बस करो!!! शुभ्रा ज़ोर से चीखी और उसकी चीख के साथ ही हवेली के आंगन का शोर एकदम थम सा गया। महिलाओं का जो जमघट वहां लगा था उसमें शांति छा गई।यह सारी महिलाएं गांव के ज़मींदार चौधरी रतन सिंह की हवेली में आज उनकी बेटी शुभ्रा के विवाह के लिए इकट्ठा हुई थी।आज मेहंदी की रस्म थी इसलिए गांव की औरतें वहां इकट्ठा थी।गांव की औरतों के साथ-साथ रिश्तेदारी की भी महिलाएं वहां मौजूद थी।
चौधरी रतन सिंह की अपने गांव के साथ-साथ आसपास के गांव में भी बड़ी साख थी।आखिर पुश्तैनी ज़मींदार थे और साथ ही साथ नेक दिल भी रखते थे। अपने कर्मचारियों के साथ उन्होंने कभी कोई बदसलूकी नहीं की थी।उनके दो बेटे और एक बेटी थी दोनों बेटे भी उन्हीं के साथ गांव में ही खेती बाड़ी और ज़मींदारी का काम देखते थे और बेटी शुभ्रा शहर से पढ़ाई कर चुकी थी और वहीं नौकरी भी कर रही थी।
शुभ्रा की शादी शहर के ही एक अच्छे खानदान में चौधरी जी ने तय की थी और आज उसकी मेहंदी के दिन यह हंगामा हो गया था।आखिर क्यों हुआ था यह हंगामा और शुभ्रा की चिल्लाने की ऐसी वजह क्या थी।शुभ्रा जो अपने माता-पिता की लाड़ली थी अपनी मेहंदी के वक्त अपनी बुआ को अपने पास बुलाना चाहती थी लेकिन बार-बार आग्रह करने पर भी उसकी मां और चाची बुआ को बुला नहीं रही थी।
शुभ्रा को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। पिछले कुछ दिनों से वह देख रही थी कि उसकी बुआ उससे कटी कटी रह रही थी।शादी विवाह का कोई भी सामान वह अगर बुआ को दिखाने जाती तो कभी मां उसको बहाने से कहीं और उलझा देती तो कभी चाची और तो और कभी बुआ खुद ही उसका सामान देखने की बात को टाल जाती।आखिर ऐसा क्यों हो रहा था उसकी समझ से परे था।
शुभ्रा अपने पूरे घर के साथ-साथ अपनी बुआ की भी लाड़ली थी।आखिर बचपन से बुआ ने ही तो उसको पाल-पोस कर बड़ा किया था और शहर में भी उसकी पढ़ाई के वक्त जब भी उसे ज़रूरत होती तो वह ही उसके इम्तिहानों में उसके पास आ जाती थी पर आज जब उसने अपनी रिश्तेदारों में से किसी महिला को अपनी बुआ के बारे में बुआ के लिए अपशब्द कहते सुना तो उसे बहुत बुरा लगा।
‘अपशगुनी’ यह शब्द उसके कलेजे को चीर गया था। क्यों इस्तेमाल किया था किसी ने यह शब्द बुआ के लिए।शुभ्रा को ध्यान आया कि सुबह भी जब वह नहा कर निकली थी तो बुआ के सामने पड़ते ही उसकी मामी ने उसे पीछे खींच लिया था और मुंह में बुदबुदाई थी कि शगुन वाले दिनों में इस अपशगुनी से थोड़ा पर्दा ही रख और तब भी उसकी मां और चाची कुछ नहीं बोली थी।क्या बुआ यह सब सहने के लिए बनी थी परंतु बुआ के चेहरे पर भी उसे कोई शिकन नज़र नहीं आई शायद वह सब इन बातों की आदी हो चुकी थी।
शुभ्रा को ध्यान आया कि बचपन से ही उसने बुआ को अपने घर में ऐसे ही देखा था।साधारण सी सूती साड़ी पहनी हुई और हमेशा काम में लीन खोई खोई सी.. कभी किसी से ना ज़्यादा बात करती ना कभी खिलखिला कर हंसती और ना ही कभी तीज त्योहार पर अपने लिए नए कपड़े लेती।छोटी शुभ्रा जब भी कभी बुआ से पूछती तो उनका यही जवाब होता,
” मुझे ऐसे ही रहना अच्छा लगता है शुभी.. तू जा..अपने लिए नए कपड़े ले..देखना फिर तुझे कैसे सुंदर सजाती हूं”। नन्ही शुभ्रा यह समझ ही नहीं पाती कि जो उसे इतना सजा संवार सकती है वह खुद क्यों नहीं संवरती।मां और चाची अपने लिए गहने कपड़े लाती पर बुआ.. वो तो हमेशा ऐसे ही दिखाई देती..साधारण सी।
उसे याद नहीं कि कभी उसने बुआ को अच्छे कपड़ों में देखा हो।इतने बड़े घर की बेटी और ऐसी वेशभूषा। बचपन में तो उसे कुछ समझ नहीं आता था परंतु जैसे-जैसे वह बड़ी हुई उसे पता चला कि बुआ का बहुत छोटी उम्र में ब्याह कर दिया गया था और ब्याह के कुछ ही महीने बाद ही उनके पति की मृत्यु हो गई थी और इन सब में बुआ को उनके ससुराल वालों ने अपशगुनी करार देकर उसके मायके भेज दिया था। उस समय का जो तिरस्कार बुआ ने झेलना शुरू किया वह शायद उनकी किस्मत में ही लिख गया था।
हर बात पर तिरस्कार सहती बुआ न जाने कैसे धीरे-धीरे इतनी मज़बूत हो गई थी कि शायद अब उन्हें किसी तिरस्कार का कोई फर्क ही नहीं पड़ता था।खुद ही अपने आप को उन्होंने अपने एक खोल में समेट लिया था।सारा दिन नौकरों की तरह काम करती..घर में इतने नौकर चाकर होते पर फिर भी बुआ के ऊपर ही सारी ज़िम्मेदारी थी..परंतु..जब कोई शुभ घड़ी आती तो उनका या तो तिरस्कार कर दिया जाता या वह खुद ही अपने आप में सिमट सी जाती ।
शुभ्रा को याद था कि उसने बहुत बार बुआ को अपने कमरे में सिसकते देखा था।जब भी वह कुछ पूछती तो बुआ रोने लग जाती।दादी भी बेटी के गम को देखकर जल्दी ही चल बसी थी।वैसे मां और चाची कभी उनको कुछ भला बुरा नहीं बोलती थी उनके साथ प्यार से रहती परंतु किसी शुभ घड़ी में उन्हें सम्मान से ना बुलाना उनका तिरस्कार ही तो था ना।
आज शुभ्रा इन सब बातों को अच्छी तरह से समझ गई थी और अब वह एक युवा लड़की थी जो अपने पैरों पर खड़ी थी और उसे लगा कि अगर वह कभी अपनी बुआ के लिए खड़ी नहीं होगी तो शायद आने वाला जीवन बुआ के लिए और भी खराब होता जाएगा। इन्हीं सोच विचारों में डूबी शुभ्रा का जब मां ने हाथ थामा तो अतीत से बाहर आकर शुभ्रा ने उनका हाथ झटक दिया और बोली ,”मां, बुआ अपशकुनी कैसे हो सकती है बताओ ना कैसे… जब तुम बीमार होती हो तो वह दिन रात तुम्हारी सेवा करती है
क्या उस समय वह अपशकुनी नहीं होती।मेरे बचपन से लेकर आज तक बुआ ने हर इम्तिहान के समय पूरी पूरी रात मेरे साथ जाग कर काटी है तो क्या उस समय वह अपशगुनी नहीं थी। तुम्हें याद होगा जब छोटे भैया का एक्सीडेंट हुआ था तो बुआ ने ही अपना खून दिया था और तब इसी अपशगुनी के खून से ही तुम्हारे बेटे की जान बच पाई थी।क्यों चाची..मैं ठीक कह रही हूं ना”, शुभ्रा ने चाची की तरफ भी देखते हुए कहा,” क्यों तिरस्कार करती हो तुम अपनी ही घर की बेटी का।ठीक है, तुम उसे बुरा भला नहीं कहती लेकिन जिस मान सम्मान की वह हकदार है वह भी तो उसे नहीं मिलता।क्यों उसे हंसने खेलने का हक नहीं है..क्यों वह अच्छे कपड़े नहीं पहन सकती..
क्यों आज मेरी मेहंदी में मेरे साथ नहीं बैठ सकती..क्या इसलिए क्योंकि शादी के कुछ महीनों बाद उनके पति उन्हें छोड़कर चले गए थे तो क्या इसमें उनका ही कसूर है।अरे, ज़माना कहां से कहां पहुंच गया है और आप कौन सी दकियानूसी बाते लेकर बैठे हो”, शुभ्रा उठी और चारों तरफ सन्नाटा छा गया।
शुभ्रा की बातों का कोई तोड़ नहीं था किसी के पास। वह अंदर जाकर सुबकती हुई बुआ को खींचकर आंगन में ले आई और बोली,” बस बुआ, तुम क्यों तिरस्कार सहती आई हो…इस घर की बेटी हो अपने हक के लिए लड़ना सीखो।अगर ऐसे ही रहती रहोगी तो आने वाली पीढ़ी भी तुम्हारा तिरस्कार ही करेगी।तुम्हारा पूरा हक है कि तुम मान सम्मान से जियो…अपने लिए खुशियां बटोरो।आधी ज़िंदगी तो तुमने निकाल दी है पर जो ज़िंदगी बची है उसे तो खुशहाल करो।क्या तुम नहीं चाहती कि तुम्हारी भतीजी तुम्हारे आशीर्वाद के साथ नए जीवन में कदम रखे।”
आज एक युवा लड़की ने सब की आंखें खोल दी थी गांव की औरतें जो कुछ देर पहले हाथ नचा नचाकर बातें कर रही थी अब सर झुकाए शर्मिंदा खड़ी थी। रिश्तेदारों के पास भी कोई बोल नहीं बचे थे।शुभ्रा की मां ने आकर शुभ्रा के सिर पर हाथ फेरा और हाथ जोड़कर बुआ के सामने खड़ी हो गई दीदी ,ठीक कहती है तुम्हारी यह शुभी, तुम अपशगुनी नहीं हो.. तुम इस घर की बेटी हो..बड़ी बेटी और जिस तरह से तुमने बाकी सारी ज़िम्मेदारियां निभाई हैं इस ब्याह की ज़िम्मेदारी भी मैं तुम्हें सौंपती हूं और हो सके तो अपनी छोटी बहन समझ कर मुझे माफ कर देना”
शुभ्रा की बुआ रोती-रोती अपनी दोनों भाभियों के गले लग गई।कुछ ही देर में सन्नाटा शोर में बदल गया था। औरतों में चुहल बाजी शुरू फिर हो चुकी थी।शुभ्रा की सभी सहेलियों मेहंदी लगवा कर बहुत खुश हो रही थी और शुभ्रा की बुआ अब अच्छे कपड़ों में एक तरफ बैठी सबको खुशी खुशी देख रही थी और नौकरों को हिदायतें देकर उनसे काम भी करवा रही थी।आज इस घर की दोनों बेटियां अपने नए जीवन की शुरुआत कर रही थी.. दोनों ने एक दूसरे को देखा और मुस्करा उठी।
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#अप्रकाशित
#तिरस्कार
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।