दूर के ढ़ोल सुहावने – विभा गुप्ता  : Moral Stories in Hindi

  ” चल भाग यहाँ से…।” डाँटते हुए रुक्मिणी जी अपनी चार वर्षीय पोती वंशिका के हाथ से खिलौना छीनकर अपने पोते मनु को देते हुए बोलीं,” ले खेल मेरे लाल…अपनी दादी के बाल-गोपाल..।वंशिका रोने लगी।तभी उसकी अंजू बुआ आ गई और उसके हाथ में चाॅकलेट देकर उसे पुचकारती हुई बोली,” कल मैं अपनी लाडो के लिए ढ़ेर सारे खिलौने लाऊँगी..।” वंशिका खुश होकर चली गई, तब अंजू रुक्मिणी जी से बोली,” आप भी हद करती हैं माँ..बड़ी भाभी को कोसने से आपका जी नहीं भरता जो अब इस नन्हीं-सी बच्ची को दुत्कार रहीं हैं..।”

    ” तो क्या अब तू मुझे सिखाएगी कि किसे प्यार करना है और किसे नहीं…अपनी छोटी भाभी को देख..कैसा चाँद-सा मुखड़ा है।वो तेरी मुँहजली भाभी तो मेरे परिवार पर एक ग्रहण है..।”

    ” बस माँ..दूर के ढ़ोल तो सुहावने ही लगते हैं।लेकिन याद रखिये..वक्त आने पर बड़ी भाभी ही आपके साथ रहेंगीं… छोटी भाभी तो आपसे कन्नी काट लेंगी..।” हमेशा की तरह रुक्मिणी जी उसकी बातों को अनसुना करके छोटी बहू के कमरे में चली गईं।

      रुक्मिणी जी के पति मनोहर बाबू एक सरकारी मुलाज़िम थे।अशोक, आशीष और अंजू, तीन संतानें थीं उनकी।अंजू का ग्रेजुएशन पूरा होते ही उन्होंने अपने शहर में ही एक खाते-पीते परिवार के बैंककर्मी निशांत के साथ उसकी शादी कर दी।उसके छह माह बाद अशोक जो कि एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था, के विवाह के लिए लड़की देखने लगी।तब अशोक ने उन्हें दीपा से मिलवाते हुए कहा कि यही उसकी पसंद है।

       दीपा देखने में सुंदर थी और पढ़ी-लिखी भी।उसके पिता का अपना प्रोविज़नल स्टोर था जिससे अच्छी आमदनी हो जाती थी।रुक्मिणी जी और मनोहर बाबू को दीपा और उसका परिवार पसंद आ गया।अपने पंडित से एक अच्छी तारीख पूछकर उन्होंने अशोक की सगाई उसके साथ कर दी।इधर दोनों परिवार विवाह की तैयारियों में जुटे थे, उधर नियति कुछ और ही खेल रच रही थी। 

        दीपा के मुहल्ले में सुधीर नाम का एक सनकी लड़का था जो उस पर नज़र रखे हुए था।दीपा के विवाह की खबर सुनकर वो बौखला गया और एक दिन मौका देखकर उसने दीपा के चेहरे पर तेज़ाब फेंक दिया। वो दर्द से चीख पड़ी।क्षण भर में उसकी दुनिया अंधेरी हो गई थी।वहाँ पर खड़े लोग उसके चेहरे पर ठंडा पानी डालने लगे।उसके माता-पिता दौड़े आए और बेटी को लेकर अस्पताल पहुँचे।

      सनकी सुधीर को पुलिस ने धर दबोचा, उसे दस साल की सज़ा और आर्थिक दंड दिया गया।इधर दीपा का अस्पताल में लंबा इलाज चला।अशोक हर पल उसके साथ था।वो उसे हर पल धैर्य बँधाता और कहता कि सब ठीक हो जाएगा..मैं हूँ ना तुम्हारे साथ।रुक्मणी जी को जब दीपा के साथ हुई दुर्घटना का पता चला तो उन्होंने अशोक को वहाँ जाने के लिए मना किया और बोलीं कि तेरी शादी अब उसके साथ नहीं हो सकती।उनके पति और बेटी की भी यही राय थी।दीपा ने भी अशोक से कहा कि अपने घरवालों की पसंद से शादी कर लीजिए लेकिन उसने साफ़ इंकार कर दिया।उसने सबको यही तर्क दिया कि ये हादसा विवाह के बाद होता तो क्या तब भी आप यही कहते…।इस बात पर सभी निरुत्तर हो गए और रुक्मिणी जी को बेटे के आगे झुकना ही पड़ा।

     सादे ढ़ंग से अशोक का विवाह दीपा के साथ हो गया।दीपा के गाल और गरदन पर अभी भी जलने के निशान थे।इलाज़ में रुपया खर्च हो जाने के कारण उसके पिता दहेज़ भी नहीं दे पाए थे।इन्हीं बातों को लेकर रुक्मिणी जी घर आये मेहमानों के सामने दीपा पर अपने शब्द-बाण चलाकर उसे तिरस्कृत करने का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देती थीं।उसके ससुर बोलते तो कुछ नहीं लेकिन व्यवहार से अपनी नापसंदी जता ही देते थे।अंजू भी जब मायके आती तो अपनी माँ का ही साथ देती।

       एक दिन अंजू के दाहिने पैर में मोच आ गई।उसके पति शहर से बाहर गये हुए थे और सास अपनी बेटी के पास गई हुईं थीं।तब दीपा ने दोनों घर को संभाला।वो सुबह उठकर घर का काम करती, रसोई बनाती और पति को लंच देकर अंजू के घर चली जाती।अंजू की कामवाली किचन देखती और दीपा उसकी बेटी और उसे संभालती।उन तीन दिनों में अंजू ने अपनी भाभी को करीब से जाना, उसके निश्छल प्यार को पहचाना तो भाभी के प्रति मन के सारे कलुष मिट गए।दीपा ने अच्छे स्वभाव और अपनी सेवा-भावना से ससुर का भी दिल जीत लिया था लेकिन सास…।

       आशीष को एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई तो वो मुंबई चला गया।कुछ महीनों बाद रुक्मिणी जी ने धनाड्य परिवार की लड़की मोना के साथ उसका विवाह कर दिया।अब मोना जब भी ससुराल आती तो उसके सामने रुक्मिणी जी दीपा के कामों में कमियाँ निकालतीं.. उसके चेहरे का मज़ाक बनाती और दहेज़ न लाने का उलाहना देतीं।

      समय के साथ दीपा एक बेटी की माँ बन गई,  मोना ने भी एक बेटे को जनम दिया।बड़ी बहू को ताने मारने का रुक्मिणी जी को एक और मौका मिल गया।अब वो दीपा को कहती,” एक तो कंगाल आई, ऊपर से बेटी जनी।” कभी- कभी तो वो ये भी कह देतीं कि तेरी माँ ने बेटी पैदा की, इसलिए तुझे भी बेटी ही पैदा हुई..मनहूसियत तेरे खानदान की रीत है..।” मनोहर बाबू दबी ज़बान से पत्नी को समझाते कि आखिर कब तक बड़ी बहू को जली-कटी सुनाती रहोगी..अब वो एक बेटी की माँ है..इतना तो लिहाज़ करो।लेकिन रुक्मिणी जी का व्यवहार ज्यों का त्यों ही रहा। दीपा बस अपने आँसू पीकर रह जाती।कभी-कभी वो अशोक से कहती कि आपके साथ विवाह करना इतना बड़ा गुनाह था कि माँजी मुझे…आखिर ये#तिरस्कार कब तक मुझे सहना पड़ेगा..? तब अशोक अपने दोनों हाथ उसके कंधे पर रखकर उसकी आँखों में झाँकते हुए कहते,” तुम कहो तो मैं अलग घर देख लूँ…।” तब वो कहती,” नहीं-नहीं ..बाबूजी और माँजी को अकेले कैसे छोड़ देंगे..उन्हें हमारी ज़रूरत है।” सुनकर अशोक मुस्कुरा देता।

      आशीष और मोना आये हुए थे।वंशिका लकड़ी के घोड़े के साथ खेल रही थी।वहीं बैठा मनु उसे लेने की ज़िद करने लगा तो रुक्मिणी जी वंशिका से घोड़ा छीनकर मनु को देने लगी तभी अंजू आ गई और हमेशा की तरह अपनी माँ को समझाने लगी।माँ पर कोई असर न होते देख अंजू दीपा के पास आ गई और बोली,” भाभी…आप भईया के साथ यहाँ से क्यों नहीं चली जाती.. क्यों अपना अपमान कराती रहतीं हैं।” 

     ” आप लोगों का प्यार है ना..।” अपना दर्द छुपाकर दीपा मुस्कुरा देती।

    समय अपनी गति से बीत रहा था।वंशिका स्कूल जाने लगी थी।मनोहर बाबू के गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए  अशोक उन्हें आराम करने को कहता।दीपा के प्रति रुक्मिणी जी के व्यवहार में ज़रा-सा भी बदलाव नहीं आया।मोना आ जाती तब तो वो उसके सामने दीपा को और भी ज़्यादा कोसने लगतीं।

      रविवार का दिन था, अशोक पास के बाज़ार से सब्ज़ियाँ लेकर लौट रहा था कि तेज आती कार उसे कुचलती हुई निकल गई।सब्ज़ियाँ सड़क पर बिखर गई और वो खून से लथपथ तड़पने लगा।एक भला मानस उसे अस्पताल लेकर गया लेकिन तब तक…।दीपा की दुनिया उजड़ गई..घर में हाहाकार मच गया।बेटे का दुख मनोहर बाबू सह न सके और कुछ दिनों बाद उन्होंने भी दुनिया को अलविदा कह दिया।

       दीपा तो पहले से ही रुक्मिणी जी की आँख में चुभ रही थी और अब अचानक आई विपत्तियों का ज़िम्मेदार भी उसे मानकर वो उसे हर वक्त गालियाँ देती रहतीं जिसे दीपा चुपचाप सुनते हुए घर का काम करती, अपनी बेटी को संभालती और उनकी सेवा में हाज़िर रहती।अंजू जब कभी मायके आती तो भाभी की दशा देखकर उसकी आँखें भर आती।वो माँ को समझाती कि अब तो आपकी उम्र हो रही है..भाभी को अपमानित करना बंद कीजिये..एक-दूसरे का सहारा बनिये..लेकिन रुक्मिणी जी तो बस…।

         कहते हैं, इंसान जब क्रोध में होता है, तब उसके अंदर एक अलग ही ताकत आ जाती है।रुक्मिणी जी ने दीपा को मालिश के तेल वाली शीशी लाने को कहा।वो रसोई में आटा गूँथ रही थी।उसने फटाफट अपने हाथ धोये और तेल की शीशी लेकर जाने लगी तभी उसका पैर फिसल गया और वो गिर पड़ी।शीशी तो बच गई लेकिन उससे उठा नहीं जा रहा था।उधर रुक्मिणी जी  ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी,” कहाँ मर गई..।” कराहते हुए दीपा उठी और धीरे-धीरे चलते हुए सास को तेल की शीशी देने लगी तो उन्होंने उसे गुस्से-से धक्का दे दिया।तभी अंजू ने आकर उसे थाम लिया वरना उसका सिर तो फूट ही जाता।

   ” भाभी..आप अपना# तिरस्कार कब तक करवाती रहेंगी।आज अगर मैं न आती तो..।अपना सामान बाँधिए और चलिए..।”

    ” लेकिन माँजी..।”

     ” अब कोई माँजी नहीं…।” अंजू ने जबरदस्ती अपनी भाभी और वंशिका के कपड़े एक बैग में डाले और उसे ले जाने लगी।रुक्मिणी जी तैश में बोली,” ले..जा..मेरी बला टली..।” दीपा ने उनके पैर छूने चाहे तो उन्होंने अपने पैर पीछे कर लिए।

       अंजू की मदद से दीपा को रहने के लिये एक कमरा मिल गया और आँगनबाड़ी में काम भी मिल गया।शुरु-शुरु में उसके साथ काम करने वाले उसका चेहरा देखकर दूर भाग जाते लेकिन फिर उसके मिलनसार स्वभाव और कार्यकुशलता देखकर सभी उसके साथी बनने लगे।पहली तनख्वाह मिलते ही उसने वंशिका के स्कूल की फ़ीस भरी और अंजू से लिए रुपये भी वापस कर दिये।धीरे-धीरे उसने अपनी ज़रूरत के सामान जुटा लिए और उसकी गाड़ी पटरी पर चलने लगी।

       रुक्मिणी जी अब बहुत खुश थीं।रोज अपने छोटे बेटे-बहू से बात करतीं और उन्हें आने के लिये कहतीं।मोना कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देती।कुछ दिनों बाद वो बेटे से बोलीं कि मैं तेरे पास आना चाहती हूँ।आशीष आकर उन्हें अपने साथ ले गया।बेटे-बहू के ठाठ-बाट देखकर वो बहुत खुश थीं।अंजू को फ़ोन करके मोना की खूब तारीफ़ कीं।

      एक दिन मोना की सहेलियाँ आईं हुईं थीं।उसने रुक्मिणी जी को ड्राइंग रूम में आने को मना कर दिया।उन्हें बहुत बुरा लगा।उन्हें घर में अकेला छोड़ कर बेटे-बहू पार्टी में चले जाते।धीरे-धीरे खाना भी उनके कमरे में पहुँचा दिया जाने लगा।घर में रहकर भी बेटे को देखने और उससे बातें करने को वो तरस जातीं।

       एक दिन रुक्मिणी जी के पेट में दर्द होने लगा।बेटे से दवा माँगी तो बहू ने सुना दिया,” जब पचता नहीं तो इतना ठूँसती ही क्यों है।” उस दिन उन्हें अंजू की बात याद आई कि दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं।आज यदि दीपा होती तो दौड़ कर उन्हें दवा देती..उनके पैरों की मालिश करती..।जिसने उनकी सेवा की, उसका तो उन्होंने तिरस्कार किया और जिसे अपनी पलकों पर बिठाया, उसने..।उनकी आँखें भर आईं।

       अगले दिन जी बहलाने के लिए रुक्मिणी जी काॅलोनी के पार्क में गईं।पास में बैठी महिला से बतिया रहीं थीं कि एक पच्चीस-छब्बीस वर्षीय युवती आई और महिला से बोली,” मम्मी जी..आटा गूँथ कर रख दिया है..बटर लेकर आती हूँ तो दाल में तड़का लगा दूँगी।ये रही घर की चाभी..।” महिला के हाथ में चाभी रखकर युवती चली गई तब रुक्मिणी जी उनसे कहने लगीं,” इस लड़की के चेहरे पर तो चेचक के दाग हैं..आपने उसे बहू कैसे..।” महिला बोलीं,” बहन जी..सूरत नहीं सीरत देखना चाहिए।कुछ समय पहले उसे माता(चेचक) निकल आई थी तो क्या अब वो मेरी बहू नहीं रही?मेरी दो बेटियाँ भी हैं।मेरी बहू अपनी ननदों को पूरा सम्मान देती है। मेरा और अपने ससुर का पूरा ख्याल रखती है..।” महिला बोलती जा रही थी और वो दीपा के साथ किये अपने व्यवहार को याद करती जा रहीं थी।

      अपने कमरे में आकर वो खूब रोईं और आशीष को बोलीं कि मेरा टिकट करा दे।उन्होंने सोचा कि शायद मोना उन्हें रोक लेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।भारी मन से वो अपने घर आ गईं।चाह रही थी कि कहीं से दीपा आ जाये और वंशिका ‘दादी’ कहकर उनसे लिपट जाए।

     अगले दिन अंजू अपनी माँ से मिलने आईं तो हाल-चाल पूछते हुए रुक्मिणी जी ने धीरे-से पूछ लिया,” अंजू..तेरी बड़ी भाभी कहाँ है? एक बार मिला दे तो मैं उससे..।” उनका गला भर आया।तभी वंशिका ‘ दादीss’ कहकर उनके गले में अपनी बाँहें डाल दी।उन्होंने नज़र घुमाकर देखा तो दीपा दूर खड़ी थी।उन्होंने इतना ही कहा ,” बहूss..।” और दीपा उनके चरण-स्पर्श के झुकी तो उन्होंने ‘मेरी बहू’ कहकर उसे अपने सीने से लगा लिया।दोनों की आँखों से अश्रुधार बह निकली जिसमें मन के सारे गिले-शिकवे भी बह रहे थें।सास-बहू के अद्भुत मिलन देखकर अंजू की आँखें भी खुशी- सी छलक पड़ी थी।

                                        विभा गुप्ता 

# तिरस्कार कब तक          स्वरचित, बैंगलुरु 

         चेहरे की खूबसूरती एक दिन की होती है और मन की सुंदरता उम्र भर सबके जीवन को खुशहाल बना देती है।दीपा के चेहरे पर दाग था लेकिन उसका मन उजला था।रुक्मिणी जी ने देर से ही लेकिन इस सत्य को स्वीकारा और बड़ी बहू के प्रति अपनी सारी कड़वाहट को निकालकर फेंक दिया।

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