रेखा जी अपनी बेटी शमा के साथ बैठ एक-एक उपहार खोलकर तोल-मोल कर रही थी। नव विवाहिता बेटा बहू घुमने गये थे। शमा भी हर उपहार पर अपनी टिप्पणी दे रही थी।
“मम्मी, देखो ये पुराने जमाने का पर्स। कलर भी कितना फीका-फीका है। लगता है, चार सौ, पांच सौ से ज्यादा नहीं होगा।”
” कैसे लोग हैं। जुना पुराना कुछ भी टिका दिया।” रेखा जी भी उससे सहमती जता थी। दोनों खूब मजे ले रही थी।
“और ये क्राकरी तो देखो। कैसी पसंद हैं भैया के ससुराल वालों की? सबकुछ रोड साईड शापिंग लग रही हैं।”
” मम्मा, आपकी साडी? अपनी कूक को दे दो।”
” और मेरा सूट? कौन पहनता है इतना घटिया डिजाइन?”
राधेश्याम जी पास में बैठे सुन रहे थे। अपने गुस्से पर काबू रखते हुए प्यार से शमा को समझाते हुए कहा,
” बेटा, ये उपहार भाभी के है। तुम्हें क्या मतलब उनसे?”
” रेखा जी, याद हैं न? शमा की शादी में उपहार देख नाक भौं सिकोड़ते हुए
इस कहानी को भी पढ़ें:
क्या कहा था हमारी समधन ने? कैसे आप जार-जार रोयी थी?”
“और शमा शरम से पानी-पानी हो रही थी। मैं सिर झुकाये चुपचाप सुन रहा था उनके उलाहनें?”
“इतने जल्दी कैसे भूल गयी?”
हमने सोचा था कि अपनी बहू को ऐसी हरकत कर शर्मिंदा नहीं करेंगे।
न ही किसी उपहार का तोल-मोल करेंगे।
उपहार देनेवाले की भावना देखो। आशीर्वाद लो। उपहार की कीमत नहीं, दिल देखा जाता है।
रेखा जी को याद आ गये वे दिन।
अचानक उन्हें वे उपहार खिलखिलाते नजर आने लगे।
स्वरचित मौलिक कहानी
चंचल जैन
मुंबई, महाराष्ट्र
#उपहार की कीमत नहीं,
दिल देखा जाता है।