सावित्री और संतोष दोनो मध्यम वर्गीय परिवार से थे । संतोष एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और आपनी सिमित तनख्वाह से भी दोनों बड़ी खुशी खुशी जीवनयापन कर रहे थे । उनके विवाह हुए अब पांच साल ब्यतीत हो गए थे मगर सावित्री की गोद एक औलाद के लिए तरस रही थी । दोनों नें जगह जगह मंदिरों में माथा टेके झाड़ फूंक भी कराया मगर देने वाले ने उनके नसीब में औलाद नहीं लिखी थी ।
अब परिवार तथा समाज में सावित्री को बांझ कहने लगे । उसको देख लोग कानाफूसी करनें लगे। इससे सावित्री बहुत दुखी रहनें लगी ।
मगर संतोष ने अपनी पत्नी के साथ प्यार, ब्यवहार में कोई कमी नहीं किया था। एक दिन तो सावित्री ने अपनें पति से दूसरा विवाह करने को भी कहने लगी, लेकिन संतोष साफ इंकार कर दिया-” नही सावि! भगवान को देना होगा तो देंगे ही ।” अगर हम दोनों की औलाद नहीं होगी तब भी से मैं दूसरा विवाह कतई नहीं करूंगा। तुम दुखी मत हो सावि ! मैं कुछ दूसरा उपाय सोच कर बताता हूँ।
संतोष चिंतित रहनें लगा। औलाद की कमी उसे भी दिल से खल रही थी मगर ईश्वर की इच्छा के आगे किसका बस चलता है।
लेकिन संतोष पढा लिखा इंसान था । दकियानूसी बातों में आनें वाला नहीं था । वह हताश और निराश भी नहीं हो रहा था । एक दिन सोंचते सोंचते वह विचारों की गहराई में गया –देखने लगा समाज में ऐसे अनेकों माता-पिता है जिनमें किसी के दो बच्चे हैं एक लड़का एक लड़की, किसी की एक लड़की है , और किसी के एक लड़का ही है । इस तरह समाज में संतानों को लेकर विविधता है । मगर एक बात की समानता सभी माता पिता में थी कि वो पति पत्नी ही रह रहे थे ।
किसी का बेटा कमाने खाने के चक्कर में दूर चला गया था तो किसी की बेटी ससुराल चलीं गई थी ।
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कहने का तात्पर्य किसी की संतान साथ में नही रह्ते थे। उसके विचारों में क्रांति आई – वह उठकर बैठ गया। क्यों न ऐसे माता-पिता का साथ दिया जाय जिनके बच्चे बाहर विदेशों में रहते हैं सालों साल नहीं आते । मेरे तो बड़े भैया हैं जो हमारे माता-पिता की देखभाल कर लेंगे। मेरी औलाद नही है तो क्यों न किसी की औलाद की तरह सेवा कर लूँ जिनको ऐसी जरूरत है।
उसके बाद उसने अपने फूफी फूफा को साथ रहने के लिए आग्रह करने गया। वो तैयार हो गए – क्यों नहीं बेटा हम दोनों पति पत्नी तुम्हारे साथ रह सकते हैं। जब कभी हमारे बच्चे गांव आने की खबर देंगे तब फिर कुछ दिनों के लिए उनके पास गांव आ जाया करेंगे। उन लोगों ने भी अपनें बच्चों की उपेक्षा नहीं की । कहा कि ” बेटा! पैसे कमाने के लिए तो कुछ त्याग करना पड़ता है । जब तक हाथ पैर से सक्षम हैं तब तक हैं यहाँ। लेकिन तुम कहतेहो तो बहुत अच्छी बात है , तुम लोगों के साथ रह जाएंगे।
इस तरह सावित्री और संतोष एक प्रकार से समाज सेवा करते हुए हंसी खुशी जीवनयापन करनें लगे ।
भगवान का संतुलन अपरंपार है।
स्वरचित मौलिक रचना
-गोमती सिंह
कोरबा ,छत्तीसगढ़