बीज से अंकुर फूटता है, धीरे-धीरे नन्हीं-नन्हीं पत्तियाँ निकलती हैं, फिर कली खिलती है… और अंततः बनता है एक सुंदर पुष्प।
कहते-कहते वह खिलखिला उठी, कुछ क्षण रुकी और बोली —
“देखो मम्मी, अभी कुछ दिन पहले इस अनार के पौधे में ये रेड-ऑरेंज सी कलियाँ खिली थीं।
आज देखो, इसकी एक-एक परत जैसे आत्मा की परत हो — खिलकर फूल बन रही है।
बिल्कुल वैसे ही जैसे आप हमारे लिए मोयन डालकर परतों वाला पराठा बनाती हो।
लगता है किसी ने इस कली में भी मोयन डाल दिया होगा, तभी इसकी परतें भी खुलती गईं और यह खूबसूरत फूल बन गया।”
मम्मी मुस्कुराई। बालों में तेल डालते हुए बोलीं —
“हो न हो, धरा ने भी कली के बालों में तेल डाला होगा। तभी तुम और तुम्हारा ये फूल दोनों खिलखिला रहे हो।”
तनु मुस्कराई — “सच में मम्मा, प्रकृति बहुत अद्भुत होती है।
जब यहाँ थी, तब कभी महसूस ही नहीं किया।
फिर जब पढ़ने के लिए शहर गई और वहाँ एक लोहे के संदूक जैसे छोटे-छोटे कमरों में रहना पड़ा, तब समझ आया — असली ज़िंदगी तो पीछे छूट गई थी।
आपकी ज़िद्द से एक तुलसी का पौधा लगा लिया जो वहाँ भी लग गया,
वरना वहाँ तो इंसान के लिए भी सांस लेने की जगह नहीं है।
यहाँ की चिड़ियों का चहचहाना, बुलबुल का गाना, गायों का रंभाना —
इन मधुर आवाज़ों की जगह वहाँ बस गाड़ियों की पो-पो, हॉर्न और शोर है।
सब कुछ गचपच… उलझा हुआ सा।”
मम्मी ने बालों में कंघी करके चोटी बनाई, रबर बाँधते हुए व्यंग्य में बोलीं —
“इसमें भी प्रकृति का ही दोष है। समय रहते इंसान को सही बात समझ नहीं आती।
और जब समझ आने लगती है, तब वो चीज़ उसकी पहुँच से दूर, बहुत दूर हो चुकी होती है।”
तनु के मस्तक पर हल्की सलवटें उभर आईं।
उसने मम्मी की आँखों में झाँकते हुए उनकी गहराइयों को टटोलने की कोशिश की।
फिर एकाएक मम्मी की बाहों में खुद को पूरी तरह समेटकर बोली —
“मम्मा, एक बात बताओ — जब आप मेरी उम्र की थीं, तब आपने भी सपने देखे थे ना?”
मम्मी, जिनका नाम ‘आशा’ था — तनु की रूई जैसी गुड़िया को सीने से लगाकर बोलीं —
“अब तो सब कुछ तुम और तुम्हारा प्यारा सा भैया ही हो।”
तनु की आँखें भीग आईं —
“सॉरी मम्मी, मैंने कभी आपके पास रहकर वो सब महसूस नहीं किया।
पर अब करती हूँ। सोचती हूँ…
आपके भी तो कुछ सपने रहे होंगे ना?
जिन्हें आपने हमारी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए एक-एक कर के जला दिया।”
मम्मी ने एक ठंडी और गहरी श्वास भरी और अपने शब्दों को
एक माला में पिरोकर मुझे परोसने ही वाली थीं कि दरवाज़े पर किसी की आहट ने उस माला को वहीं बिखेर दिया।
हम दोनों की नज़रों ने दरवाज़े पर टकटकी लगा दी थी।
“कौन?”
मम्मी ने अपने बालों पर टिका चश्मा आँखों पर चढ़ाते हुए पूछा।
प्रत्युत्तर मिला, “पहचाना नहीं चाची? मैं शिवानी।”
आशा थोड़ा नज़दीक गईं, फिर गौर से देखा और खुश होकर गले लगा लिया।
“आओ, बैठो।”
“ये तनु…” — तनु की ओर इशारा कर बोलने ही वाली थीं कि शिवानी बोल पड़ी,
“अरे! चुटकी इतनी बड़ी हो गई?”
हालाँकि तनु को उसका “चुटकी” कहकर बुलाना पसंद नहीं आया,
लेकिन ‘अतिथि देवो भव:’
चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान लाकर उसने अपने लिए और शिवानी के लिए एक सम्मानजनक स्थिति बना ली थी।
तभी कमरे के भीतर किसी के खांसने की आवाज़ आई।
शिवानी की आँखें पर्दे के पार उस शख्स को देखने के लिए लालायित हो उठीं।
तभी तनु ने उनका हाथ पकड़कर हॉल में ले आई।
“अरे! दादी, आप?”
खुशी से चिल्लाती हुई शिवानी ने पहले दादी के पैर छुए, फिर सीने से लिपट गई।
दादी: “कौन?”
आशा: “भूल गईं?
अपने पीछे राधेश्याम जी किराने वाले रहते थे, उनकी छोटी पोती शिवानी है।”
जब नए कैनवस पर कोई पुराना रंग उभर आता है तो बुज़ुर्गों को बहुत खुशी होती है।
दादी ने ऊपर से नीचे तक शिवानी को पूरी तरह देखा, फिर बोलीं,
“वाह! तुमने तो अपने आपको बहुत मेंटेन कर रखा है।”
शिवानी मुस्कुरा उठी और चाची के पैर छूते हुए बोली,
“ये सब आपकी कृपा है चाची।”
“इसने क्या किया? तुम तो यहाँ रहती भी नहीं हो।
शादी को भी करीब 14–15 साल हो गए होंगे, है ना?
और मेरे हिसाब से राधेश्याम जी को परलोक सिधारे 9–10 साल तो हो ही गए।
उनके जाते ही बच्चों ने बिना समय गंवाए मकान बेच दिया।
अब न जाने कहाँ रहते हैं? तुम्हें तो पता ही होगा?”
बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए ही दादी फिर बोल पड़ीं,
“बहुओं का राज आ गया था। बेचारी प्रेमा भी क्या करती?”
“प्रेमा” नाम सुनते ही शिवानी की आँखें सजल हो गईं।
अपनी माँ का दर्द आँखों तक आ ही गया था।
पर एकाएक फिल्मी अदाकारा की तरह रूमाल के कोने से पलकों को हल्के से पोंछ लिया।
दादी फिर बोलीं,
“कहाँ हैं वे लोग? मम्मी ठीक हैं?”
शिवानी ने गर्दन झुकाकर कहा,
“दादी, जब भैया–भाभी ने यहाँ से घर बेचकर इलाहाबाद में छोटी भाभी के मायके के पास घर खरीद लिया,
तो वहीं रहने लगे।
बड़ी भाभी के मायके वालों ने उन्हें लखनऊ में ज़मीन दे रखी थी,
तो वह और उनके बच्चे लखनऊ में मकान बनाकर रहने लगे।
करीब एक साल बाद ही मम्मी भी चल बसीं।”
दादी: “और क्या करती बेचारी?
तुम्हारी भाभियों ने तो यहाँ भी नाक में दम कर रखा था।
आशा ने बहुत समझाया था कि अपने रहते घर न बेचो,
पर एक न सुनी।
सुनती भी क्या?
उसकी चली ही कहाँ?”
“खैर, अब तो सब ठीक है न?
प्रेमा तो स्वर्ग में ही सुख देखेगी।”
तभी आशा चाय–नाश्ता ले आईं।
“चलो, हाथ धो लो। पहले चाय–नाश्ता करते हैं, फिर खाना खाएँगे।”
“खाना?”
शिवानी तुरंत चौंक कर बोली,
“अरे! मैं तो बताना ही भूल गई,
दरअसल आज मेरे देवर की साली की शादी है,
इसीलिए यहाँ आई थी।”
इतने सालों बाद तो यहां की आबोहवा ही बदल गई है। बड़ी-बड़ी इमारतों ने अपना साम्राज्य जमा लिया है। कितनी मुश्किल से, रास्ता पूछते-पाछते, घर तक पहुंची हूं। पूरा माहौल भुलभुलैया-सा लग रहा था। आपने भी घर का रिनोवेशन करवा लिया है ना?”
आशा खिलखिलाई, “इतने सालों में तो इंसान का रिनोवेशन हो गया, शहर तो बदलना ही था!”
अचानक शिवानी गंभीर हो गई। वह सोफे से उतरकर आशा के पैरों के पास जा बैठी।
“याद है चाची, आप मुझे पढ़ने के लिए कितना मोटिवेट करती थीं?”
आशा फिर मुस्कराई और बोली, “और तुम पढ़ाई के नाम से ही चिढ़ जाती थीं! शायद नवमी पास की रही होगी, तभी तुम्हारे बड़े भैया की शादी हो गई थी। फिर जब से भाभी आईं, तुम तो घर में ही गुम-सी हो गई थी। तुम्हारी बड़ी भाभी ने तुम्हें बहन की तरह प्यार दिया था।”
बीच में ही शिवानी बोल पड़ी, “आप सही कहती थीं, उन्हें अपना काम करवाना होता था, इसीलिए मुझे अपने पास रखती थीं। पर जब से आशु उनके आंचल में आया, उन्होंने मुझे सिर्फ और सिर्फ एक नौकरानी की पदवी दे दी थी। सारा काम करने के बाद भी उनके नखरे सहने पड़े। मुझे आज भी याद है, जब मेरी सगाई होने वाली थी, तभी भाभी ने मम्मी से कह दिया था — ‘इसकी शादी में ज़्यादा लुटाने की ज़रूरत नहीं है, वरना हम लोग क्या भीख मांगकर खाएंगे? आपके बच्चों को सरकारी दामाद नहीं बना रखा है क्या?’ वो तो मोहल्ले वालों की वजह से लाज रह गई।”
“वो भी मम्मी का ही व्यवहार था, शायद?” दादी बोलीं, “और क्या! तेरी मम्मी तो गाय थी। हमेशा कहा करती थी, ‘मैं अपनी बहुओं को बेटी की तरह रखूंगी।'”
थोड़ा खीझ कर दादी फिर बोलीं, “अरे बहुओं में भी तो लक्षण होने चाहिए!”
तभी आशा ने मिठाई का एक टुकड़ा शिवानी के मुंह में रख दिया और कहा, “चल ऊपर चल, अब छोड़ पुरानी बातों को। समय बहुत बलवान है, सब कुछ बदल जाता है। तू तो खुश है ना?”
शिवानी का चेहरा चमक उठा और वह बोली, “आपको क्या लगता है?”
आशा ने मुस्कुराते हुए उसका चेहरा दोनों हाथों में थाम लिया और बोली, “आज तो बहुत आत्मविश्वासी गुड़िया नजर आ रही है।” और अपने होठों से उसके गालों पर एक मीठी-सी झप्पी दे दी।
शिवानी की आंखों की चमक स्वाभिमान से भर गई। फिर उसने अपने पर्स से एक छोटी-सी डिबिया निकाली और तनु को देने लगी।
“अरे ये क्या? देखो, ये बेकार की बात है। बेटियों को देना या उनसे लेना… नहीं-नहीं, इस पाप की भागीदार हम नहीं बनना चाहते। तुम यहां आई हो, वो क्या कम है?”
आशा चाची की ये बात सुनकर शिवानी बोली, “अरे चाची, आपको थोड़ी दे रही हूं, ये तो मेरी प्यारी चुटकी के लिए है। आपके आशीर्वाद और जिद का ही परिणाम है कि आज आपकी ये शिवानी सिर उठाए आपके सामने खड़ी है।”
दृश्य – पुराना घर, दोपहर का समय, हल्की धूप खिड़की से छनकर अंदर आ रही है। दादी खिड़की के पास बैठी अतीत में खोई हुई हैं।
दादी को अचानक याद आया — वो दिन जब शिवानी की सगाई हुई थी। उसी समय उसकी मम्मी घर आई थी और आशा के पास बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी थी।
वो कह रही थी,
“अब क्या करूं ताई? बच्चों के आगे हार मान ली है। न देखा, न परखा… और शिवानी की सगाई कर दी।
ऊपर से लोग कहते हैं कि गरीबों की कोई डिमांड नहीं होती। कम पढ़ी-लिखी, कामचोर लड़की को कोई भला घरवाला क्यों अपनाएगा?
ऐसे तो जैसे-तैसे समय से पहले ही खूँटे से बांध देते हैं… ताकि फिर हमें अपनी चिंता ना करनी पड़े!”
उसी वक्त, दादी की बहू आशा ने उसकी बातों को बड़े धैर्य से सुना और बोली,
“भाभी, चिंता मत करो। आज से ही सामने सोनी जी के मकान में जो पुष्पा बहन रहती हैं, उनके पास शिवानी को सिलाई सीखने भेज दो।
कम से कम कोई हुनर तो आएगा… किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे। खुद का घर सहेज लेगी।”
और फिर वही हुआ।
शिवानी ने सिलाई सीखना शुरू कर दिया।
वैसे तो उसमें खास रुचि नहीं थी, पर उसे यही समझाया गया था कि — “तेरी सास ने कहा है कि अगर लड़की को सिलाई नहीं आती हो तो सीखा देना…”
एक छोटा-सा झूठ किसी की ज़िंदगी बदल दे — तो ऐसा झूठ बोलने में हर्ज ही क्या?
जब लड़की की सगाई होती है तो उसके मन में ससुराल को लेकर एक अलग ही उमंग होती है।
हर बात मानने को तैयार रहती है।
उसी समय दादी की स्मृतियों की कड़ी तनु की आवाज़ से टूटी—
“देखो दादी! शिवानी दीदी ने मुझे जो ईयररिंग दी है, उसमें मैं कैसी लग रही हूँ?”
दादी मुस्कुराईं और प्यार से बोलीं,“अनमोल गिफ्ट नहीं, गिफ्ट देने वाला अनमोल होता है। इसमें तो तू बहुत सुंदर लग रही है, मेरी गुड़िया!”
फिर तनिक रुक कर बोलीं,
“चल, मेरे कमरे में चल… कुछ दिखाना है तुझे।”
तनु ने उत्सुकता से दादी का हाथ पकड़ा और कमरे में ले गई।
दादी ने अलमारी खोली, एक पुराना लकड़ी का बक्सा निकाला और बोली,
“देख ज़रा, कोई अच्छी सी साड़ी निकाल दे। घर आई बिटिया है, खाली हाथ थोड़ी न जाएगी?”
तनु ने साड़ियाँ उलट-पलटकर देखीं और हैरानी से बोली,
“दादी, इसमें तो सब पुरानी और ओल्ड फैशन की साड़ियाँ हैं। अब कौन पहनता है ये सब? आजकल तो सब सूट पहनना पसंद करते हैं!”
दादी ने कमर पर हाथ रखा, सिर हिलाया और गंभीर स्वर में बोलीं,“बात तो तेरी भी सही है… आजकल साड़ी पहनने का चलन कम हो गया है। पर शादी-ब्याह में तो लोग अब भी पहनते हैं।
और फिर शिवानी भी तो शादी में आई है।”
तनु ने हल्के-से होंठ सिकोड़ते हुए कहा,
“इस शादी में वो आपके भरोसे नहीं आई होंगी कि आप उन्हें साड़ी देंगी और वो पहन लेंगी।
उनका तो सोचना होगा – चलो मिलने का मिलना हो जाएगा, साड़ी भी मिल जाएगी!”
दादी चौंककर बोलीं,
“क्या बुदबुदा रही है तू?”
“कुछ नहीं दादी… वैसे आपने सुन लिया?”
दादी मुस्कुराईं, और तनु की ओर इशारा करते हुए बोलीं,
“झूठ बोलती है तू — धीरे बोली थी! कान मेरे अब भी सुनते हैं, बस selectively सुनते हैं!”
तनु ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा,
“मतलब आप झूठ बोलती हैं कि कम सुनता है? और हम तो आपकी कान के पास चिल्लाकर बोलते हैं तब आप जवाब देती हैं, वरना इग्नोर कर देती हैं!”
दादी खिलखिलाकर हँस पड़ीं और बोलीं,
“जब तेरा बुढ़ापा आएगा तब समझेगी! अब बता, शिवानी को क्या दूँ?”
“कुछ ऐसा दीजिए जो काम आए। वरना आपके बक्से की तरह उनके घर में भी बक्से भरते जाएंगे!” — तनु ने चुटकी ली।
उसी वक्त आशा आ गई।
“क्या चल रहा है मम्मी जी? मैं सोच रही थी, शिवानी के हाथ में रुपए रख देती हूँ, अपनी पसंद का सूट ले लेगी।
क्या 1500 रुपए ठीक रहेंगे?”
दादी की भौंहें तनिक सिकुड़ गईं।
“1500? शादी थोड़ी है जो इतने रुपए दे दें!”
आशा समझाती हुई बोली,
“मम्मी जी, अब मायका समझ कर आई है। आप जानती हैं उसका अपना मायका तो है नहीं…
जो करती है, खुद से करती है। भाई-भाभी तो बुलाना तक नहीं चाहते।
मोहल्ले की बेटी, अपनी बेटी होती है।”
दादी के चेहरे पर कोमल मुस्कान आ गई।
“सच कहती हो… मोहल्ले की बेटी, अपनी बेटी। चलो, तुम 1500 दे दो। मैं 500 रुपए दे देती हूँ।
तनु! इस बक्से में एक रूमाल और पर्स भी पड़ा है, वो निकाल लेना।
और सुनो आशा, मंदिर से चोपड़ा भी लेते आना… तिलक लगाकर ही विदा करेंगे!”
– खिड़की के पास शिवानी चुपचाप खड़ी है। बाहर अपने पुराने पुश्तैनी घर की छत को देख रही है।]
चेहरे पर उदासी है।
आशा चुपचाप पीछे आती है,
“चलो, बिल्डिंग में घुमा लाऊँ?”
शिवानी झेंपते हुए बोली,
“नहीं-नहीं चाची, ऐसे ही देख रही थी।”
आशा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“जब भी मायके की याद आए, चली आना। पराया मत समझना।”
शिवानी ने आशा का हाथ थाम लिया,
“चाची… आपको याद है मेरी शादी में सब इलेक्ट्रिक आइटम दे रहे थे।
पर आपने मुझे सिलाई मशीन दी थी… सब हँस रहे थे।
कह रहे थे – आशा भाभी सिलाई मशीन दे रही हैं?
पर आपने कहा था – ‘बाकी सब चीजें सुविधा देती हैं, ये मशीन स्वाभिमान देगी।’
उसी वक्त मुझे भी आपकी बात समझ नहीं आई थी।
पर 2020 में जब कोरोना आया… और घर में खाने तक के लाले पड़ गए…
तब इस मशीन को याद किया।
साफ करने के लिए जैसे ही खोला — अंदर से आपका खत और 2000 रुपए निकले थे।
आपने लिखा था —
“जिंदगी में कितने भी उतार-चढ़ाव आ जाएं, हारना मत।
काम से कभी मत डरना… काम कोई छोटा-बड़ा नहीं होता।
अगर काम है, तो हम हैं। काम से ही पहचान बनती है।
मैंने कई बार तुम्हें ये बात समझाने की कोशिश की, पर मुझे पता था —
जब जीवन मझधार में बहता है, तभी जिम्मेदारियाँ तुम्हें सिखाएंगी कि असली सहारा क्या होता है।
उस वक्त अपने हुनर को आज़माना… वही तुम्हारी सबसे बड़ी मदद करेगा।
– तुम्हारी चाची, आशा।”**
आशा की आँखें भर आईं, पर होंठों पर गर्व की हँसी थी।
“अरे! तुमने तो पूरा खत रट लिया!”
शिवानी ने मुस्कुराकर कहा,
“रटा नहीं है चाची… इसे मैंने जिया है। ये मेरी हिम्मत बन गया।
आज भी वो खत हमेशा मेरे पास रहता है।”
आज आशा के मन की कसक पूर्णता की ओर बढ़ रही थी।
आज उसने महसूस किया — सम्मान की सुखी रोटी, सबसे स्वादिष्ट होती है।
दीपा माथुर
#सम्मान की सुखी रोटी