रमा की शादी के पन्द्रह वर्ष हो गए थे। पति रमेश अच्छा खासा कमाते थे। वो संयुक्त परिवार में आकर खुद को भाग्यशाली समझती थी कि आज जहांँ लोग एकल परिवार में रहते हैं वहीं वो इतने बड़े घर परिवार में रहेगी। सब मिलजुल कर रहेंगे तो हर दिन त्यौहार की तरह ही होगा।
पर धीरे धीरे सच्चाई उजागर हुई जब सबने अपने असली चेहरे दिखाने शुरू किए।
शहर की पढ़ी लिखी रमा पर उसकी गांव की दोनों अनपढ़ जेठानी हावी हो गई। वो उसे हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश करती और बात बात पर उसका मजाक उड़ाती।
“इसे कुछ नहीं आता… ये तो शहर से आई है।”
यही सबको बताती। जबकि रमा ने अपनी मां और भाभी से घर के सभी काम तो सीखे ही और पढ़ाई लिखाई के साथ साथ सिलाई कढ़ाई बुनाई सब सीखा।
वो आत्मनिर्भर बन सकती थी पर परिवार में रहने के मोह में ही उसने अपनी स्कूल की नौकरी भी छोड़ दी। शादी के बाद कुछ साल तक उसने नौकरी की पर जैसे ही वेतन आता सारा पैसा अपनी सास के हाथ में दे देती। रमेश भी तो ऐसा ही करते थे।
रमेश हमेशा कहते…
” रमा हमें पैसों की क्या जरूरत है सारा खर्च तो मां के हाथों से ही होता है। भाई राशन सब्जी सब ले ही आते हैं। हमें किसी चीज की कोई कमी नहीं है। मेरे दोनों बड़े भाई मुझे अपने बच्चे की तरह ही मानते हैं। तुम मां और भाभीयों की सब बात माना करो। वो कभी कुछ बोल भी दें तो उनकी बातों का बुरा मत मानना।”
रमा वैसे तो घर में उसको लेकर होती लड़ाई झगडे़ के बारे में रमेश को कुछ नहीं बताया करती, पर कई बार रमेश को समझाती थी…
“हमें कुछ पैसे तो भविष्य के लिए जोड़ने ही चाहिए। कल को कोई मुसीबत आ गई और परिवार ने साथ नहीं दिया तो हम क्या करेंगे।”
रमेश कभी उसकी बात को ध्यान नहीं देता था।
“ऐसा हो ही नहीं सकता।” उसका यही मानना था।
“हम पैसे जोड़ कर क्या करेंगे। कमा रहे हैं अच्छा खा रहे हैं और क्या चाहिए?”
रमा की सास कमला देवी का व्यवहार उसके प्रति बदलता रहता कभी उसके किसी काम से बहुत खुश हो जाती और उसे अपनी खुशी से कभी अलमारी से कोई अच्छी साड़ी देती तो कभी उसके हाथ में पैसे थमा देती कि जा बाजार से कुछ खरीद कर ले आना अपने लिए।ये देखकर उसकी दोनों जेठानी और देवरानी जल भुन जाती।
पति कमाता था फिर भी उसे हर चीज के लिए दूसरों का मुंह देखना पड़ता। बच्चों को उनकी पसंद का कुछ नहीं दे पाती थी। जैसे ही घर में मिठाई आइसक्रीम फल या कुछ भी अच्छा आता उसे छुपा कर रखा जाता कि कहीं रमा ना खा जाए या अपने बच्चों को ना दे दे।
जब कोई चीज़ सड़ कर खराब होने लगती तब रमा को दी जाती।
रसोई में जब भी वो अपने पति और बच्चों के लिए कुछ बनाने
या परोसने जाती तो बिना मतलब का किसी ना किसी बात को लेकर उसकी जेठानी देवरानी उससे लड़ने लगती। वो ये सारी बातें अपने पति को भी नहीं बता पाती क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि परिवार टूटे।
उसकी सास को तो उसकी बड़ी बहू और छोटी बहू रमा के खिलाफ भड़काती रहती। अपने बच्चों के मन में भी उन्होंने रमा के प्रति नफरत भरी दी थी।
रमा के पति की तबियत खराब हुई तो उसे समझ ही नहीं आया कि उनका इलाज कैसे करवाए जब जेठ जेठानी सब ने हाथ खड़े कर लिए कि उनके पास एक फूटी कौड़ी नहीं है । जो भाई अपनी सारी कमाई परिवार पर लुटाता रहा और अपनी पत्नी और बच्चों की भी इच्छाएं उनकी जरूरतें पूरी ना करके अपने भाई के बच्चों पर खर्च करता रहा वो आज पाई पाई के लिए मोहताज हो गया था।
रमा ने अपने सारे पहले ही गहने बेच दिए थे जेठ के बच्चों की पढ़ाई में। अपने बच्चों को तो उसने सरकारी स्कूल में पढ़ाया।
अब बच्चों की आगे की पढ़ाई के खर्च कैसे पूरे होंगे इसी बात की चिंता सता रही थी।
एक दिन उसकी बचपन की सहेली का फोन आया तो बातें करते हुए उसने उसे कुछ ऐसा बताया जिससे उसकी जिंदगी बदल गई…
और अब वो दूसरों की मोहताज नहीं रही। अपने हुनर से उसने अपनी अलग पहचान बनाई। ओनलाइन ट्यूशन लेना शुरू किया और मां से सीखी हुई कलाओं को फेसबुक और इंस्टाग्राम पर डालना शुरू किया तो लोगों को वो बहुत पसंद आए। वो घर बैठे ही खूब कमाने लगी पति का इलाज अच्छे अस्पताल में करवाया।
यह राह भी आसान नहीं थी उसके लिए पर पति ने उसका साथ दिया। अब वो समझ गए थे कि पैसे भविष्य के लिए बचाने कितने जरुरी हैं। जिंदगी में कभी भी ऐसा समय आ सकता है जब एक एक पैसे के लिए दूसरों का मोहताज होना पड़े।
#मोहताज
कविता झा ‘अविका’
रांची, झारखंड