ट करने की कोशिश करते हुए श्रीवास्तव जी ने उस रिक्शा चालक से यूंही बातचीत की शुरुआत कर दी..

“दिन भर में कितना कमा लेते हो इस रिक्शे से?”

“दिन भर में पेट भरने लायक कमाना भी अब मुश्किल होता है साहब!.और अगर किसी दिन रिक्शे की मरम्मत करवानी पड़ी तो भूखे पेट सोने की नौबत आ जाती है।”

अपनी जिंदगी की जद्दोजहद से श्रीवास्तव जी को रूबरू कराते हुए रिक्शा चालक ने गमछे से माथे पर आया पसीना पोंछ लिया।

“लेकिन अब तो ई-रिक्शा खूब चल रहा है!.उसे चलाने में मेहनत भी कम है और कमाई ज्यादा!.वह क्यों नहीं ले लेते?”

“उसकी कीमत भी तो ज्यादा है ना साहब!.पेट काटकर मैंने भी कुछ पैसे जोड़े हैं लेकिन ई-रिक्शा अभी सपना है।”

“तुम्हारे लायक एक काम है हमारे पास!.जिससे तुम्हारे इसी रिक्शे से ई-रिक्शा वाला सपना सच होने में थोड़ी मदद हो जाएगी!..करोगे?”

“करेंगे साहब!.क्यों नहीं करेंगे?”

“तनख्वाह भी मिलेगी!”

“तनख्वाह!”

किराए की जगह तनख्वाह सुनकर रिक्शाचालक को आश्चर्य हुआ।



“हांँ रुपए रोज नहीं मिलेंगे!.और ना ही तनख्वाह में रविवार या छुट्टी के कटेंगे!”

“लेकिन साहब करना क्या होगा?”

“तुम्हें रोज सुबह दस बजे अपने रिक्शे से मुझे मेरे घर से मेरे दफ्तर पहुंचाना होगा।”

पति द्वारा उस रिक्शा चालक को मौखिक नियुक्ति पत्र मिलता देख श्रीवास्तव जी की पत्नी अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाई बीच में ही बोल पड़ी..

“लेकिन ड्राइवर का क्या?”

“मोहतरमा!.उसकी तनख्वाह भी दी जाएगी क्योंकि गाड़ी और ड्राइवर हम आप के हवाले कर रहे हैं।”

“क्यों?” 

“ताकि आप फिर से सुबह-सुबह गोल्फ कोर्स जाना शुरू कर सके और हम दोनों पहले की तरह रिक्शे की सीट में आराम से फिट हो सके।”

पचपन वर्ष की उम्र में भी पूरी तरह चुस्त श्रीवास्तव जी

अपनी पत्नी को भी सेहत के प्रति सजग होने का संकेत दे गए और इधर कई वर्ष पहले पीछे छूट चुके अपने पसंदीदा खेल का नाम सुन उनकी पत्नी के चेहरे पर भी एक ताजी मुस्कान छा गई।

पति-पत्नी के आपसी गुफ्तगू को अल्पविराम मिला देख रिक्शा चालक ने श्रीवास्तव जी के संग अपने अधूरे समझौते पर उनकी पक्की मोहर लगवाना जरूरी समझा..

“साहब!.आप अपना घर दिखा दीजिए और दफ्तर बता दीजिए।”

“यह सामने चौराहे के बगल में जो पहला बंगला देख रहे हो ना!..वही मेरा घर है और यहाँ से रोज मुझे मेरे दफ्तर यानी यहां के हाईकोर्ट पहुंचाना है।”

श्रीवास्तव जी ने स्टेशन से पहले मोड़़ वाले चौराहे के बगल में लाइन से खड़े बंगलों में से एक बंगले की ओर इशारा किया।

बंगले को एक नजर गौर से देख रिक्शा चालक ने चौराहे से रिक्शा स्टेशन वाले हनुमान मंदिर की ओर मोड़ लिया।

“हाईकोर्ट में आप क्या करते हैं साहब?”

श्रीवास्तव जी की जमीन से जुड़ी सादगी देख रिक्शा चालक जिज्ञासावश उनसे पूछ बैठा।

“बस!.वकीलों और गवाहों को सुनता रहता हूंँ!”

“समझ गया साहब!”

“क्या समझे?” श्रीवास्तव जी को हैरानी हुई।

“मेहनत के बदले तनख्वाह का फैसला करने के बावजूद आपने किसी के साथ अन्याय नहीं होने दिया,.जरूर आप जज होंगे!.है ना साहब?”

रिक्शा चालक ने पीछे मुड़कर श्रीवास्तव जी की ओर देखा। श्रीवास्तव जी कुछ बोले नहीं बस हल्का सा मुस्कुरा दिए किंतु जज साहब की ओर देख पत्नी बोल पड़ी..

“अदालत से बाहर भी आप अपनी आदत से बाज नहीं आते!”

पुष्पा कुमारी “पुष्प”

 पुणे (महाराष्ट्र)

 

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