संशय – डॉ ऋतु अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

         “सुनो जी! मुझे लगता है कि पारुल के मायके से जो तीज-त्योहार पर सामान आता है न, वह स्वयं अपने माई को रुपए भेज देती है और उसका भाई आकर सारे नेग पूरे कर जाता है।”कविता ने अपने मन का संशय अपने पति प्रदीप के समक्ष ज़ाहिर करते हुए कहा।

         “छोड़ो भी यार! जब बहू के पीहर से सामान कम आता था तो भी तुम्हें समस्या थी, अब अधिक आता है तो भी तुम्हें शक होता है। तुम्हारे इस संशय रखने की आदत के चलते ही हमारे अधिकांश रिश्तेदार हमसे सिर्फ आवश्यकता भर का रिश्ता रखते हैं।” प्रदीप में झल्लाते हुए कहा।

          प्रदीप की बात का कविता पर रत्ती भर भी असर नहीं हुआ। अपने शंकालु स्वभाव के चलते उसने पारुल पर नज़र रखनी प्रारंभ कर दी। जब भी कभी पारुल फोन पर अपने मायके वालों से बातें करती तो कविता उसके आसपास ही मंडराती रहती परंतु उसके हाथ ऐसा कोई सुराग नहीं लगा जिससे कि वह० ०पारुल पर कोई आरोप लगा पाती।

             कुछ ही समय बाद दीवाली के त्यौहार की खरीदारी करने के लिए प्रदीप और कविता सजावटी सामान की एक दुकान पर पहुँचे तो वहाँ पर पारुल के छोटे भाई पीयूष को देखकर चौंक पड़े क्योंकि वे जानते थे कि पीयूष अभी एमएससी की पढ़ाई कर रहा है। उन्हें देखकर पीयूष भी थोड़ा सकुचा गया।

         “अंकल जी नमस्ते! आंटी जी नमस्ते!” कहकर पीयूष ने उनका स्वागत किया।/

           “पीयूष बेटा! तुम यहाँ कैसे? क्या पढ़ाई छोड़ दी है?”प्रदीप ने पूछा।

         “नहीं अंकल जी! बस शाम के समय तीन-चार घंटे के लिए यहाँ आता हूँ ताकि अपना जेब खर्च निकाल सकूँ, पर आप प्लीज पापा को मत बताइएगा।” पीयूष ने चिरौरी सी की।

           “पर बेटा! हमें तो लगा था कि अब तुम्हारे पापा का प्रमोशन हो गया है तो घर की हालात अच्छे हो गए होंगे। पारुल तो यही बता रही थी और तुम त्योहार पर भी कितना सामान लाने लगे हो। तो हमें लगा——“प्रदीप ने कहा।

           “अंकल जी! मैंने दीदी से झूठ बोला था और पापा को इसके बारे में कुछ नहीं पता। त्योहार पर सामान मैं अपनी इसी आमदनी से ले आता हूँ ताकि मेरी बहन को ताने—-।”कहते-कहते पीयूष ने अपनी जीभ दाँतों में दबा ली।

        पीयूष की बात सुनकर प्रदीप ने जलते नेत्रों से कविता की ओर देखा तो उसके मन का संशय आत्मग्लानि में बदल गया।

स्वरचित 

डॉ ऋतु अग्रवाल

मेरठ, उत्तर प्रदेश

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