सुबह होती है शाम होती है…. उम्र यूं ही तमाम होती है…किसी तीर्थ यात्री के मोबाइल से आती गाने की आवाज को सुनकर घाट के एक कोने में टैंट के नीचे बैठी अम्बा बाईजी बुदबुदाती है…सच ही तो है कितना सुन्दर लिखा किसी ने इंसान की जिंदगी “ढलती साँझ” सी ही है…और खुद उसकी अपनी जिंदगी भी तो “ढलती साँझ” सी होकर रह गई है !!
दस वर्ष हो गये इस घाट पर उसे,आज ज़िन्दगी के अन्तिम पड़ाव की और वो बढ़ती जा रही है। ढलती साँझ जैसे अपने में तमाम रंग लिए रहती है ना…. वैसे ही उसकी जिंदगी भी अपने में तमाम रंग लिए हुए है । जिसमें कभी खुशी कभी गम, हताशा, थकान,टूटन , नैराश्य सभी का समावेश…..
घाट पर स्नान करते श्रद्धालु फिर उसके पास चन्दन , रोली का टीका लगवाते अक्सर जमघट सा लगा रहता उसके पास…क्योंकि कभी-कभी अपनी मधुर आवाज में भजन भी जो गुनगुना दिया करती थी वो । निहाल हो जाते श्रद्धालु दक्षिणा भी रख देते सामने पैसे, मिठाई,फल ..बस ऐसे ही बाईजी के दिन गुजर रहे थे ।
हर रोज सांझ ढलती और नदी के अन्तिम छोर पर डूबता सूरज जब बादलों के बीच में से झांकता उसे ऐसा लगता मानों विदाई पर छटपटा रहा हो उस समय वह उसको अपने भजनों में समेट कर रख देती । आज श्रद्धालु के मोबाइल से आती गाने की धुन उसे अपना अतीत सोचने पर मजबूर कर देती है।
गुजरात में उसका हँसता खेलता परिवार। उम्र के एक पड़ाव पर दुर्घटना में पति का स्वर्गवास…कैसे हवेली में काम कर खेतों पर मेहनत मजदूरी कर दोनों बेटों को पढ़ाया उसने, खुद पढ़ी लिखी नही थी इस दर्द को अच्छे से समझा था उसने ज़िन्दगी में, इसलिए दोनों बच्चों के लिए कोई कमी नहीं रखी उसने पढ़ाई-लिखाई, खाना पीना बच्चों ने कभी कोई कमी महसूस ही नहीं की । बड़ा बेटा खुद ही पसंद की शादी कर विदेश जा बसा,दूसरा बेटा भी बिजनेस में कामयाब रहा पत्नी भी पसंद से ले आया… अम्बा ने सब सहज स्वीकार किया…करती भी क्यों नहीं आखिर इन्हीं के लिए तो जी रही थी ।
समय बीतता गया परिवार की अथाह उथल चलती रहती ही है .. एक दिन बहू बेटा तीर्थ स्थल घूमने-फिरने के बहाने जो इस घाट पर लेकर आये उसे यहां घाट के एक और बने आश्रम के बाहर यह कहकर बैठा गये की घर ले जाने के लिए प्रसाद, उपहार लेने जा रहे हैं तुम बैठी रहना तब तक यहीं भजन कीर्तन सुनती रहो…प्रसाद लाना जरूरी है रिश्तेदार, पड़ोसी सब में बाँटना होगा…उसने भी कहा हाँ.हाँ बेटा थोड़ा ज्यादा ही ले आना उसकी भी संगी साथिनें उनको भी देना होगा..बताना होगा देखो बहु बेटा यात्रा करवा कर लाये है…उनके जाते ही अम्बा ने जै गंगा मैया का जयकारा जोरो से लगाया और उनकी वापसी की प्रतीक्षा करने लगी !!
ढलती साँझ फिर भोर, फिर ढलती साँझ फिर भोर…. आखिर तीन दिन आश्रम के बाहर व्यतीत हो गये मगर वो नहीं आये । अम्बा आश्रम से दोनों समय भोजन ले आती और इन्तजार करती रहती। अनेक बार बुरी आशा विचारों से मन भी घबरा जाता।क्या करती पढ़ी लिखी तो थी नहीं..? गांँव का नाम भर ज्ञात था। अकेले आना जाना कहीं हुआ नहीं था कभी, हाँ फोन नं रटा था उसको बेटे का अंग्रेजी में तो नहीं हिन्दी में अच्छे से याद कर रखा था उसने इसके लिए भी बहुत यत्न किये थे उसने ।
काफी दिनों से आश्रम के बाहर बैठे देख एक दिन आश्रम महंत ने उसकी दुख भरी कहानी सुनी उसकी मदद के लिए बेटे का फोन नं और नाम उससे लेकर पता लगाया और उसे बताया आपका बेटा बहु सुरक्षित गांँव वापस पहुंँच गये है। सुनकर अम्बा को बहुत दुःख होता है।
महंत कहते हैं “ कैसा जमाना आ गया एक माँ अकेले दो बेटों को पाल सकती है लायक बना सकती है।और दो जवान बेटों से एक वृद्ध माँ का बोझ नहीं उठाया गया…जाने क्यों बोझ हो जाते ,बोझ से झुके हुए कन्धे ,जिन पर चढ़कर बच्चे दुनिया देखा करते, जानें क्यों कड़वी लगती उनकी बातें जिनकी वजह से वो बोलना सीखते “।
दुखी अम्बा बहु बेटे की करतूत पर मन मसोस कर रह जाती है मगर दूसरे ही पल उनके सलामती से घर पहुंँच जाने का समाचार पा आसक्त भी हो जाती है। महंत जी को उनके पास वापस न जाने का कहकर अपने आश्रम में काम दिलाने की प्रार्थना करती है….वो कहती हैं वो बेटे बहु पर बोझ नहीं बनना चाहती।उनको रखना होता तो उसे यहां छोड़कर ही क्यों जाते..?
अम्बा कहती हैं बाबा महंत जी रात- रात भर जागकर मैंने उनको चैन की नींद सुलाया,वो समय से खा सकें अपना खून-पसीना बहाया…और वो मुझे चैन से दो रोटी न खिला सके ।
नहीं मुझे वापस नहीं जाना…वापस जाकर क्या करूंगी। उनको रखना होता तो छोड़कर ही क्यों जाते..?
महंत अम्बा को आश्रम में रहने की इजाजत और बाग बगीचे की देखभाल का कार्य सौंप देते हैं।
महंत कहते हैं “ बाई जिस बेटे ने तुमको रूलाया देखना कल उसका भी समय आयेगा,वो पछतायेगा..एक दिन स्वर्ग की राह, अपनेपन की चाह उसे यहां वापस लायेगी जहां वो तुमको छोड़ कर गया है “ ।
बस ऐसे ही दस वर्ष बीत गये अम्बा को सब अम्बा बाई जी के नाम से जानने लगे।वो सुबह शाम घाट के तट पर बैठती दोपहर में आश्रम के बाग बगीचे संभालती…पूरा बगीचा फूलों की खुशबू से महकने लगा…महकता भी क्यों नहीं उसको उसका संरक्षक जो मिल गया था ।
अम्बा की निर्बल काया, स्वास्थ्य भी कमजोर रहने लगा मगर वो जिम्मेदारियों के बोझ से विरक्त कभी- कभी थकान से उसका मन भाव-विभोर सा हो जाता । उसका प्रेम भाव, निश्छल प्रेम, निस्वार्थ भावनाएं सबको अपना बना लेतीं सभी उससे खुश रहते जब कभी वो भजन गुनगुनाती भीड़ इकट्ठी हो जाती…
एक दिन सांँझ ढले उसने….एक को टीका लगाने को जैसे ही हाथ बढ़ाया उसकी आंँखें फटी की फटी रह गई। उसका खुद का बेटा सामने खड़ा था… उसकी बूढ़ी ऊँगलियों में बहुत ताकत थी….बेटे का सर झुका तो उसने सर पर रखे अपने कांपते हाथों से उसे जमाने भर की दौलत दे दी ।
“ अगर कोई गलत काम करता है तो जीवन भर उसका बोझ उसके मन पर रहता है।और फिर वो बोझ जीवन भर साथ बना रह जाता है ,सालता रहता “ ।
बेटा अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगता है और बताता है उसका दिन रात का चैन छीन गया है। कैसे व्यापार में घाटा हो गया आज वो गंगा तट पर अपने पापों की क्षमा मांगने आया है।
कहते हैं ….जब मोह खत्म होता जाता है, तो खोने का डर भी मन से निकल जाता है। चाहें दौलत हो,वस्तु हो या रिश्ता या फिर ज़िन्दगी।
अम्बा का दिमाग कहता इसके साथ वैसा ही व्यवहार करूँ जैसा उसने उसके साथ किया…लेकिन उसका दिल कहता अगर वो उसके जैसे ही बन गई तो उन सबमें और उसमें फ़र्क ही क्या रह जाएगा..?
अम्बा जो आश्रय में रहकर सीख गई….. जीवन में कभी भी मौका मिले तो सारथी बनने का प्रयास करना स्वार्थी नहीं। वो कहती हैं बेटा कर्मों का वजन उतना ही इकठ्ठा करो जितना खुद आसानी से उठा कर चल सकते हो ।
“ बेटा इंसानियत से बड़ा कोई रिश्ता नहीं “!!
मैं यहां बहुत खुश हूं और मै ठहरी “ढलती साँझ” यहां अप्रजनित संघर्ष भी कम है मै शारीरिक, मानसिक रूप से प्रसन्न हूँ….
बेटा….वो देखो सामने “ढलती साँझ” में डूबते-उतरते सूरज की लालिमा और उसके रंगों की विविधता, आसमान में जहां अहसासों की तमाम इबारतें गाती चली जाती है। दिन ढलने पर पक्षी अपने हौसलों में लौटते लगे हैं।अब मेरे भी आश्रम लौटने का समय हो गया है। और अपना सामान उठा आश्रम की तरफ बिना मुड़ कर देखे बढ़ती चली जाती है…बेटा एक बार जाती माँ को देखता दूसरी पल हाथ जोड़कर गंगा माँ को प्रणाम व्यथित कदमों से घर लौट जाता है।
यह जीवन जहां दरकती है उम्मीदें,काश को लेकर तनाव रहते यही मन मिटाव रहते।यह जीवन सूख दुख पीड़ा का इतिहास होता है। प्रत्येक जीवन महान और छोटे दुर्भाग्य का धीरे- धीरे विकसित रूप है।यह जीवन ढलती साँझ सा जिसमें जितने रंगों का समावेश नजर आता…ठीक वैसे ही ये जिन्दगी भी विविध रंग खुशी, हताशा,टूटन, नैराश्य से मिश्रित है। यहां रंगों की संख्या इतनी की उसको समेटना मुश्किल हो जाता है।
यहां उम्र “ढलती सांझ” सी ढलती जाती है बस यादें रह जाती है। जो पल में रूलाती पल में हँसाती और फिर जीने का हुनर बताती है। और कभी कहती जी लो अपनी जिंदगी अरे इन ख्वाहिशों का क्या है…ये तो कभी खत्म नहीं होने वाली पल बीत जायेगा ज़िन्दगी साँझ सी ढल जायेगी साथ रहते खुशियों से अपना दामन भरते रहो।ये जीवन तो क्षणभंगुर पल- पल ढहता जाए।जीवन संध्या अपने इशारों से बुलाए। पाप पुण्य जो कमाये प्रायश्चित से क्या घबराए ।
लेखिका डॉ बीना कुण्डलिया
1 फरवरी 2025