आघात – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

चौधरी मलखान सिंह के गन्ने के कोल्हू पर चहल-पहल थी। कढ़ाव में उबलते रस से मीठी बाप उड़कर सारे वातावरण को मधुर सुगंध से सराबोर कर रही थी। कई मजदूर गन्ना पेरने, खोई सूखाने और भट्टी में सूखी पत्तियों की झोंक लगाने में मगन थे। सफेद धोती कुर्ता पहने और कंधे पर काले सफेद चैक का खेस डाले हुए अपने दोस्तों के साथ बतिया रहे थे।    

तभी सामने  खोई सूखाने के बड़े मैदान के दूसारी तरफ गन्ने के खेतों के मध्य बनी पगडंडी से एक महिला घसियारिन चिल्लाती हुई दौड़ी चली आ रही थी। “मार दी रे। किसी गरीब की छोरी मार दी। अरे दौड़ के आओ रे। बरगद के पेड़ के नीचे एक छोटी सी लड़की बेहोश पड़ी है।” 

गन्ने के कोल्हू पर मौजूद सारे लोग लाठी डंडा जिनके हाथ में जो लगा लेकर उस दिशा में दौड़ पड़े। 

   लगभग दो फ़र्लांग दूर बरगद के विशाल वृक्ष के नीचे चारों ओर गन्ने के खेतों से घिरे खाली स्थान पर चौधरी मलखान सिंह के कोलू पर झोंक लगाने वाले बुन्दू की 9 साल की बेटी अपनी चिथड़ा हो गई मैली सलवार से अपनी लहूलुहान हो गई टांगों को ढकने की नाकाम कोशिश कर रही थी।

उसके चेहरे और गाल पर नाखून या शायद दांतों के जख्म थे जिनसे खून छलक रहा था। उसका सारा शरीर और उलझे बाल मिट्टी में सने हुए थे। वह घुटनों के बल उगड़ू बैठी बौराई सी, विक्षिप्त भयाक्रांत आँखों से चारों तरफ देख रही थी। बुन्दू की नौ वर्षीय बालिका के साथ क्रूर, नृसंस, अमानवीय बलात्कार हुआ था।  

बुन्दू चीख कर कर अपनी छोटी सी मासूम बेटी से लिपट गया। उसने अपने कंधे पर पड़े कपड़े को उसके चारों तरफ लपेट दिया और फूट-फूट कर रोने लगा। तब तक प्रधान मलखान सिंह अपनी दोनाली बंदूक लेकर पहुंच गए थे। स्तब्ध थे इस अमानवीय घटना को देखकर। उन्होंने ही अपने ट्रैक्टर पर पीड़िता को शहर के अस्पताल में पहुंचाया और थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई थी। 

चौधरी मलखान सिंह गहरे तनाव में थे। आज उम्र और अनुभव की प्रतीक उनके माथे की लकीरें कुछ और गहरी नजर आ रही थी। घर में चार-चार जवान लड़के हैं। दो बंदूके और एक लाइसेंसी रिवाल्वर है।  आसपास के गांव में रुआब रुतबा है। इज्जत सम्मान है। और… उन्हीं के पुरबिया मजदूर के साथ ऐसा हादसा हो गया।

आए दिन गांव के झगड़े विवाद खुद निपटाते हैं। लोग उनकी वचनबद्धता, न्याय प्रियता और मृदु स्वभाव की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। मगर इस अनहोनी ने उन्हें अजीब से विवाद और संकट में डाल दिया था। गांव और आसपास के गरीब उनसे संबंध मात्रा रखकर स्वयं को सुरक्षित समझते थे। उनके खेत और कोल्हू पर काम करने वाले मजदूर मुफ्त की छाछ, गुड़,

खेतों में उगने वाली शाक सब्जी खाते पीते और दुआ देते थे। फिर बुन्दू तो कई बरस से उनका चहेता कमेरा था। उनका सारा परिवार चौधरी साहब की गाय दुहने तो कभी गोबर पाथने में लगा रहता था। वहीं एक झौंपड़ी डालकर बरसों से रहता था।

 कभी-कभी चौधरी साहब को लगता कि किसी ने जान बूझकर उनकी शान से उठे मस्तक को झुकाने का और उनके उजले चेहरे को दागदार करने का प्रयास किया है। उन्हे ये किसी अज्ञात शत्रु के द्वारा डाह और बदले की कार्रवाई लगा रही थी। 

 चौधरन दूसरी रोटी लाई तो चौंक पड़ी। थाली में मक्का की रोटी और छाछ का लोटा अनछुआ पड़ा था।   “क्या हो गया जी तुम्हें। ना खाते पीते हो और न चैन से सो पा रहे हो। बस अनमने से रहते हो।

 चौधरी साहब ने दुखी मन से कहा “अरे क्या बताऊं सतेन्दर की माँ, बुन्दू की दुर्गति देखी ना जा रही।  ना जाने कौन ससुरा नामर्द छोटी सी बालक के ऊपर घात कर गया। हमारे गाँव में तो ये करम कभी ना सुने थे।” 

“तुम अपनी सेहत मत बिगड़ो जी। सब ठीक हो जाएगा। मरा कभी ना कभी तो आएगा ही पुलिस के शिकंजे में।” फिर कुछ सोच कर बोली “कल वह धन्नी कुम्हार की बहू आई थी छाछ लेने। वह भी हादसे वाले दिन उधर ही घास खोदने गई थी। वीरू वाले बरगद की तरफ।” 

“तो तो उसने कुछ देखा क्या। कुछ बताया उसने।” मलखान सिंह ने उत्सुकता के साथ कहा। 

“अजी उसकी तो आदत है उल्टी सीधी फेंकने की। बड़ी जबान चलाती है। कह रही थी कि वो छिपी टोले का हरदेऊ का छोटा लौंडा है ना। जो शहर में नौकरी करे है। सुबह-सुबह उधर से ही बदहवास सा भागा चला आ रहा था।” 

“अरे, हरदेऊ… वो जो टोकरे बनाने का काम करता था। उस का लौंडा। क्या नाम है उसका… रमेसर।  मगर उसका वहां क्या काम? उसके तो उधर खेत है ना बाड़ी।” 

“पता नहीं झूठ बोल रही थी या…। कहती हुई चौधरन भीतर चली गई मगर चौधरी साहब ने फिर खाना छुआ तक नहीं और कुछ बड़बड़ाते हुए तेज गति से घर से बाहर चले गए।

उसी दिन चौधरी मलखान सिंह ने पुलिस को सूचित किया और दोपहर को पुलिस ने हरदेव के घर पर छापा मार दीया। दरवाजे पर लगे ताले को गांव के चार मुअज्जिज आदमियों के सामने तोड़ दिया गया।  वहां से बरामद रामेश्वर की तस्वीर पीड़ित बालिका को दिखाई गई तो उसने उसे तुरंत पहचान लिया। रामेश्वर को शहर में उसके ऑफिस से गिरफ्तार कर लिया गया था। 

ठेठ जाड़े का मौसम था। चौधरी मलखान सिंह की दुकड़िया (बैठक) में उसके चारों बेटे अपने-अपने लिहाफ में बैठे बतिया रहे थे। मलखान सिंह कौने वाली खाट पर विचारमग्न से, धीरे धीरे हुक्का पी रहे थे।  मध्यम सा प्रकाश बिखेर रही मिट्टी की तेल की लालटेन और पानी में डुबकी लगाकर निकले तंबाकू के  धुए की मिली जुली महक से कैमरा भरा हुआ था। 

 तभी एक झक सफेद कुर्ता पायजामा पहने प्रौढ़ से व्यक्ति ने प्रवेश किया। यह मलखान सिंह का छोटा भाई बलराम था। चाचा को सम्मान देने के लिए एक लड़के ने अपनी जगह से उठकर खाट के सिरहाने की जगह पर उन्हे बिठा लिया था। 

 “कल शायद रमेसर की जमानत हो जाएगी” बलराम में बैठते ही कहा। 

 “ऐसे कैसे हो जाएगी जमानत। क्या कानून वानून कुछ नहीं है। मामला एक नाबालिक बच्ची के साथ अत्याचार का है। ऐसे कैसे जमानत हो जाएगी भला।” चौधरी साहब ने रोष के साथ कहा। 

“उसके ऑफिस के लोगों ने लिख कर दिया है कि घटना वाले दिन रामेशवर प्रसाद ड्यूटी पर मौजूद था।”

 “ऐसे कैसे हो सकता है छोटे? सारा गांव जानता है कि उसी ने महा पाप किया है।”

“गांव के जानने न जानने से क्या होता है भैया। कानून साक्ष्य और सबूत देखता है। उसके वकील ने मोटे पैसे लेकर जमानत का ठेका लिया है।” 

“अरे चाचा छोड़ो कानून और जमानत की बातें। साले को जेल से बाहर निकलते लुड़का देंगे। अब बुन्दू बेचारे का तो कुछ नहीं। उसे यहाँ कौन जनता है किन्तु समाज तो कह रहा है कि चौधरी मलखान सिंह अपने मजदूर की हिफाजत नहीं कर पाये। अब तो ये हमारी इज्जत का सवाल हो गया ना।” लड़के ने कहा। 

“अरे तू बावला हो गया है रे छोरे। उस पुरबिया मजदूर की लड़की के मामले से हमारी इज्जत का क्या लेना देना। भैया के कोल्हू पर काम करने वाला दो टके का बिहारी मजदूर ही तो है। न जाने कितने आते हैं और जाते हैं। और फिर इन सालों का भी कोई दीन ईमान होता है भला। आज यहां तो कल कहीं और। इज्जत आबरू के पैमाने सब के अलग-अलग होते हैं। फिर आज नहीं तो कल बुन्दू को तो अपनी लड़कियों को कहीं ना कहीं बेचना ही था।” 

“तू पॉलिटिक्स में क्या-क्या चला गया बलराम, बड़े छोटे का लिहाज भी भूल गया। कितनी घटिया सोच हो गई है रे तेरी। अरे जरा सोच। एक आदमी जो सैकड़ो मील दूर से आकर अपने बालकों का पेट पालने के लिए हमारी पनाह में पड़ा है उसके बुरे वक्त में उसे लात मार दें। इन नेताओं में बैठ बैठ कर तेरे विचार तो बड़े ओछे हो गए हैं रे।” मलखान सिंह ने गुस्से से कहा। 

“चाचा मुझे भी आपसे ऐसी हल्की बातों की उम्मीद नहीं थी। ये ठीक है कि सबकी अपनी जीवन शैली होती है। अलग समाज होते हैं और सबके चरित्र व सामाजिक सम्मान के अलग-अलग मापदंड होते हैं किंतु उसका मूल्यांकन आदमी की आर्थिक स्थिति, धर्म, जाति, शिक्षा या परिवेश से तो नहीं किया सकता। माफ करना चाचा, इतना सफेद कुर्ता पजामा पहनते हो। समाजवाद की बातें करते हो और गरीब आदमी

को सारे दोषों  से युक्त मान लेने की सड़ी गली मान्यता को तोड़ने का साहस आपमें भी नहीं है। जातिगत दंभ त्यागे बिना सर्व जन की बात करना कहाँ की नैतिकता है।” मलखान सिंह के छोटे लड़के सतेन्दर ने कहा। 

“मुझे राजनीति सीखाने की कोशिश मत कर छोरे। अभी पढ़ा है गुणा नहीं है। हम पीढ़ियों से इसी गांव में रहते आए हैं और यहीं रहेंगे। बुन्दू जैसे नौकर रोज आते हैं और चले जाते हैं। उनके साथ अपनी इज्जत आबरू को जोड़ते रहे तो…।”

“मगर इंसानियत भी कोई चीज होती है कि नहीं। बरसों से हमारे दरवाजे पर पड़े एक आदमी की बच्ची की जिंदगी के साथ जो खिलवाड़ हुआ है उसे आँख मीचकर बर्दाश्त कर लें।”

 “भावुकता में लिए गए फैसलों से जिंदगी नहीं चलती सतेन्दर बेटा। न्याय पाने के लिए भी दम होना चाहिए। हैसियत होनी चाहिए। ऐसे सड़कछाप, भटकते लोगों की हत्या, बलात्कार, आगजनी और लूट की घटनाओं से सारे अखबार भरे पड़े रहते हैं मगर होता क्या है।

सौ में से नब्बे मामले तो लोकल थाने की चार दिवारी में ही दम तोड़ देते हैं। बाकी कोर्ट कचहरी में लगी दुकानों पर टके टके बिकते फिरते हैं या कानून की लंबी लड़ाई लड़ते लड़ते थक कर मर जाते हैं। अच्छा बता, कभी किसी पैसे वाले को सजा होती सुनी है। इंसानियत की बात करता है।”

“पर चाचा, आप तो सीधे सीधे उस बलात्कारी के पक्ष में बोल रहे हो। ये तो उसे सीधा नैतिक समर्थन देने जैसा हो गया ना।” 

 “बेटा कहीं साहित्य वाहित्य के चक्कर में तो नहीं पड़ गया। बड़े किताबी शब्द पिरो लेता है। मगर किताबों की बातें कहानियों में ही अच्छी लगती हैं। वास्तविक जिंदगी से उनका कोई ताल्लुक नहीं होता। किस  मानवता और कर्तव्य की बात कर रहे हो। सारी कायनात शक्तिशाली ध्रुव की ओर खिंचती है। यही दुनिया का कायदा और यही कुदरत का कानून है।

दिल्ली के महंगे नाच घर में नाचने वाली लड़की की हत्या हो जाए तो देश के सारे अखबार इस समाचार से रंग जाते हैं मगर एटा, इटावा, बिहार, उड़ीसा में कितनी औरतें के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ कोई पूछने वाला नहीं मिलता। विमान दुर्घटना में मारे गए लोगों को देश के बड़े बड़े नेता श्रद्धांजलि देते हैं मगर छपरा में नाव उलट गई।

300 आदमी डूब कर मर गए  या उड़ीसा में चुड़ैल बता कर महिला को जिंदा जला दिया गया यह खबर न तो समाज में कोई हलचल पैदा नहीं कर पाती है और ना ही मीडिया की खबर बन पाती हैं।

लच्छेदार लफ्जों में लपेटकर किसी घटना को तूल देना आसान है मगर कठोर वास्तविकता को पहचान कर देखो। बर्दाश्त नहीं कर पाओगे। किसी रात को छीपी टोले के चार लौंडे बूंद की गर्दन पर कट्टा रखकर कुछ भी उल्टा सीधा लिखवा लेंगे। कागज पर अंगूठा लगवा लेंगे और बिहार की गाड़ी में चढ़ा देंगे। तो धरी रह जाएगी तुम्हारी मानवता और नैतिकता। बात करता है।” 

“अरे चाचा, इन सालों की तो ऐसी की तैसी। इस गाँव में किस हरामजादे ने अपनी मां का दूध पिया है जो हमारे आदमी की तरफ नजर उठा कर देखें ले। कट्टा दिखाना तो दूर की बात है। प्रधान मलखान सिंह के बेटों ने चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं।” मलखान सिंह का बड़ा बेटा तमक कर बोला।

“बस यही तो बात है भैया। तुम्हारे लौंडे गर्मी तो खाते हैं ज्यादा और ऊंच नीच की समझ इन्हे है नहीं।” बलराम अपनी योजना पर पानी फिरता देखकर एकदम सुर बदलकर बोला। “इसलिए तो मामला वहीं का वहीं लटका पड़ा है।” उसने फिर कहा। 

 “मामला लटका पड़ा है? क्या मामला लटका पड़ा है। अरे तू कहना क्या चाहता है छोटे। जरा खुल कर बता तेरे मन में क्या है। पहेलियाँ क्यूँ बुझा रहा है।” मलखान सिंह ने छोटे भाई के वात्सल्य में आत्मीयता से कहा। 

“क्या बताऊं भैया। आप तो एकदम सीधे-साधे आदमी हैं और आपके बालक हैं एकदम अड़ियल। भैंसे की तरह सीधी लकीर पर चलना जानते हैं। पर हर बात में मुठ्मर्दी से काम नहीं चलता। अब देखो न भैया, छोटी सी घटना को इश्यू बनाए बैठे हैं। और… आप भी इन बालकों की बातों में आ जाते हैं।” 

“छोटी सी घटना। नौ साल की बच्ची का रेप आप के लिए…।” 

“तू चुप रह सतेन्दर। बलराम को बोलने तो दे।” मलखान सिंह ने बेटे को चुप करा दिया। 

“परसों बुलाया था मुझे छिपी टोल वालों ने।” 

“उन्होंने बुलाया था तू चला गया।” 

“अब… जाना भी पड़ता है भैया। गांव समाज का मामला है।” 

“अच्छा फिर। बता क्यूँ बुलाया था उन्होने तुझे।” 

“उन्होंने अपनी बिरादरी की पंचायत बुला रखी थी। उनके समाज के आसपास के सभी गांव के बुजुर्ग पंचायत में शामिल थे।” 

“अरे! ये तो कमाल हो गया। समाज के लोग एक बलात्कारी के समर्थन में इकट्ठा हो गए थे। आखिर जमाना कहाँ जा रहा है रे। हमारे जमाने में ऐसे नीच कर्म करने वालों को गाँव बिरादरी से बाहर का रास्ता दिखा देते थे।” 

“भैया वे तो आपको भी बुलाना चाहते थे पंचायत में। मगर आप उस दिन बाहर गए हुए थे।” 

“मैं होता और वे बुलाते तो भी ना जाता। खैर, आगे बता। आखिर वे लोग चाहते क्या हैं।” 

“असल में बात ये है भैया, वे समझौता करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि कुछ ले देकर मामला शांत हो जाए।” 

“लगे हाथ ये भी पूछ लेते चाचा कि वे क्या कीमत लगाते हैं अपनी बहन बेटियों की।” छोटा लड़का बीच में ही बोल पड़ा। 

“जब बड़े बात करें तो बीच में अपनी टांग नहीं अड़ाते। मैंने तुझे गोद में खिलाया है और तू मुझ से ही जबान लड़ाने लगा है।” बलराम काम बिगड़ता देखकर उखड़ गए। 

 “जब बोलने का ही हक नहीं है तो फिर यहां बैठने का क्या फायदा। आप करिए यहाँ बैठकर गरीबों की लड़कियों की इज्जत का बोल भाव।” और छोटा लड़का अत्यधिक क्रोध में भुनभुनाता हुआ कमरे से बाहर निकल गया।

  कुछ देर बैठक में सन्नाटा पसरा रहा। मंझला बेटा ठंडे हो चुके हुक्के की चिलम उतार कर बाहर सुलग रहे उपलों के ढेर पर चिलम भरने चला गया। उसने गन्ने के शीरे में सने तंबाकू का एक पिंड सा बनाकर चिलम में रखा और लोहे की चिमटी से राख़ में दबे अंगारे निकाल कर

उसके ऊपर चिन दिये। एक बार फिर कमरे में ताजा हुक्के की सोंधी महक भर गई। मलखान सिंह ने हुक्के में एक दम लगाया और उसकी नली छोटे भाई बलराम की ओर मोड़ दी। बलराम ने एक लंबा कश लिया। धीरे से गला साफ किया और एक एक शब्द को रस में भिगोकर फिर अपना जाल बुनने लगा। 

“बात ये है भैया, कि कुछ होना हुआना तो है नहीं। थाने कचहरी के मामले हैं जिनकी दीवारें भी पैसा मांगती हैं। और फिर कोई सौ पचास का मामला तो है नहीं कि हम आप देख लेंगे। अब देखो ना भैया, बूंदू के तो अर्जी दरखास्त पर रसीदी टिकट लगाने में ही बर्तन भांडे बिक जाएंगे। पहले तो मामला थाने से आगे बढ़ना ही मुश्किल है।

सब साले दुकान खोले बैठे हैं। कोर्ट में पहुंचने से पहले केस को दीमक खाई लकड़ी सा खोखला कर देंगे। और अगर केस रो पीटकर कचहरी की सीढ़ियां चढ़ भी गया तो दुकान तो वहां भी लगी है। हजारों रुपए तो वकील मांगता है। बूंदू के घर से लेकर अदालत तक जहां सौदा पट गया वहीं मामला टांय टांय फिश और ये भूक्कड़ लुट पिटकर घर बैठ जाएगा।

सो भैया बात का निचोड़ ये है कि रामेश्वर शहर में अच्छी नौकरी करता है। उसके बाप हरदेव के पास भी दो पैसे का जुगाड़ है। उनका कहना है कि मामला आगे बढ़ा तो लड़के की नौकरी तो गई समझो। अब हो गई गलती लड़के से ना समझी में। तो बात को ज्यादा तूल देने का क्या फायदा। इसलिए ऐसा काम कर लेते हैं कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। रमेसर की नौकरी बची रहे और बुन्दू को भी दो पैसे मिल जाएँ।” 

“मगर बलराम जिसने ऐसा बुरा काम किया है उसे सजा तो मिलनी चाहिए।” 

“सजा… हां हां क्यों नहीं। अब ये पैसे धेले का खर्च भी तो एक प्रकार की सजा ही है। इसे जुर्माना समझ लो। और आप कहो तो गाँव समाज के सामने माफी वाफ़ी मँगवा देंगे नालायक से।” 

“बात क्या है बलराम। तू उन अपराधियों के इतनी तरफदारी क्यों कर रहा है। छूट जाए ससुरे की नौकरी छूटती है तो। भाड़ में जाएँ साले। जब जानवरों से बदतर कर्म करेंगे तो…।” 

“बस यही एक कमी है भैया तुम में। जिद पर अड़ गए तो अड़ गए। अच्छा एक बात बताओ। जब आप प्रधानी का चुनाव लड़े थे तो छीपी टोले वालों के वोट मिले थे कि नहीं मिले थे।” 

“हां मिले थे। मगर इसका मतलब यह तो नहीं है कि…।” 

“अब यही तो पॉलिटिक्स है भैया। बुन्दू की यहां वोट बूटल्ली है नहीं। उसकी बिरादरी यहाँ है नहीं। गाँव समाज में उसका असर? वह भी नहीं है। राजनीति भावनाओं का खेल नहीं है भैया। इंसानी जज्बात और दया की बात करने वाले भारी भरकम बयान बाजी करते रहते हैं और पार्टी के कार्यालय में झाड़ू लगाने से आगे कभी नहीं बढ़ पाते।

आपने तो सबर कर लिया गांव की प्रधानी से। पर मुझे विधानसभा का चुनाव लड़ना है। सारी पार्टी जानती हैं कि छिपी टोले की बिरादरी का बड़ा वोट बैंक है। वे वोट जिस तरफ झुक जाते हैं उसका पलड़ा भारी हो जाता है। हरदेव की बिरादरी ने रामेश्वर की गिरफ्तारी को बड़ा इशू बना लिया है। दूसरी तरफ मेरी पार्टी ने, इस बिरादरी के बिखरते वोटों को समेटने की सारी ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी है।

प्रदेश महामंत्री ने तो परसों ही साफ कह दिया था कि बलराम जी, पहले अपने गांव का मामला सुलझाइए। वरना अपना टिकट तो भूल ही जाइए। अब भैया आप तो जानते ही हैं, पार्टी के भीतर भी तो लोगों की पत्ते बाजी लौबिंग और दावपेंच चलते हैं ना। अगर एक बार यह खबर ऊपर तक पहुंच गई कि बलराम जी के परिवार की जिद के कारण पार्टी को बड़े वोट बैंक से हाथ धोना पड़ रहा है

तो पार्टी मुझे रातों रात बाहर निकाल कर खड़ा कर देगी। इतनी छोटी सी बात मैं तुम्हें नहीं समझ पा रहा हूं भैया। तुम ही सोचो कल को अगर मैं एमएलए बन गया तो क्या मेरा अकेले का फायदा होगा। ये बालक ढेलों में सर मारते घूम रहे हैं। आप तो जानते ही हो भैया निरी खेती से तो दो टाइम की रोटी ही निकलती है बस।

कल अगर सत्ता हाथ में आ गई तो दस तरह के कोटे परमिट, लाइसेन्स, अलॉटमेंट और नौकरियों के रास्ते खुलते हैं। मेरा अकेले का पेट इतना बड़ा नहीं है कि सब अकेले ही हजम कर जाऊंगा।” 

“मुझे और मेरे बालकों को ना चाहिए तेरे कोटे परमिट। ये तो खेतों में मेहनत करके अपना पेट भर लेंगे।  पर तेरी राजनीति में मैं ही अरोड़ा बन रहा हूं तो जा, कर ले अपने मन की। मैं कुछ नहीं बोलूंगा। बुन्दू जाने और उसका जमीर। पिताजी के जाने के बाद मैंने ही तुझे अपने बालकों की तरह पाल पोसकर बड़ा किया था। मेरे चुप रहने से तुझे विधायकी मिलती हो तो अब मैं कुछ नहीं बोलूंगा।” मलखान सिंह ने मायूसी से कहा। 

“केवल आप के नहीं बोलने से ही तो काम नहीं चल रहा है भैया।” बलराम काम बनता देखकर चौधरी मलखान सिंह के खाट पर उनके पांव के निकट बैठ गया और धीरे-धीरे उनके पांव दबाने लगा।

 “मैं गया था उसे बेवकूफ बुन्दू से बात करने। उसे लाख समझाया बुझाया कि तू अपने परिवार को लेकर यहां अपने घर से सैकड़ों मील दूर परदेस में पड़ा है। क्यूँ बेकार कोर्ट कचहरी के झंझट में पड़ता है। दो पैसे जेब में डाल और मामले को खत्म कर। अरे बावले बीस हजार रुपये कम नहीं होते। तूने जिंदगी में इतने पैसे इकट्ठे देखे भी ना होंगे। पर सुसरे के दिमाग में भूसा भरा है। इन लोगों में इतनी अकल होती तो यूं दर-दर की ठोकरेन खाते फिरते क्या। बावला कहता है प्रधान जी कहेंगे आग आग में कूद जाओ तो कूद जाऊंगा। वे कहेंगे कि आधी रात को गांव छोड़कर चला जा तो चला जाऊंगा। पर भले ही सारा कुनबा इसी गांव की मिट्टी में दफन हो जाए उस हरामजादे से फैसला नहीं करूंगा। मन में तो आया कि लगाऊँ  साले को दो जूते, पर आपका लिहाजा करके चुप रह गया। बेवकूफ कहीं का।” 

“तो… तो मैं क्या करूं अगर बुन्दू फैसला नहीं करना चाहता तो।”

“भैया आप कहेंगे तो मैं मान जाएगा। आप की बात नहीं टाल सकता।” 

“अरे आज तू ये कैसी बात कर रहा है बलराम। मैं… मैं उससे कहूं कि वह अपनी बेटी की इज्जत के दाम  लेकर मामला वापस ले ले। मैं उसके बरसों के विश्वास, उसकी वफादारी और सेवा के बदले उसे ग्लानी और नीचता की गर्त में गिर जाने को कहूं। अपने हाड़ तुड़वाकर, मजदूरी करके जो आदमी अपने बच्चों का पेट पाल रहा है वो गरीब तक जिस काम को ओछा और गिर हुआ मान रहा है मैं उसकी खुद्दारी का गला घोंटकर वही काम करने को कहूं। तू पगला गया है क्या बलराम।” 

“आप भी छोटी सी बात को कहां-कहां घुमा देते हैं भैया। अब आप यह समझिए कि इस तरह से हम बुन्दू  का भला ही तो कर रहे हैं। कभी उसके पुरखों ने भी बीस हजार रुपये इकट्ठे देखे हैं। थाणे कचहरी के धक्के खाते-खाते घुटने टूट जाएंगे और कुछ हासिल नहीं होगा।”

 “मेरी समझ में ना आई तेरी यह पाप लीला बलराम। अगर पॉलिटिक्स में इतने पाप भरे हैं तो छोड़ इस कुत्ता खचेड़ी को और अपनी खेती बाड़ी में मन लगा।” 

 “छोड़ देता हूं भैया। सब छोड़ देता हूं यह गांव भी छोड़ देता हूं। जब तुम ही नहीं चाहते कि मेरा कहीं मान सम्मान हो तो गांव में रहने का क्या फायदा। ढूंढ लेना मुझे किसी कुआ खाती में।” कहते हुए बलराम ने अपना आखिरी पत्ता फेंका और रूआँसा सा होकर उठ खड़ा हुआ। 

 “मैं तुझे गांव छोड़ने को थोड़ी कह रहा हूं बावले। तू तो छोटी-छोटी बातों पर बालकों की तरह तुनकने लगता है। अच्छा बता क्या करने को कहता है तू। जब बुन्दू ने तेरी बात नहीं मानी तो मेरी ही क्या मानेगा। तू जिद करता है तो… मैं पूछ कर देख लेता हूँ।” 

“करना वरना कुछ नहीं है भैया। सब इंतजाम हो चुका है।” बलराम काम बनता देखकर पुनः अपने स्थान पर बैठ गया और बड़े उत्साह के साथ कहने लगा। “मैं तो खुद ही नहीं चाहता कि किसी के साथ जादती हो। सबको न्याय मिलना चाहिए। वे तो थोड़े पैसे में ही निपटना चाहते थे पर मैंने कहा बीस से कम में बात नहीं बनेगी। बेचारे बुन्दू का कुछ तो काम चले। ये दस दस हजार के दो पैकेट हैं। आप बुन्दू को दे दीजिए। बस खाए पिए और ऐश करे मगर कल कोर्ट की तरफ ना जाए।” 

“ठीक है मैं उस से बात करके देख लूंगा।” चौधरी मलखान सिंह अनमने से बोले। 

 “देखोगे कब भैया। सुबह तो तारीख है। तड़के ही निकलना होता है। फिर आपको भी क्या उससे बात करनी पड़ेगी। बस उस से कह  भर दीजिए। फिर उसकी क्या मजाल कि आपकी बात को टाल दे। अभी जाना पड़ेगा भैया। बस उसे पैसे दे दीजिए और समझा दीजिए कि हमारी बात हो गई हैं। शांति से अपने बालकों को पाल ले।” 

चौधरी मलखान सिंह बड़े संकोच के साथ उठे। कंधों पर चादर डाली और बलराम के हाथ से बीस हजार रुपये लेकर मन मन के कदमों से निकल गए। उनकी बैठक से थोड़ी ही दूर धान के खेत के उस पार कच्ची दीवारों पर फूंस का छान डालकर बुन्दू ने छोटी सी झौपड़ी बना रखी थी। झोपड़ी में मिट्टी के तेल की ढिबरी जल रही थी। दरवाजे के स्थान पर एक सरकंडे का टट्टा खड़ा था जो इस समय द्वार से एक और धारा था।  

चौधरी साहब ने धीरे से गला साफ किया और बूंद को आवाज दी। 

 “वे तो नहीं है जी। खेत की तरफ गए हैं। रात में नीलगाय को भगाने एक बार जाते हैं।” नारी स्वर सुनाई दिया। कुछ पल चौधरी साहब असमंजस में खड़े रहे। फिर कुछ सोच कर बोले “सुन बेटा। ये पैसे रख ले। बुन्दू से कहना कहना कि मैं आया था। सुबह हरसा वाले खेत में हल चाल लेगा। कोर्ट कचहरी को रहने दे। कुछ फायदा नहीं है। बस उसे समझा देना।” और चौधरी साहब रुपए बूंद की बीवी के हाथ में रखकर लंबे-लंबे डग भरते हुए लौट आए। 

 सुबह गजब की ठंड पड़ी थी। ईंख की सूखी पत्तियों पर, कूड़े के ढेर पर और छान छप्परों पर पाले की पतली सफेद चादर सी बिछ गई थी। चौधरी साहब रोज सुबह जल्दी उठ जाते थे मगर भारी अपराधबोध के कारण आज रात भर सो नहीं पाए। एक कांटा सा रात भर उनके दिल में चुभता रहा। रात के तीसरे पहर आँख लग पायी थीं। बाहर चमकता सूरज निकल आया था। उन्होंने करवट बदली तो कोई सख्त चीज उनकी पसलियों में चुभ रही थी। उन्होंने चौंक कर पुटलिया सी वस्तु को उठा लिया। 100-100 के नोटों के वही दो पैकेट एक मैले से चीथड़े में बंधे हुए बिस्तर पर पड़े थे। 

 तभी भड़ाक से दरवाजा खुला और बलराम ने प्रवेश किया। “सब ठीक हो गया है भैया। टंटा ही कट गया ससुरे का। आप भी बेकार असमंजस में पड़े थे। दिखा सी न नीच ने अपनी जात। 20000 मिलते ही झोपड़ी में आग लगाकर रात को ही रफूचक्कर चक्कर हो गया है। मैं पहले ही कहता था ये साले किसी के सगे नहीं होते।” 

चौधरी मलखान सिंह सोच रहे थे कि उनसे जीवन में सबसे बड़ा पाप हो गया है। बूंद का मौन प्रतिघात एक जंग लगी कील बनकर उसके हृदय में कहीं गहरे धंस गया था जो जिंदगी भर गहरी वेदना देता रहेगा। उन्होंने बलराम से आंख भी नहीं मिलाई और चुपचाप बिस्तर में और अंदर सिमट गए। मानो अपने  अस्तित्व को शर्म के मारे किसी गहरी खोह में छुपा लेना चाहते हों। 

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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