प्रतिमा से अब रहा नहीं जा रहा था।रागिनी से मिलकर उसे ताने मारने का मौका मिला था साल भर बाद।रागिनी उसकी बचपन की सहेली थी।शादी के बाद कभी -कभार मायके में गर्मी की छुट्टियों में मुलाकात हो जाती थी।प्रतिमा और रागिनी की शादी प्रायः एक ही समय में हुई थी।रागिनी ने कभी ऊंचे-ऊंचे सपने नहीं देखे थे।
शादी के बाद जब पहली बार मिली,तभी प्रतिमा ने चिढ़ाकर कहा”तू बिल्कुल भी नहीं बदली रे,रागिनी। सजना-संवरना अब भी नहीं सीखा तूने। मम्मी बता रहीं थीं तू गांव में ही रहती है, सास-ससुर के साथ।पति के साथ जाकर क्यों नहीं रहती?”
रागिनी ने हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए कहा”उनका तबादला होता रहता है।मैं कहां-कहां भटकती फिरूंगी।गांव में बाबूजी(ससुर) और अम्मा की भी तबीयत ठीक नहीं रहती।इसलिए मैं उनके साथ ही रहती हूं।तेरे जीजाजी महीने में एक बार जरूर आते हैं।जब एक जगह सैटल हो जाएंगे,तब अम्मा-बाबूजी को साथ लेकर साथ रहेंगे हम।
“प्रतिमा को इसमें कोई तुक नहीं दिखा।नियमित मुलाकात तो नहीं होती थी,पर मां से सुनती रहती थी उसके बारे में। देखते-देखते पच्चीस वर्ष बीत गए।इन गुजरे हुए वक्त में बहुत कुछ बदला।विधि का विधान था या संयोग कि लगभग एक ही समय प्रतिमा और रागिनी ने अपने-अपने पति को खोया था।मायके आई तो भाई ने बताया”रागिनी दीदी आई थीं,जीजाजी की खबर सुनकर।
उनके भी पति नहीं रहे।मिलने जाओगी क्या दीदी उनसे?अपने ही शहर के पास एक गांव में फार्म हाउस में रहतीं हैं।एक बेटा बैंगलुरु में है,छोटा गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ाता है।”प्रतिमा को वास्तव में पता नहीं था।कभी फोन नंबर भी लिया नहीं था।भाई के साथ सोचा जाकर मिल लेगी रागिनी से।
गांव के रास्ते अब पक्के हो चुके थे।हरियाली से भरपूर गांव की आबादी भी अच्छी खासी थी। रागिनी का घर पूछते ही एक युवक ने पूछा”कौन!
बंगला वाली रागिनी मां?”प्रतिमा का माथा ठनका,बंगला वाली रागिनी!रागिनी ने कब बंगला बनवा लिया।खैर जैसे-तैसे एक बड़ी सी हवेलीनुमा कोठी के पास गाड़ी रुकी,तो प्रतिमा को विश्वास ही नहीं हुआ।एक लड़की दौड़कर आई और अंदर ले गई।बिठाकर आवाज लगाई उसने”अम्मा ओ अम्मा आपसे कोई मिलने आईं हैं।”
अंदर से रागिनी सादी सी साड़ी पहने बाहर आई।प्रतिमा को देखते ही गले लग कर बड़े प्रेम से मिली।भाई को भी गले से लगाया।प्रतिमा रोने लगी तो गंभीर होकर कहा उसने”रोती क्यों है रे,प्रतिमा।तू तो बहादुर है कितनी।ईश्वर को यही मंजूर था,क्या करें?हमारी दोस्ती भी कैसी ऐतिहासिक है ना,एक ही समय शादी,
बच्चे भी लगभग एक ही समय,और विधवा भी साथ ही हुए हम।चल अंदर चलकर बैठ।लाल चाय बनाती हूं तेरी नींबू वाली। शाम हो गई है,रात रुककर ही जाना।”प्रतिमा ने भाई की तरफ देखा ,तो उसने सहमति जताई।एक नौकर को बुलाकर रागिनी ने प्रतिमा के भाई को खेत-तालाब दिखाने के लिए भेज दिया।”
अंदर रसोई में गोबर गैस से चलित गैस लगा था।ढेर सारे कमरे।कुआं,पंप,नल सभी सुविधाएं थीं।एक बाथरूम भारतीय और एक पाश्चात्य सभ्यता से बना हुआ।दो औरतें घर में अलग-अलग काम कर रहीं थीं।रसोई में एक अधेड़ महिला सब्जी काट रही थी।रागिनी ने उनका परिचय करवाया चाची जी कहकर।प्रतिमा ने पैर छुए तो वे बोलीं”का बहुरिया,हमें पाप का भागीदार बनाती हो।अपनी सहेली से पांव पड़वाती
हो।तुम तो हमें चाची बना ली,धरम तो भ्रष्ट ना करो।”रागिनी ने हंसकर गैस में चाय चढ़ाई,चिप्स तले और आकर बैठ गई ।दोनों सहेलियां सालों बाद ठहाके लगा रहीं थीं साथ में।
बातों-बातों में दोनों ने अपने-अपने बच्चों के बारे में बताना शुरू किया।तभी रागिनी का मास्टर बेटा घर आया।मां से प्रतिमा के बारे में जानकर पैर छुए बड़ी शिष्टता से उसने।चाय पीकर दूध लगाने वाले के साथ गाय के तबेले में चला गया वह(धीरज)।
रागिनी ने बताया”यह छोटू है।मुझे छोड़कर बाहर कहीं गया नहीं पढ़ने
यहीं तैयारी करता रहा और मास्टर बन गया है।बच्चों को घर पर भी मुफ्त में पढ़ाता है,अपने दादाजी की तरह।बड़े बेटे की शादी हो गई है।मैं तुझे बुला भी नहीं पाई ,उस समय तेरे जीजाजी की बीमारी की वजह से जल्दी जल्दी करना पड़ा सब।बहू भी नौकरी करती है बैंगलुरू में।साल में एक बार आतें हैं,दीवाली पर।तू बता तेरे बच्चे कहां हैं,क्या कर रहें हैं?”
प्रतिमा ने अपनी स्कूल की नौकरी का बखान शुरू कर दिया।दोनों बेटों के ऊंचे पदों पर रहने की शान भी बघार दी। बातों-बातों में सुना भी दिया”मैं अपना कमाती हूं,किसी के सहारे नहीं रहती।
तेरे जीजाजी का पैसा है ही शादी करने के लिए बेटों के।आतें हैं जब दोनों भर भर कर मेरे लिए सामान लातें हैं।एक बार एक बेटा घुमाने ले जाता है,दूसरी बार दूसरा बेटा।
खूब घूमती रहती हूं।घर अभी बनाने के लिए मना किया है बेटों ने।उन्हीं के पास ही तो रहना है।यहां फिर बेकार में क्यूं पैसे फंसाना।बड़ा सा घर किराए में लेकर दिया है। दोनों मिलकर किराया देतें हैं।महीने का खर्च भी दोनों बराबर देते हैं।तू क्यूं यहां गांव में पड़ी है। बैंगलुरू जाकर रह ना अपने बड़े बेटे के पास।”
रागिनी तब तक भजिया भी ले आई।चाची ने झटपट बना दिया था।प्लेट आगे बढ़ाकर बोली”तू कहती थी ना ,पति के साथ जाकर क्यों नहीं रहतीं?अच्छा ही हुआ जो सब छोड़कर नहीं गई।मैंने वकालत की पढ़ाई जो छूट गईं थीं,पूरी करनी।बाबूजी ने जिद करके करवाया।केस भी लड़ने लगी थी।पति की मौत के बाद बाबू जी भी चल बसे।
अम्मा के सारे रिश्तेदार जायदाद से हमें बेदखल करना चाहते थे।अम्मा ने तब हार नहीं मानी ,मैंने केस लड़ा और अपनी पैतृक संपत्ति वापस पाए।तब अम्मा ने ही यहां बंगला नाम से फार्म हाउस बनवाया।बस तभी से यह जगह बंगला घर कहलाता है।मेरी सास और मैं अकेले लड़ते रहे दुनिया से।सास की मां और बाबूजी ने आकर हमें संभाला।
इकलौती संतान थीं ,तो उनका जो कुछ भी था,सास के नाम कर दिया।जब तक जिए हमारे साथ ही रहे।इन लोगों से सीखा है मैंने प्रतिमा।जो सुख देने में है वह लेने में नहीं।मेरे बच्चे चाहे जितने बड़े हो जाएं,कितना भी कमाने लगे,मैं उनसे क्यों मांगू?भगवान ने सब कुछ दिया है हमें।हां भगवान से यही विनती करती हूं कि,इस घर से कोई खाली हाथ ना जाए।
अम्मा तो अब अकेली हैं।मैं ही उनका सहारा हूं।जितनी हैसियत है हम उतना अपने बच्चों को देते हैं घर आने पर।पर उनसे कुछ लेना अच्छा नहीं लगता।हमारे हांथ देते हुए ही अच्छे लगें हैं,लेते हुए नहीं।खाना खाते बात करते कब रात ख़त्म होने को आई पता ही नहीं चला।सुबह आते समय रागिनी की सास ने घर के पापड़,अचार ,मुरब्बा, सब्जियां,अनाज जाने क्या क्या भर कर लाद दिया गाड़ी पर।एक सुंदर हरी साड़ी
,कंगन,छोटी सी बिंदी एक पैकेट में भरकर दी।प्रतिमा को शर्म आने लगी,तो मना करती रही तब रागिनी की सास ने कहा”देखो बहुरिया,सखी हो तुम हमार बहुरिया की ना।हम उनकी सास तो तुम्हारी भी सास हुए ना।ले लेना चाहिए,जब कोई बड़ा दिल से दे।आशीष समझकर रख लें बेटा।”
प्रतिमा लौटते समय सोच रही थी कि सोच में कितना अंतर है यहां के लोगों में और हमारे शहर के आधुनिक सम्प्रदाय के लोगों में।फिर मिलने आने का वादा करके खूब प्यार से गले मिलकर विदा हुई प्रतिमा।
घर आकर अगले दिन अपने घर पहुंची।एक बेटा आकर ले जाने वाला था पहाड़ घुमाने। खुशी-खुशी सामान पैक कर इंतज़ार ही कर रही थी।बेटे ने आकर कहा”मां तुम्हें कहा था मैंने कुछ पैसे बचाने को,बचाया है ना?देख रही हो एकदम से मंहगाई बढ़ गई है।बहुत खर्च हो जाता है पता भी नहीं चलता।”प्रतिमा ने गंभीरता से इस विषय पर नहीं सोचा था।
देखा चार-पांच हजार रुपये ही पास में थे।पति के पी एफ के पैसे तो बच्चों की शादी के लिए फिक्स्ड कर दिये थे।पेंशन से घर खर्च चल जाता था।मन में पहली बार टीस उठी।गई बेटे के साथ दक्षिण भारत के मंदिरों के दर्शन को।वहां जब भी कुछ पसंद आने पर खरीदना चाहती,बेटा पहले ही झिड़क देता”ये रास्ते से सामान खरीदने में शर्म नहीं आती तुम्हें मां?
अब क्या कर सकती हो,पैसे तो पहले से जमाए नहीं।अब बस दर्शन करके वापस चलना है।कोई खरीद दारी नहीं करना तुम।”प्रतिमा को लगा किसी ने उसके गाल पर थप्पड़ मार दिया हो। तीर्थ करके अपने मायके आई थी,पंडितों को भोजन करवाने का प्रण लिया था।गांव से रागिनी को बुला लिया था।पंडितों के खाने के बाद रागिनी ,प्रतिमा को फिर अपने घर बुला ले गई।
जाते ही प्रतिमा ने ताने मारना शुरू किया “तू बैठे रहना एक ही गांव में ज़िंदगी भर।कहीं मत जाना घूमने।अरे बड़े बेटे के पास क्यों नहीं जाती ।अच्छे मंदिर हैं, दर्शन हो जायेंगें।बुढ़ापे में जब शरीर नहीं चलेगा,तब और कहीं नहीं जा पाएगी।ये देख मेरे बेटे ने तेरे लिए साड़ी पसंद करके खरीदी है।ये देख बड़ी-बड़ी दुकान जा जाकर कान के हांथ के ,मैचिंग सैट लिया है।
रख लें पहन लेना जब मन हो।वैसे तेरे मन का कुछ चलता भी होगा यहां,लगता तो नहीं है।मेरे बेटे तो मेरे मन की हर बात पूरी करतें हैं।भगवान ऐसी औलाद सबको दे।”रागिनी की रसोई में प्रतिमा बड़बड करते हुए पहुंची तो वहां का दृश्य देखकर अचंभित हो गई।रसोई में वही चाची खाना बना रही थी।रोटी रागिनी ही बनाती है।
रागिनी ने कपड़े बदल कर रोटियां बनानी शुरु कर दीं।उसके दोनों पोते इस बार मम्मी पापा के साथ दादी के पास आए हुए थे। नीचे आसन पर बैठकर सामने चौकी में लगी हुई खाने की थाली से खुश होकर खा रहे थे।जो -जो रागिनी ने परोसा, उन्होंने सब खा लिया।अब बेटे-बहू और धीरज को बुलाया।सबको परोसकर खिलाने के बाद प्रतिमा के लिए थाली निकाली और खुद भी ली।कल शायद रागिनी के बेटे-बहू को
निकलना था। रागिनी ने लिफाफे में दोनों बच्चों के लिए कुछ कैश,बेटे के शर्ट की पॉकेट में रुपए रख दिए।बहू के लिए बनारस से मंगवाई जरी वाली साड़ी और पायल दी।वे मना करते जा रहे थे पर रागिनी ने जोर देकर कहा”मुझे इतना कमजोर मत समझा करो तुम सब।मैं बड़ी हूं तुम सब से।तुम्हें देना मेरा अधिकार है।तुम बहुत तरक्की करो और खूब खुश रहो।हमारे बारे में सोचने की जरूरत नहीं।बस ऐसे ही बीच-बीच में आ जाइयो।”,
प्रतिमा आज खुद ही रागिनी के सामने बौनी लगने लगी।बेटों को अपनी मांगों की फेहरिस्त पकड़ाए रहती थी।हर समय दिखावे के चक्कर में अधिकतर पैसा खर्च कर चुकी थी।
प्रतिमा ने रागिनी के पैर पकड़कर कहा”रागिनी,तूने आज मेरे मन से बहुत बड़ा जहर निकाल दिया।हम मां हैं।बच्चों को कुछ भी देतें हैं ,दुआओं के साथ देतें हैं।जब उनसे कुछ लेते हैं तो शर्मिन्दा होकर लेतें हैं।पास में अगर पैसे नहीं,तो अहसान सा लगता है उनके द्वारा दिया उपहार।कल को मेरी भी बहुएं आएंगीं,नाती पोते होंगें।उन्हें देने के लिए क्या मैं उन्हीं के माता-पिता से पैसे लूंगी,? नहीं-नहीं।मैं अपनी रकम जमाएंगी,उन खास पलों के लिए।तेरी तरह सोने चांदी के सिक्के भले दे ना पाऊं,पर कुछ ना कुछ हमेशा देती रहूंगीं।तूने मेरी आंखें खोल दीं।जब तक खुद के पास पैसे हों,तभी हमें अपने शौक पूरे कर लेने चाहिए।बच्चों की अपनी दिक्कतें हैं, परेशानियां हैं। कभी बता भी नहीं पाते,और हम उन्हें जिम्मेदारी के जाल में ऐसे बांध देते हैं कि सांसें कसने लगती है।बोझ बनने लगते हैं हम खुद अपने बच्चों पर।
तेरी गृहस्थी से सीख लेकर अब मैं अपने जान बूझकर किए गए पापों(इच्छाओं)का प्रायश्चित करूंगी।यहीं मेरी अपने पति के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।उनके रहते कभी किसी के सामने हांथ फ़ैलाने की नौबत नहीं आई,तो अब क्यों फैलाऊं अपने हांथ अपने बच्चों के सामने।अरे तू तीर्थ नहीं जा पा रही तो कोई बात नहीं।यहां गांव में तूने अपने सास-ससुर के साथ स्वर्ग बसाया है।
शुभ्रा बैनर्जी
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