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इज्जत इंसान की नहीं पैसे की होती है।बचपन में संयुक्त परिवार में चाचाजी, ताऊजी हम सब एक ही घर में अलग अलग रहते थे। त्योहारों पर शहर में रहने वाली बड़ी बूआजी तो कार में जब अपने अफसर पति ,बेटे के साथ आती थी तो पूरा घर उनकी आवभगत में लग जाता था। हम बच्चों के लिए वह बहुत से खिलौने भी लाती थी,हम सब उनकी इंतजार करते थे।
उनके अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले बेटे के साथ खेलते हुए हमें भी गर्व महसूस करते थे । आपकी जानकारी के लिए बता दूं हम सब दिल्ली में ही रहते थे परंतु दिल्ली में ही पौश और ग्रामीण इलाके का फर्क था । हमारी छोटी बुआ जी जिनके कि तीन छोटे बच्चे थे। राखी ,भाई दूज या कोई भी त्यौहार से पहले चाचा जी या पापा उन्हें लेकर आते थे और उन्हें वापस उनके घर छुड़वाना भी पड़ता था।
बुआ जी और फूफा जी का भी संयुक्त परिवार था जिन में खेती, भैंसों का दूध बेचना उनका मुख्य कार्य था। फूफा जी के और भाई कहीं ना कहीं नौकरी करते थे परंतु फूफा जी का कोई कार्य नहीं था इसलिए उन्हें ही अपनी माताजी और भाभियों के साथ खेती और दूध का सारा काम देखना होता था।
उस पर भी छोटी बुआ जी की सासू जी ने जब उन्हें अलग किया तो दो भैंस उनके हिस्से में आई। खाने पीने का कुछ अनाज तो घर की खेती से मिल जाता था और उन दो भैंसों का दूध बेचने की कमाई से ही उनका पूरा परिवार चलाना होता था। उनके घर आने पर ताई, चाची मां सब सहानुभूति रखते हुए बुआ जी के लिए कुछ सामान उनको देने के लिए निकालते थे
और उनके बच्चों से हम भी खिलौने अक्सर छुपाया ही करते थे। सबको बुआ जी के बच्चे शैतान भी लगते थे और बड़ी बुआ जी के आवभगत की तैयारी छोटी बूआ भी मां और चाची के साथ करवाया करती थी।
समय ने करवट बदली, दिल्ली में खेती की जमीन एक्वायर हुई, बहुत से पैसे फूफा जी को भी मिले और उन्होंने अपने पैसों से कुछ जमीन और खरीदी। क्योंकि वही घर में खाली बैठे होते थे तो और सब की जमीन भी उन्होंने बिकवानी और नई जगह खरीदनी शुरू करी। ऐसे ही समय के साथ वह बहुत बड़े प्रॉपर्टी डीलर में ही तब्दील हो गए।
उन्होंने गांव से बाहर अपना एक घर भी खरीद लिया इसके अतिरिक्त कुछ नट बोल्ट बनाने वाली छोटी सी फैक्ट्री भी डाल दी थी। अब उन्होंने भी गाड़ी खरीद ली थी। और अपने छोटे बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डाल दिया था।
बड़े बेटे को भी चौथी करने के बाद पांचवी से ही अंग्रेजी स्कूल में डाल दिया गया। अंग्रेजी के ट्यूटर लगाए। अब वह जब भी घर आती हमेशा सोने के नए सेट पहन कर आती। वह भी त्यौहार वाले दिन गाड़ी और ड्राइवर लेकर आती थी।
हमने स्वयं देखा कि अब हमारी बड़ी बुआ जी जब भी अपनी पुरानी गाड़ी में आती तो चाचा हमेशा छोटी बुआ की नई गाड़ी को गैरेज में खड़ी करने को बोलते थे। अब सबके आकर्षण का केंद्र हमारी छोटी हुआ होती उनका नया सेट, हमारे चाचा, ताऊ जी और पापा हमेशा यही जानने की कोशिश में रहते थे कि फूफा जी ने अब कहां पर क्या खरीदा और क्या बेचा?
चाचा जी को बुआ जी हमेशा अपने बैंक में डालने के लिए पैसों की एक गड्डी देती थी क्योंकि उनको बैंक के काम करने नहीं आते थे और चाचा जी ही बूआ जी के अकाउंट में उनके जोड़े हुए पैसे जमा करवाया करते थे। अब जाते हुए वह हम बच्चों को भी वह ₹100 देकर जाती थी। अब छोटी बुआ जी ज्यादा दिन रहने को नहीं आती थी परंतु अगर कभी रहने को आए और मां और चाची के साथ बाजार जाती थी
तो हम जो चीज कहते थे छोटी बुआ जी वही दिलवाती थी । हम बच्चे भी अब छोटी बुआ जी की इंतजार करते थे। समय के साथ हमें भी यह समझ आ गया था की इज्जत इंसान की नहीं उसके पैसे की होती है आपका क्या ख्याल है कमेंट्स द्वारा बतलाइए ना?
मधु वशिष्ठ, फरीदाबाद, हरियाणा।
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