मन में ही छुपे हैं, खुशियाँ और गम * – पुष्पा जोशी

राजेश्वर जी अपने आलीशान बंगले के कारिडोर में, आराम से आराम कुर्सी पर बैठे थे. संद्या का समय था. वे कॉलेज में हिन्दी के प्रोफेसर थे, और एक अच्छे लेखक भी.सेवानिवृत्ति  के बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान अपने लेखन पर केन्द्रित कर दिया था. कल उनकी पुस्तक” कभी खुशी कभी गम ” के लोकार्पण का अवसर है. वे बहुत भावुक व्यक्ति है.आज उनका मन बहुत विचलित हो रहा है, तरह-तरह के प्रश्न मन में उठ रहे हैं. वे सोच रहै थे, कि मानव की सच्ची खुशी क्या है? 

जिस खुशी के लिए वे तरसते थे,और जिन्हें पाने के लिए दिन रात मेहनत की क्या वह खुशी ही मेरे जीवन का लक्ष्य थी,आज मेरे पास सुख सुविधा के सारे साधन है, जो कभी सपना लगते थे. आज कोई काम नहीं करना होता, सब कार्य करने वाले हैं,जिस सुख की कल्पना की ईश्वर ने सब मेरी झोली में डाल दिए, फिर भी ये कैसी उदासी है, जिसने मुझे घेर रखा है.मन कहीं नहीं लग रहा.उनका सिर चकरा रहा था, चाय पीने की इच्छा हुई तो रामू को आवाज लगाकर चाय लाने के लिए कहा, रामू चाय लेकर आया, उनका मन हुआ कोई अपना हो जो उनके साथ बातें करे, साथ में चाय पीए हंसे मुस्कुराए. मगर अभी शोभा के आने का समय नहीं हुआ था.

उन्होंने घड़ी में देखा ६ बज रही थी और शोभा ७ बजे से  पहले घर नहीं आ पाती थी, उसका स्कूल घर से दूर था, वह भी एक प्राइवेट  स्कूल में प्राचार्य थी, जिम्मेदारी  का काम था उसका.राजेश्वर जी के दो लड़के थे,जो कम्पनी में नौकरी करते थे, और अपने बीवी बच्चों के साथ महानगरों में ही बस गए थे. साल में एक दो बार, वार त्यौहार पर ही आ पाते थे.उनका दिल और दिमाग दोनों इस प्रश्न के उत्तर की खोज में लगे थे, कि वास्तविक खुशी क्या है? चाय पीते समय उनकी नजर उनके घर के सामने बन रहै बंगले के चौकीदार की झोपड़ी पर पड़ी.  चौकीदार रामधन और उसकी पत्नी कमला मजदूरी करके झोपड़ी में लौट आये थे, कमला ने चूल्हा जलाया और पहले सबके लिए चाय बनाई, तीन बच्चे थे उसके सबसे छोटा गुड्डू लगभग ३ साल का होगा, उससे बड़ी एक लड़की शालु  जो लगभग ७ साल की होगी, और सबसे बड़ा गोपाल १२ साल के लगभग होगा.




 गुड्डू मॉं की गोदी में बैठ गया , शालु उसके बाबा के कंधो पर चढ़कर बैठ गई. पूरा परिवार आपस में बातें कर रहा था और हंसी मजाक कर रहा था. राजेश्वर ने सोचा कितने खुश हैं ये लोग. और फिर अपने विचार पर खुद ही हॅंस दिया.उसे याद आया अपना बचपन. वह भी ऐसे ही दौर से गुजरा था. पिताजी अक्सर बिमार रहते थे, वे सब्जी बेचने का काम करते  थे.मॉं कुछ घरों में बरतन, झाड़ू, पौछा का काम करती थी. सुबह सबका खाना बनाकर जाती, दिन में थोड़ी देर के लिए आती, और फिर काम पर चली जाती, तो शाम की सात बजे घर आती.आने के बाद मुझे और रागिनी को बहुत प्यार करती, खाना बनाकर पहले गरम-गरम पापा को और हमको खिलाती, 

फिर स्वयं जो बचता वो खा लेती.बहुत संतोषी थी. फिर कार्य निपटाने के बाद पापा सो जाते.मगर, मैं और रागिनी मॉं के दोनों और लेट जाते और उनसे कहानी सुनते, और बहुत सारी बातें करते. उस समय मैं बारह- तेरह साल का था और रागिनी आठ- नौ साल की होगी.हम दोनों सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते है.हमारे घर के आस पास बहुत बड़े -बड़े बंगले बने हुए थे.उन बंगलो में रहने वाले बच्चे सुन्दर यूनिफार्म जूते, मौजे पहनकर बसो से या रिक्षा से स्कूल जाते थे और हम दोनों पैदल जाते थे, 




हमारी ड्रेस की, किताबों की और फीस की व्यवस्था भी पापा और मॉं बहुत मुश्किल से करते थे.पैरो में जूते नहीं बस स्लीपर ही पहन पाते थे.मन तो सब पाने के लिए मचलता था, एक दिन मैंने माँ से कहा माँ ये लोग कितने खुश हैं, आराम से खाते पीते हैं, घूमते है, इन्हें कोई भी गम नहीं है. माँ हमारे पास इतनी खुशी क्यों नहीं है ? मॉं आप दिनभर काम करती हो, थक जाती हो, आपको कभी इस बात का दु:ख नहीं होता. कौन कहता है बेटा की मैं दुखी हूँ, जब तुम दोनों मेरी बाहों में सिमट जाते हो, तो मैं दिन भर की थकान भूल जाती हूँ, मैं बहुत खुश होती हूँ, और चैन से सो जाती हूँ.इस बात का दु:ख जरूर होता है कि मैं तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी नहीं कर पाती हूँ, बेटा तुम पढ़ लिखकर बहुत बड़े आदमी बनना,हमारा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है. बेटा ऐसा नहीं है कि ये पैसे वाले लोग खुश ही रहते हैं.खुशियाँ और गम सभी की जिन्दगी में आते हैं. मैं इतने घरों में काम करने जाती हूँ, मुझे मालुम है इतनी धन दौलत होने के बाद भी उनके घर में कलह होता है.तुम कहते हो ना कि सामने वाले दादाजी कितने आराम से रहते हैं, कितना सुन्दर मकान है. बेटा क्या तुमने कभी उनकी परेशानी देखी, अकेले है वो.उनके दो बेटे हैं, बहू है, मगर कोई आकर उनकी खबर ही नहीं लेता, जब से उनकी पत्नी शांत हुई है वे अकेले रहते हैं. कई बार उन्हें रोते हुए देखा है मैने. कई बार मैंने कहा कि ‘आप घर से बाहर निकले, बगीचे मे घूमे, लोगों से मिले मगर वे घर से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं.मैं उनके घरका काम करके आ जाती हूँ, उनकी हालत पर दु:ख होता है.बेटा इन्सान को हर हाल में खुश रहने के बहाने ढूंढ लेना चाहिए और अपनी स्थिति को और बेहतर बनाने के प्रयास करने चाहिए.मन अगर खुशी ढूँढेगा तो उसे खुशी मिलेगी और नहीं तो कौसते रहो अपनी किस्मत को और रोते रहो.

राजेश्वर बाबू के उदासी भरे मन में माँ की बातें याद आने से एक नई ऊर्जा का संचार हुआ, सोच ने करवट पलटी, सबकुछ तो है मेरे पास.उस समय अभावों में जब कोई खाना, कपड़ा या कोई जरूरी वस्तु देते थे तो हम कितने खुश होते थे, उन्हें दुआ देते थे.आज ईश्वर ने इस काबिल बनाया है, तो क्यों न मैं भी जरूरत मंदो के लिए कुछ करूँ.उन्होंने यह निर्णय लिया कि कल पुस्तक के लोकार्पण के बाद उस पुस्तक से जो आमदनी होगी वे अनाथालय में देंगे,और दौपहर में जरूरत मंद बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करेंगे. अरे कमाल हो गया! यह विचार आते ही उनकी उदासी दूर हो गई, और मन प्रसन्न हो गया. मॉं की याद आई तो ऑंखें नम हो गई, मगर उन्हें एहसास हुआ कि माँ का ऑंचल उनके ऊपर लहरा रहा है.राजेश्वर बाबू ने कुछ मिठाई, नमकीन और बिस्किट के पेकेट साथ में लिए और उस झोपड़ी पर गए. उन बच्चों को दिए वे बहुत खुश हुए.राजेश्वर बाबू ने कहा कि अगर वे बच्चे पढ़ना चाहें तो वे उन्हें मुफ्त में पढ़ाएंगे. रामधन और कमला की खुशी का ठिकाना नहीं था, वे सहर्ष तैयार हो गए.राजेश्वर बाबू की उदासी खुशी में बदल गई थी.

प्रेषक-

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक

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