छोटे से गाँव में रहने वाले रघु काका एक ईमानदार, दयालु और मददगार इंसान थे। जब भी कोई मुसीबत में होता, काका सबसे पहले पहुँचते। चाहे खेत में काम हो या किसी की बीमारी, उन्होंने कभी किसी से मुँह नहीं मोड़ा।
वे एक साधारण किसान परिवार से थे लेकिन जब भी किसी को मदद की आवश्यकता पड़ी वे हमेशा मदद करने पहुंच जाते ।
पर वक्त ने करवट बदली। एक बार उनके बेटे की तबीयत बहुत बिगड़ गई। काका ने गाँव वालों से मदद माँगी — वही लोग जिनके लिए उन्होंने अपना सब कुछ लुटा दिया था। लेकिन सबने नज़रें फेर लीं। किसी ने बहाना बनाया, किसी ने साफ़ मना कर दिया।
रघु काका ने तब पहली बार जाना कि जब ज़रूरत हो और अपने ही मुँह मोड़ लें, तो दिल कितना टूटता है। बेटे की जान तो बच गई, लेकिन काका का विश्वास दुनिया से उठ गया।
उन्होंने सबसे मिलना-जुलना बंद कर दिया। अपने खेत में अकेले काम करते, किसी से बात नहीं करते। अब जब लोग उनके पास आते, वो भी चुप रहते — उन्होंने भी दुनिया से मुँह मोड़ लिया।
पर एक दिन गाँव की एक छोटी बच्ची पूजा, जो अक्सर काका के पास कहानियाँ सुनने आती थी, उनके घर आई। उसके आँसू थम नहीं रहे थे। “काका, माँ बहुत बीमार है… कोई मदद नहीं कर रहा है नाही मेरी बात सुन रहे हैं…”
काका चुपचाप खड़े रहे। पर पूजा की मासूम आँखों में वही दर्द दिखा, जो उन्होंने खुद झेला था। कुछ पलों की चुप्पी के बाद, उन्होंने अपनी लाठी उठाई और चल दिए मदद करने।
गाँववालों ने देखा — रघु काका फिर किसी के लिए खड़े हो गए। उन्होंने फिर मुँह मोड़ा, लेकिन इस बार किसी इंसान से नहीं — उन्होंने मुँह मोड़ा उपेक्षा से ,निराशा से।और फिर सा अपने मूल स्वभाव के अनुसार सबकी मदद करने लगे।
मीरा सजवान ‘मानवी’
स्वरचित मौलिक
फरीदाबाद, हरियाणा