हरिदेव प्रसाद एक छोटे से गाँव के निवासी थे। उम्र साठ पार हो चुकी थी, चेहरे पर झुर्रियाँ थीं लेकिन आँखों में एक चमक थी – अपने बच्चों को बड़ा आदमी बनाने की उम्मीद की चमक। उन्होंने ज़िंदगी भर स्कूल में चपरासी की नौकरी की, सुबह सबसे पहले स्कूल का गेट खोलते और बच्चों का झोला उठाकर क्लास तक छोड़ते। उनका सपना था कि उनके बेटे एक दिन अफ़सर बनें, और दुनिया उन्हें “चपरासी का बेटा अफ़सर है” कहे।
हरिदेव के दो बेटे थे – सुरेश और दीपक। दोनों पढ़ने में अच्छे थे। हरिदेव ने खेत गिरवी रखकर, मां की पुरानी साड़ियाँ बेचकर, यहाँ तक कि अपने पिता का पुराना मकान तक बेच दिया, लेकिन बेटों की पढ़ाई में कोई कमी नहीं आने दी। दिन में स्कूल की नौकरी और रात में खेत में काम करके उन्होंने बेटों को शहर भेजा।
समय गुज़रा। सुरेश ने MBA किया और एक बड़ी कंपनी में नौकरी पा ली। दीपक ने इंजीनियरिंग करके अमेरिका में जॉब पकड़ ली। दोनों की ज़िंदगी चमक गई – बड़ी गाड़ियाँ, एसी दफ्तर, आलीशान फ्लैट, महंगे कपड़े और शहर की ऊँची सोसाइटी।
शुरू-शुरू में हरिदेव को बेटे हर महीने फोन करते, त्योहारों पर पैसे भेजते। लेकिन फिर कॉल्स कम हो गए। पैसे भेजे जाते थे, लेकिन अब बातों में पहले जैसी गर्मी नहीं थी। एक बार हरिदेव ने सोचा कि वो दिवाली पर सुरेश के पास शहर जाकर त्योहार मनाएँगे। उन्होंने अपने पुराने बैग में दो जोड़ी धोती-कुर्ता रखा और शहर पहुँच गए।
जब दरवाज़ा खटखटाया, तो बहू रिचा ने दरवाज़ा खोला। उसे देखकर ऐसा लगा मानो किसी अनचाहे मेहमान ने आकर घर का माहौल खराब कर दिया हो।
“बाबूजी? आप बिना बताए आ गए?”
हरिदेव मुस्कराए – “बेटा सोचा, इस बार दिवाली तुम्हारे साथ मनाऊँ।”
रिचा थोड़ा असहज हुई – “रवि (सुरेश) ऑफिस गए हैं। और मुझे अभी मार्केट जाना है। अगर आप बुरा न मानें तो एक होटल में रुक जाइए, हम शाम को मिलते हैं।”
हरिदेव की मुस्कान वहीं थम गई। उन्होंने धीरे से कहा – “ठीक है बेटा, जैसा ठीक समझो।”
बैग उठाया और चुपचाप लौट गए।
गाँव लौटकर वो बहुत चुप हो गए थे। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। दीपक को जब बुलाया गया तो उसने कहा – “पापा को दिल्ली भेज दो, यहाँ अमेरिका में लाना मुश्किल है। वैसे भी काम से छुट्टी नहीं मिल रही।”
हरिदेव अब समझ चुके थे – बेटे बड़े हो गए हैं, और अब उनके लिए बाबूजी की ज़रूरत नहीं रही।
एक ठंडी सुबह, जब गाँव में कोहरा फैला था, हरिदेव ने चुपचाप अपनी आँखें हमेशा के लिए बंद कर लीं। किसी बेटे ने कंधा नहीं दिया। गाँव के लोग, जो उन्हें “हरिदेव भैया” कहकर सम्मान देते थे, उन्होंने मिलकर उनका अंतिम संस्कार किया।
कुछ महीने बीते। एक दिन गाँव में बड़ी हलचल हुई – गाड़ियों का काफिला आया। सुरेश, दीपक और उनकी पत्नियाँ आए थे – बड़ी-बड़ी कारों में, महंगे कपड़ों में। उनके साथ वकील, मीडिया वाले और कुछ अजनबी लोग भी थे।
दरअसल, सरकार ने गाँव के पास की ज़मीन अधिग्रहित की थी – विकास प्रोजेक्ट के लिए। मुआवज़ा करोड़ों में था। ज़मीन हरिदेव प्रसाद के नाम थी।
अब सुरेश और दीपक गाँव के हर व्यक्ति से कह रहे थे –
“हमारे बाबूजी बहुत नेक इंसान थे। हर साल हम मिलने आते थे। वो हमसे दूर थोड़े ही थे!”
गाँव के एक बुज़ुर्ग खड़े हुए, और भीड़ में साफ़-साफ़ बोले –
“जब वो ज़िंदा थे, तब तो कोई नहीं आया। फोन भी नहीं किया, अब जब उनकी ज़मीन करोड़ों की हो गई, तो सबको बाबूजी की इज़्ज़त याद आ गई?”
वहाँ एक सन्नाटा छा गया। कैमरों के सामने इमोशनल ड्रामा चलता रहा, लेकिन गाँव वालों की आँखों में सिर्फ़ एक बात थी –
ये लोग अपने बाप को नहीं चाहते थे, बस उसकी ज़मीन को चाहते हैं।
वो आदमी जो पूरी ज़िंदगी ईमानदारी से जिया, जिसने अपने बेटे की सफलता के लिए सब कुछ कुर्बान किया, वो मरते समय अकेला था। उसका अंतिम संस्कार उसकी मेहनत ने नहीं, गाँव के प्यार ने किया।
बेटों ने लाखों की गाड़ियाँ खरीदीं, लेकिन बाबूजी के लिए कंधा नसीब नहीं कर सके।
और तब सबने जाना –
दुनिया में बहुत बार इज़्ज़त इंसान की नहीं, उसके पास मौजूद पैसों की होती है।
जब तक पैसा है, तब तक पूछ है। इंसान की भावनाएँ, उसका त्याग – सब कुछ पीछे छूट जाता है।
लेकिन एक बात तय है –
जिसने माँ-बाप की इज़्ज़त नहीं की, वो लाखों कमा ले, पर असली इंसान कभी नहीं बन सकता।
प्रीती श्रीवास्तवा