मातृभाषा – तरन्नुम तन्हा

लंदन वाली ननद, मोना, के आने के एक हफ्ते पहले ही घर में तैयारियाँ शुरु हो गईं थी। वह हमारी शादी में तो आई नहीं थी, क्योंकि हमने सीधी-सादी कोर्ट-मैरिज की थी। हालाँकि शैलेश, मेरे पति, ने घर के लॉन में रिसेप्शन की छोटी सी पार्टी दी थी, जिसमें सभी आए थे। शैलेश ने ही बताया था कि उनकी लंदन वाली बहन ने छुट्टी न मिलने का बहाना बना दिया था। लेकिन, हमारी शादी के महीने भर बाद ही वह आ रही थी।

शैलेश इस बात को लेकर खुश नहीं थे, लेकिन मैंने ही समझाया कि छुट्टी न मिल पाने की बात जैन्युइन (वास्तविक) भी हो सकती है। वह मुस्कुरा कर रह गए क्योंकि निश्चित ही अपनी बहन को मुझसे अधिक जानते थे।

लंदन वालों के आते ही घर की चहल-पहल में अधिक तेजी आ गई। घर के एक गृहसेवक के अतिरिक्त तीन गृहसेविकाएं उनकी आवभगत के लिए बाहर से बुलाई गईं थीं। मैंने भारतीय शैली में फूल मालाएं पहना कर और सासुमाँ ने टीका करके दीदी, जीजा जी और बच्चों का स्वागत किया। वह सब कुछ किया, जो उन्हें प्रसन्न करता।

शाम को घर में परिवार के अन्य सदस्यों (शहर में अन्यत्र रहने वाले), के जमा होने से उत्सव जैसा माहौल हो गया। मैं खूब इधर-उधर हो रही थी, तब जाकर सभी मेहमानों का ख्याल रख पा रही थी। जब सभी चाय, समोसे, कचौरियाँ, मिठाइयाँ इत्यादि खा-पी रहे थे तब मुझे कुछ देर दीदी के पास बैठने का मौका मिला।


दीदी, जो छोटी चाची से अंग्रेजी में बतिया रही थीं, अचानक से बोलीं, “हिंदी में बात करते हुए अजीब सा लगता है, हमें। अंग्रेजी कितनी समृद्ध भाषा है।“

चाची भी अंग्रेजी में उनके सुर में सुर मिलाने लगीं, “सच कहती हैं आप। मेरे घर में सब अंग्रेजी जानने वाले हों, तो मैं हिंदी में कभी बात ही न करूँ।“

“लेकिन मातृभाषा वाली मिठास अंग्रेजी में कहाँ से आएगी, चाची जी?” मैंने अंग्रेजी में तर्क किया तो दोनों मुझे हैरानी से देखने लगीं।

“तुम अंग्रेजी जानती हो? शैलेश ने तो मुझे बताया था कि तुमने संस्कृत में एमए किया है!” चाची के साथ दीदी भी हैरान थीं, क्योंकि शायद उन्हें भी यही पता था।

“जी, आप सही कह रही हैं। लेकिन अंग्रेजी मुझे मेरे पापा ने सिखाई है,” मैंने स्पष्ट किया।

“वाह, फिर तो तुम खूब समझ सकती हो न कि अंग्रेजी कितनी समृद्ध भाषा है,” चाची ने जोर दिया, तो दीदी भी ‘हाँ’ में सिर हिलाने लगीं।

“यह आपकी गलतफहमी है, चाची जी,” मेरे कहते ही दोनों के चेहरे रोष से भर गए।

ऐसा शायद इसलिए कि अंग्रेजी के चारों ओर दिखते प्रभाव के चलते उनसे ये बात कहने की हिम्मत कोई न करता।


“क्या तुम यह बात सिद्ध कर सकती हो?” दीदी ने अंग्रेजी में पूछा।

“आसानी से, दी। सबसे पहले तो वर्णमाला को ही ले लें। हिंदी की वर्णमाला उन्नत है, यह भाषा वैज्ञानिक भी मानते हैं। इसमें अंग्रेजी से दोगुने अर्थात बावन वर्ण हैं।”

दीदी और चाची के चेहरों पर हिंदी की वर्णमाला की उन्नतता से खिन्नता पैदा हो गई। मगर अभी उन्हें और उदाहरण चाहिए था।

“चलिए, मैं आपको जीवंत उदाहरण देती हूँ। आप उन्हें क्या कहेंगी,” मैंने कुछ दूर बैठी ताई जी की ओर इशारा किया।

“आँटी!” चाची तमक कर बोलीं।

“जी, और उन्हें क्या कहेंगी?” अब मैंने बुआ जी की ओर इशारा किया।

“आँटी!” चाची और अधिक तमक कर बोलीं।

“बिल्कुल सही। और उन्हें क्या कहेंगी?” अब मैंने शैलेश से बात करती बड़ी चाची जी की ओर इशारा किया।


“आँटी, कहूँगी और क्या?” अब चाची जी क्रोध से बोलीं।

“लेकिन तुम इससे क्या सिद्ध करना चाह रही हो?” दीदी को भी आश्यर्य हुआ।

“जी, वही तो बताना चाह रही हूँ, दीदी, कि हिंदी कितनी समृद्ध भाषा है। इसमें, बुआ, ताई, चाची सभी के लिए अलग-अलग प्रेमपूर्ण सम्बोधन हैं। अंग्रेजी की तरह सभी को आंटी कह कर रूखापन नहीं दिखाया जाता”।

भावविह्ल होकर दीदी ने अपनी कुर्सी से उठ कर मुझे गले लगाया और हिंदी में बोलीं, “आज तुमने सही माइनों में मेरा परिचय ‘मातृभाषा हिंदी’ से करवा कर गर्व से भर दिया है”।

दीदी के आलिंगन से बहुत सारी गलतफहमियों की दीवारें ढह गईं।

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