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जोड़ियां तो ऊपर वाला पहले से लिखकर पृथ्वी पर भेजता है पर हर किरदार जो इस धरती के रंगमंच पर उतरता है वो
अपने उन रिश्तों में चाहे वो मां – बाप हों ,भाई – बहन, खानदान और समाज सभी से भी जुड़ा होता है। हमारे समाज की एक अजीब-सी धारणा चली आ रही है की एक लड़की या लड़का जब शादी के बंधन में बंधते हैं तो उनके अपनों के रिश्तों को पल भर में भूला देने की उम्मीद कैसे कर लेते हैं लोग। जहां लड़की को नए घर, रीति रिवाज यहां तक की कई जगह उसका नाम तक बदल दिया जाता है
ससुराल में। फिर आप अपने रिश्तों के प्रति उसकी इमानदारी की कैसे उम्मीद करते हो। वहीं दूसरी तरफ लडके की मां अलग दुनिया में जीने लगती है कि उसका बेटा अब ज्यादातर वक्त अपनी बीवी के साथ गुजारता है और बहुत सारी बातें वो अपनी पत्नी को पहले बताता है।जो लोग आर्थिक रुप से कमजोर होते हैं वो सोचने लगें हैं
कि उनका बेटा उनको अब पैसा देगा की नहीं।इन सब बातों की खिचडी़ पकाते – पकाते उनका उद्देश्य सिर्फ एक होता है कि बेटे बहू के रिश्ते में दरार डालो जिससे उनकी रोटियां सेंकतीं रहे और बेटा उनकी मुट्ठी में।
सुनिता और समीर भी इसी दौर से गुजर रहे थे। मायके जाने नहीं मिलता था ज्यादा उसे और बेटा को तो ऐसी पट्टी पढ़ाई थी की ससुराल जाना ही बंद हो गया था।आप सोचिए ऐसी बहू से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं की वो आपको दिल से अपनाएगी। सुनिता आज बाजार से लौट रही थी तो उसके मायके के सामने से गाड़ी निकाली,
उसकी आंखें नम हो गई,उसका दिल कर रहा था कि घर जाऊं और मां – पापा का हालचाल पूछूं…. थोड़ी देर उनके साथ वक्त बिताते को तरस गईं थी। मां – पापा का आना-जाना कम था क्योंकि सुनिता की सास के तानों से तंग आ गए थे वो लोग और लगता था की बेटी अपने ससुराल में ढंग से रमबस जाए। ज्यादा आना जाना करेंगे तो बिटिया के परिवार में कहीं ज्यादा क्लेश ना हो जाए।
अपलक निहार रही थी उस आंगन को जिसमें उसने अपना बचपन जवानी गुजारी थी। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसको अपने ही घर जाने की इजाजत की जरूरत पड़ेगी।वो मन ही मन सोचने लगी उसे शादी व्याह करना ही नहीं था।
ये कैसी दुनिया रची है ईश्वर ने। किसने बनाया ये रीति रिवाज और क्यों बनाया। इसके बावजूद मां हमेशा सीख ही देती है की वो तुम्हारे लोग हैं उनके प्रति तुम्हारी कुछ जिम्मेदारियां हैं….” लेकिन क्या आप लोगों के प्रति मेरी कुछ भी जिम्मेदारी नहीं बनती मां ” वो बुदबुदा रही थी की घर निकल चुका था और थोड़ी देर में ससुराल आ गया था।
अरे! “बहू कितनी देर लगा दी? कहीं रुक गई थी क्या?” मंगला जी के प्रश्न किस तरफ इशारा कर रहे थे वो समझ गई थी,पर कहते हैं ना कई बार तो इंसान झुंझलाहट में जबाब दे देता पर कई बार वो इतना भर चुका होता है कि उसे किसी को कोई सफाई देने की इच्छा ही नहीं करती है और ये स्थिति शायद अच्छी ही होती है।
“नहीं मां जी कहीं नहीं रूकी थी सीधे घर ही आई हूं ” कहती हुई समान को रखा और गुसलखाने में जाकर हांथ – पैर धुले और चेहरे पर पानी के छींटें डालते हुए अपने आंखों की नमी को उसमें छिपा ली।” खाना क्या बनाऊं?” मां जी। सारे निर्णय मंगला जी के होथे थे कब क्या बनेगा?
कहां किसको जाना है कहां नहीं जाना है।किस मेहमान की आवाभगत कितनी करनी है,किससे ज्यादा बात करना है और किससे सिर्फ मुस्कुरा कर चुपचाप निकल जाना है।जहां इतनी बंदिशों में हो इंसान तो वो घर नहीं कैदखाना होता है एक लड़की के लिए।
समीर घर का बड़ा बेटा जो सबकुछ जानने के बावजूद अपनी पत्नी के पक्ष में नहीं बोल सकता था क्योंकि मां ना जाने कौन-कौन सी बातें गिना देंगी और मगरमच्छ के आंसू तो उनकी आंखों में तैयार ही रहते हैं सिर्फ बेटे को अपनी तरफ करने के लिए।घर में शांति बनी रहे इसलिए मुंह बंद रखना ही बेहतर है।सच पूछिए तो ये बहुत गलत बात है,
जिस घर में आपके रिश्ते इस तरह हों कि जहां आप अपने मन की बातें अपने ही मां – बाप से नहीं कर सकते हैं तो समझिए की ये रिश्ते फिलहाल टिकाऊ तो नहीं है। सिर्फ निभाने से रिश्ता जोड़कर नहीं रखा जा सकता है, आपसी प्यार – मोहब्बत और समझदारी ही अपनों को अपनों से बांधे रखती है।
समीर सुनिता को खिलखिलाती हुई कभी देखता ही नहीं था।वो एक अच्छी बहू और समझदार पत्नी थी जो सामंजस्य बना कर चल रही थी।ये बात समीर को चुभती तो थी लेकिन हिम्मत ही नहीं जुटा पाता की किसी बात का विरोध करें। मंगला जी कमरे में आती हुई बेटे से बोली समीर बेटा
” तुम्हारे मामा जी के घर शादी है मुझे और तुम्हारे पापा जी को तो जाना ही पड़ेगा… तुम बताओ तुम और सुनिता कब आओगे?” समीर को इससे अच्छा मौका नहीं मिलता की सब लोग एक सप्ताह के लिए बाहर जाएंगे मैं और सुनिता चैन से अपने लिए वक्त निकालेंगे।
मां!” मुझे तो छुट्टी नहीं मिल पाएगी मेरे बाॅस जर्मनी से आएं हैं और सुनिता का घर में रहना जरूरी है क्योंकि खानें – पीने की मुझे दिक्कत हो जाएगी।आप तो जानती हैं की मुझे चाय बनाने के अलावा कुछ नहीं आता है।”
मंगला जी तो सुनिता को साथ ले जाना चाहतीं थीं क्योंकि एक सप्ताह में बहू ना जाने क्या – क्या मनमानी करेगी… पीछे से तो रोज ही मायके चली जाएगी और समीर बेचारा तो दफ्तर के कामकाज में उलझा रहेगा,पर समीर ने पहली बार कुछ कहा था जो शायद जरूरी भी था मना नहीं कर पाईं थीं। सुनिता ने अपनी अच्छी – अच्छी साड़ी निकाल कर दी
मां जी को और खूब सारी तैयारियां करा दी थी।मां – पापा शादी के लिए निकल गए थे समीर दफ्तर के लिए। कितना शुकून था आज घर में वरना मां जी कुछ पलों के लिए भी शांति से बैठने नहीं देती थी, कोई ना कोई काम ले कर आती और घंटों फंसा कर रखती जब वो आराम करने जाती तब सुनिता अपने कमरे जा पाती।
नाश्ता करके बर्तन समेट ही रही थी की दरवाजे पर घंटी बजी।” इस समय कौन आया होगा?” आंचल में हांथ पोंछती हुई दरवाजे की तरफ बढ़ी। दरवाजा खोलते ही आवाक रह गई…. दरवाजे पर समीर खड़ा था। अरे!” आप कोई जरूरी फाइल भूल गए क्या?” समीर बिना जबाब दिए अंदर कमरे में गया और हांथ मुंह धोकर कपड़े बदल कर निकला।
” ये क्या आपने कपड़े क्यों बदल लिए? सुनिता आश्चर्य से देख रही थी।” दो कप चाय बनाओ और आ जाओ कमरे में।” सुनिता समझ ही नहीं पा रही थी की आखिर क्या चल रहा है समीर के मन में पर खुश बहुत थी क्योंकि ऐसे मौके मिलते ही नहीं की दोनों प्यार से एक दूसरे के साथ वक्त बिताएं।
चाय और पकोड़े बना कर कमरे में आई तो समीर बोला “आज से एक सप्ताह तक मेरी छुट्टी।बस मैं और तुम एक दूसरे के साथ और हां हम दोनों शाम को मम्मी के घर डिनर पर भी चलेंगे… मैंने मम्मी से कह दिया है
कि तुम्हारी पसंद की सारी चीजें बनाएं।” सुनिता को एक साथ इतनी खुशियां समझ में ही नहीं आ रही थी।उसे अपनी आंखों और कानों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था कि समीर का ये कौन सा रूप है। सचमुच में वो मेरे बारे में इतना सोचते हैं?
दोनों बहुत खुश थे आज वो खुलकर हंस रहे थे और अपने दिल की बातें एक दूसरे के सामने रख पा रहे थे। सचमुच ये भी रिश्ते का एक अलग रूप था,जो चाहता तो सबकुछ अच्छा करने की पर कर नहीं पाता है।
सुनिता भी बहुत खुश थी दोनों तैयार होकर मम्मी के घर पहुंच गए।आज मम्मी – पापा भी सुनिता को लेकर निश्चिंत हो गए थे क्योंकि समीर एक अच्छा इंसान है।डिनर के बाद लौटते समय समीर ने कहा” सुनिता तुम चाहो तो आज रात मम्मी के घर पर ही रुक सकती हो।” “सचमुच मैं रुक जाऊं?
आप भी यहीं रुक जाइए हमारे साथ कल सुबह चलेंगे।”
” मैं रुक सकता हूं…पर तुम सब सिर्फ मेरी खातिरदारी में ही उलझे रहोगे और तुम मम्मी पापा के साथ वक्त नहीं बिता पाओगी। कल दोपहर में मैं आता हूं फिर चलना मेरे साथ घर।” समीर का वो दिल से धन्यवाद दे रही थी शादी के दो वर्षों में पहली बार ऐसा हुआ था की उसको इतनी सारी खुशियां एक साथ मिली थी। मम्मी – पापा की खुशी का ठिकाना नहीं था
कि उनकी बेटी उनके साथ रहने आई है क्योंकि पास में ससुराल थी तो रुकने को मिलता ही नहीं था बस जाओ पर समय पर लौट आना यही आदेश दिया जाता था।
सुनिता और समीर बहुत खुश थे।” सुनिता तुम को खुश देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है। तुमने बिना शिकायत के हर रिश्ते इमानदारी से निभाया है । तुम कहो तो मैं अपना तबादला दूसरे शहर में ले लेता हूं और हम लोग अपनी जिंदगी खुल कर जी पाएं।” हां! ” समीर सचमुच में मुझे घुटन होने लगी है और शादी के बाद के इन पलों पर हमारा भी तो हक है आगे तो सारी जिम्मेदारी निभानी ही है हमें। मैं कभी भी अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा करूंगी लेकिन हमें भी सांस लेने का अपनी ख्वाहिशों को जीने का हक है ना।”
शादी से वापस आने के बाद फिर से रिश्तों में बदलाव आ गया था। समीर और सुनिता बहुत खुश थे ये बात मां जी को हजम नहीं हो रही थी। तभी समीर ने बताया की “उसके तबादले की बात चल रही है और उसको जाना पड़ेगा।”
मंगला जी सोच में पड़ गई थी कि एक सप्ताह में बहू ने क्या पट्टी पढ़ाई की मेरा बेटा जो कुछ बोलता ही नहीं था वो बहुत सारे निर्णय लेने लगा था… पहले तो तबादले की बात कही नहीं थी।” चुपचाप अंदर चलीं गईं थीं।
कुछ महीने के बाद सुनिता और समीर चले गए थे और घर पर एक नौकरानी रख दिया था पूरे दिन के लिए जो अच्छी तरह से उनकी जरूरतों का ध्यान रखतीं थीं। रिश्तों में बदलाव तो आया था पर दूर जाने पर सुनिता की अहमियत समझ में आ गईं थीं सबको।
अपने घर में सबको खुल कर जीने का हक़ है।सास ये बात क्यों भूल जाती है की वो भी तो एक औरत है और वो भी उस दौर से गुजर कर आई है लेकिन ऐसा नहीं होता है बहू को घर की ज़िम्मेदारियां तो सौंप दी जाती हैं पर अधिकार ना के बराबर होता है। यही बहूं ही बुढ़ापे में आपको संभालेगी ये बात जवानी में किसी को याद नहीं रहता और तभी एक साथ रहने के बावजूद रिश्ते में अपनेपन की कमी हमेशा रहती है।
प्रतिमा श्रीवास्तव
नोएडा यूपी