प्रायश्चित – डॉ. दीक्षा चौबे : Moral Stories in Hindi

आज मानस भैया रिद्धिमा की शादी का आमंत्रण पत्र लेकर आये थे । रिद्धिमा …मेरे बड़े भैया महेशकान्त
शर्मा की बेटी  है । बड़े भैया स्वयं आने की हिम्मत नहीं
कर पाये थे ….इसलिए शायद छोटे भैया यहाँ थे । शोभा
की मनःस्थिति विचलित सी हो गई थी । यंत्रचालित
मशीन की तरह भैया को चाय – नाश्ता देकर सामान्य
व्यवहार निभाती रही ..पर मन किसी चुलबुले बच्चे की
तरह अतीत  के झरोखों में झाँकने की चेष्टा करता रहा ।
उसकी स्थिति भुरभुरी मिट्टी के मेंड़ से बंधे उस खेत की
तरह हो रही थी जिसमें पानी भरा हो ….मिट्टी का कण-
कण जल अवशोषित कर ढीला होता जा रहा था..न जाने कब खेत का पानी मेंड़ को भी अपने साथ बहा ले
जाये । अतीत की यादों का प्रबल वेग उसके वर्तमान
को उड़ा ले जाने को बेकरार था पर मानस भैया और
घर के अन्य सदस्यों की उपस्थिति उसे वर्तमान में रोके
हुए थी ।
      सबके इधर – उधर हो जाने के बाद  निमंत्रण पत्र देखने बैठी तो लगा जैसे किसी जादूगर का जादुई
शीशा देख रही हो…अक्षर धुंधले पड़ने लगे और उसे
अपना घर , माँ , पिताजी , भाइयों का लाड़ भरा आँगन
दिखने लगा  । पूरे घर में चहकने वाली चंचल , अल्हड़
शोभा दिखने लगी जो तरह – तरह के सपने देखा  करती
थी …आसमान में उड़ने  , भौरों की तरह गुनगुनाने , मानस भैया  की तरह खूब पढ़ – लिख कर कुछ बनने
के सपने…..लगभग  बीस  वर्ष पहले की बात है…तब
लड़कियों की शिक्षा उतनी जरूरी नहीं मानी जाती थी
..बन्दिशों भरी दिनचर्या होती थी …फिर भी पिता का स्नेह उम्मीद बंधाता था कि उसे अवसर जरूर मिलेगा…
आगे बढ़ने , अपनी ख्वाहिशें पूरी करने का , अपने सपनों में रंग भरने का । महेश भैया को पढ़ाई  में विशेष
रुचि नहीं थी इसलिए वे जल्दी ही पिताजी का व्यवसाय
सम्भालने लगे । मानस भैया शहर में  इंजीनियरिंग की
की पढ़ाई कर  रहे थे । उनके द्वारा शहर की लड़कियों
की समझदारी व आगे पढ़ने की जानकारी शोभा के मन
में भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने की हसरत जगाने लगी ।
        जब वह बारहवीं में थी , बीमारी की वजह से
पिताजी का देहांत हो गया । भैया पर पूरे घर की जिम्मेदारी  आ गई । वह दिन उसकी जिंदगी का सबसे
मनहूस दिन था जब उसकी प्रायोगिक परीक्षा थी , परीक्षा खत्म होने की खुशी में  उन्होंने खूब मस्ती , हुड़दंग किया । पता नहीं कहाँ से भैया ने उसे मनीष
के साथ हँस – हँस कर  बातें  करते हुए देख लिया …फिर तो उन्होंने हंगामा खड़ा  कर दिया और
उसकी आगे की पढ़ाई बन्द करने  का ऐलान कर दिया..
शोभा की तो मानो जिंदगी  ही रुक गई….उसके जीने का उद्देश्य ही न रहा ….उसके सपनों का महल बनने
के पहले ही बिखर गया था …एक खूबसूरत फूल खिलकर अपनी खुशबू बिखेरता , उसके पहले ही उस
पौधे की जड़ें  खींच दी गई थी  । एक छोटी सी उम्मीद
बाकी थी कि बारहवीं  का  परीक्षाफल  देख कर  कहीं
भैया पिघल  जायें  ; सचमुच उसने बहुत अच्छे अंक पाये थे पर वह भैया के अडिग निर्णय को बदलने में
सफल नहीं हुए । भाभी और  मानस भैया चाहकर भी
भैया को नहीं मना पाये ।
      भैया उम्र में शोभा से बहुत  बड़े थे इसलिए वह
भी कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई लेकिन उसने
भैया से बात करना बंद कर दिया ; वैसे उसे यह एहसास
था कि भैया की उससे कोई दुश्मनी नहीं है …यह निर्णय
तो उस समय के पुरूष समाज का एक  स्त्री  के प्रति
नजरिये की परिणति थी । कई बार उसने अपने आपको
खत्म कर देने के बारे में सोचा किन्तु दिमाग ऐसी  कायराना हरकत करने के लिए तैयार नहीं हुआ । हाँ ,
यह इच्छाशक्ति जरूर बलवती होती गई कि  शिक्षा की
जो मशाल अपने लिए  न जला पाई , कभी अवसर मिला तो दूसरों के लिए अवश्य जलायेगी । सूरज न
सही , एक दिया बनकर कुछ अंधेरा तो मिटाया ही जा
सकता है ।
        भैया  ने अपनी अन्य जिम्मेदारियाँ  अच्छी तरह
निभाई थी । शोभा का विवाह एक सभ्य , सुसंस्कृत
परिवार में रमेश के साथ धूमधाम से हुआ । समय के
साथ वह अपनी पारिवारिक  जिम्मेदारियों में बंधती
चली गई । शिक्षा के प्रति  उसका लगाव रमेश की
निगाहों से छुप नहीं सका  था  । उदारमना रमेश ने
शोभा को उसकी पढ़ाई पूरी करने की प्रेरणा दी । बच्चों
के लालन -पालन में उसका सहयोग कर पढ़ने का
अवसर प्रदान  किया । दोनों बच्चों की परवरिश  के
साथ – साथ  शोभा पढ़ाई भी करती रही । समय के जैसे
पर लग गये  ….भैया की दोनों लड़कियाँ बड़ी हो गई …भैया ने उन्हें पढ़ाया , बड़ी बेटी रिद्धिमा  ने तो दो वर्ष  शोभा के पास रहकर  ही  उच्च शिक्षा प्राप्त की ।
शोभा ने कभी भी भैया के प्रति अपनी नाराजगी भाभी
या बच्चों पर  जाहिर नहीं किया । अपने बच्चों के साथ
साथ उसने रिद्धिमा का भी बहुत ध्यान रखा । एम. बी.
ए.  की पढ़ाई पूरी कर रिद्धिमा  पुणे के एक संस्थान में
नौकरी भी करने लगी ।
      पुणे जाने के  कुछ समय बाद जब  रिद्धिमा ने
शोभा को फोन  पर अपनी पसंद के बारे में बताया तो
वह  स्तब्ध रह गई थी । पुरातन विचारधारा वाले भैया
क्या रिद्धिमा के इस प्यार को अपनायेंगे …इसी उधेड़बुन में फँसकर रह गई थी वह । फिर से बरसों पुरानी  चोट में टीस उठने लगी थी ।
        आज रिद्धिमा की शादी का कार्ड देखकर वह
भैया का निर्णय जान गई थी….कल और  आज में कितना फर्क आ गया है । कल जिस भैया ने एक लड़के
के साथ बातें करते देखकर उसकी पढ़ाई बन्द करवा दी थी , आज बड़े गर्व के साथ अपनी बेटी के प्यार को अपना रहे हैं । उन्होंने अपनी बेटियों को   उच्च शिक्षा
दिलाई , नौकरी करने बाहर भेजा  , उन्हें  अपना  जीवनसाथी चुनने का अवसर दिया …क्या बड़े भैया
सचमुच  बदल  गये हैं  या  उनका  रूढ पन सिर्फ शोभा
के लिए ही था । बेटी और बहन में भेद कर ही दिया न
उन्होंने….शोभा का गुस्सा  आँसुओं के रूप में ढल रहा
था और उसके हाथों में रखा कार्ड भीग गया था ।
        आखिर किसे  दोष दे वह ? भैया को , उस समाज को  या  काल चक्र को ! पहले जहाँ लड़कियाँ
एक  टुकड़ा आसमान को तरस जाती थीं , आज उनके
उड़ने के लिए खुला आसमान है…जिस पीड़ा को उसने
मन की कई परतों के भीतर राख में दबी चिंगारी की
तरह छुपा रखा था …आज वह उभर आई थी और उसके तन – मन को बेचैन कर रही थी । इतने दिनों तक
मौन  रही पर अब मुखर होने का वक्त आ गया है ।
रिद्धिमा की शादी में न जाने का निर्णय लेकर शोभा ने
बच्चों को पहले ही शामिल होने मामा  के  घर भेज दिया था ।
    उनके जाने के दो दिन बाद फोन पर भैया की
आवाज सुनकर शोभा स्तम्भित सी खड़ी रह गई । वर्षों
बाद भैया ने उससे प्रत्यक्ष रूप से बात की थी ; नहीं तो
भाभी  , बच्चे या  छोटे  भैया  के  माध्यम से ही उनकी
बातें उस तक पहुँचती  थी । वे कह रहे थे  – शोभा , मैं
जीवन भर तुम्हारे प्रति किये गये अपने उस  गलत फैसले का दंश झेल रहा हूँ …मुझे अपराधबोध है इसीलिए अपनी दोनों बेटियों को पढ़ने , नौकरी करने
का  अवसर देकर मैंने अपनी  उसी गलती का पश्चाताप
किया है । रिद्धिमा के प्यार को स्वीकृति भी अपने उस
रूढ़िग्रस्त मन को हराने के लिए प्रदान की है जिसने
तुम्हारे होठों से हँसी छीन ली ….मैं तुम्हारे उन  पलों को
तो वापस नहीं ला सकता , लेकिन तुम हमेशा खुश रहो,
ईश्वर से  यह यह प्रार्थना करता  रहा  हूँ । हो सके तो
मुझे माफ कर देना  और शादी में अवश्य शामिल होना।
रिद्धिमा मेरी बेटी है लेकिन उसकी असली पहचान तुम
हो , उसकी हर सफलता में  मैंने  तुम्हारी मुस्कान देखी
है और उसकी हर मुस्कान में तुम्हारी झलक …रिद्धिमा
के साथ मैंने तुम्हें एक बार फिर से बढ़ते हुए देखा है ..
तुम्हारी भावनाओं को समझने की कोशिश की है , तुम्हारे सपनों में रंग  भरने का प्रयास किया है …रिद्धिमा को तुम्हारा ही पुनर्जन्म मानकर उसे  उसी तरह बढ़ने
दिया जिस तरह तुम बढ़ना चाहती थी …तुम्हारे लिये
जो  न  कर  सका  उसके  लिये करके अपनी गलती का
पश्चाताप करने की कोशिश की है ; पता नहीं इसमें सफल हो पाया कि नहीं …..भैया का गला रुंध गया था…शायद  उनकी आँखों से आँसू बह निकले थे ।
      शोभा  के अन्तस् में जमा अवसाद  पिघल रहा
था….अपनी पीड़ा रूपी जिन जलकणों को बर्फ की
तरह जमा कर उसने अंतर्मन की गहराइयों में  फेंक दिया  था  , आज वह भैया के  पश्चाताप की  ऊष्मा  पाकर  पिघल  रहे  थे  और  शोभा की
आँखों  के  रास्ते  बरस  रहे थे  । बारिश के बाद धुले
पत्तों  की तरह उसका मन भी शांत हो गया था । भैया
का यह प्रायश्चित  उसके  तन – मन को पुलकित कर
गया था  और वह शीघ्र ही मायके पहुँच कर भैया को भी
अपराधबोध के उस  पिंजरे  से मुक्त कर देना चाहती थी
जिसकी चाबी थी उसकी  उन्मुक्त हँसी ।

   स्वरचित 

–  डॉ.  दीक्षा चौबे ,

 दुर्ग , छत्तीसगढ़

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