रमा को बाजार में रुचि मिल गयी । रमा चहकते हुए उसके पास गयी और अचानक बोली , हाय रुचि कैसी है ? रुचि ने अपना नाम सुन पीछे मुड़ कर देखा और रमा को देख कर आश्चर्य चकित रह गयी कि तुम तो कानपुर थीं यहां कैसे? रमा बोली चलो कहीं बैठते हैं । रमा को रुचि अपने घर ले आयी क्योंकि उसका घर पास ही था ।
रुचि ने रमा के लिए चाय बनायी और कुछ नमकीन बिस्किट के साथ दोनों चाय पीने क्या बैठीं , जैसे यादों का पिटारा ही खुल गया । बचपन की बातें , स्कूल की बातें, शैतानियां क्योंकि बचपन में दोनों के घर पास पास थे और एक ही स्कूल में पढ़तीं थीं । फिर बी ए करने के बाद रमा के पापा ने उसकी शादी विवेक से कर दी जो एक कपड़े की दुकान चलाता था ।
भरा पूरा घर , विवेक के मम्मी पापा , दो बहनें और दो छोटे भाई , कुल मिला कर सात सदस्यों का परिवार और अब रमा मिला कर आठ सदस्य । रमा की अभी और पढ़ने की इच्छा थी लेकिन पिता ने एक न सुनी । उनका कहना था कि जब अच्छा परिवार मिल रहा है तब ठीक है ।पढ़ तो तुम बाद में भी सकती हो । रमा
दुल्हन बन ससुराल आ गयी । अब उसकी अपनी अलग दुनिया थी । घर की बड़ी बहू होने के नाते उसी के कंधों पर सारी जिम्मेदारियां । अपनी सामर्थ्य अनुसार वह सबको खुश रखने का भरसक प्रयास करती थी । लेकिन सासू मां की अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही थीं जिनमें वह पूर्णतया खरी नहीं उतर पा रही थी सब कुछ करने के बाद भी ।
इसलिए यदाकदा असन्तोष के स्वर उभर ही आते थे घर में जो कभी कभी कलह की वजह बन जाते थे । आखिर कब तक रमा इन सब बातों के बीच सामन्ज्स्य बिठाती । विवेक को अपने व्यापार से ही फुर्सत नहीं और न ही उन्हें रमा की भावनाओं की कद्र। उन्होनें तो जैसे शादी कर एक परिचारिका घर वालों को सौंप दी जो बिना कुछ बोले घर के सभी कहना मानती रहे ।
हां उसके ससुर जी कुछ उसकी भावनाएं समझते थे लेकिन अपनी पत्नी जी के आगे उनकी भी बोलती बंद। रमा के किसी भी नौकरी करने के सब सख्त खिलाफ थे । सासू मां का मानना था कि बहू यदि चार पैसे लाने लगे तो हमारे हाथ से निकल जाएगी। रमा के पापा ने भी कभी कुछ समझाना चाहा लेकिन वही ढाक के तीन पात।
यूं ही शादी के दो साल बीत गये ।उधर एम ए , बीएड करने के बाद उसकी सहेली रुचि की शादी पंकज से जो मुरादाबाद में रहता था , और एक कार्यालय में क्लर्क के पद पर कार्य करता था । स्वभाव से बहुत मिलनसार और मीठा । बहुत देर बातों के बाद रुचि ने रमा से कहा कि तुम सुनाओ मुरादाबाद कैसे आना हुआ , आज कल विवेक कहां है? सुनकर रमा का चेहरा बुझ गया ।
उसने बताया कि मैने विवेक को छोड़ दिया । उसे मेरी कोई जरूरत नहीं थी । उसके लिए तो मैं एक कामवाली से अधिक कुछ नहीं जो पूरे दिन डांट खाकर काम करती रहे ।
दो साल मैंने निभाने की सोची लेकिन अब मैं हार गयी और सब कुछ छोड़ कर यहां मुरादाबाद आ गयी और एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका के पद पर लग गयी हूं । अच्छा है निरादर की घी चुपड़ी रोटी से “सम्मान की सूखी रोटी” अच्छी ।
लेखिका
पूनम अग्रवाल