बुनकर – अंजू निगम

“अरे नौशाद, जरा दो गिलास पानी तो भिजवा यहाँ।” शमशाद की आवाज पर नौशाद काम छोड़ तुरंत अमल पर उतरा।

 इस महीने लगा, पुरानी रौनक फिर लौट रही है।  लगन लग रहे थे। कई मोटे ग्राहक फिर आ जुटे थे। अब तक सूखी पड़ी कड़ाही में घी की तरावट आने लगी थी।

शमशाद जी जान दे रहा था कि दुकान तक आया एक भी ग्राहक, बिना कुछ लिये पलटे नहीं।

नौशाद सबसे पुराना कारीगर था और शमशाद के हर मिजाज़ से वाकिफ था। दो तीन पावरलूम पर तो उसके ही परिवार का दबदबा था पर पिछले कई महीनों से स्थिति बदहाली की ओर जा रही थी। दो तीन पावरलूम पर समय का जंग चढ़ने लगा था।

“चाहे जितने गाहक जुटे, डेढ़ सौ से ज्यादा मजूरी न मिलने की। सारे दिन काम कर, उंगलियाँ तार तार हो रही।” पेट की भुख बोल रही थी आज राबिया की जुबान पर।

“आज कितनी साड़ियाँ निकाली?” राबिया की बात को फेर नौशाद ने पूछा।


“बड़ी मुश्किल से खींच-खांच दो निकाल पाये?” राबिया मंद आवाज में बोली। देह की थकान आवाज में झलक रही थी।

” यह मुश्किल दिन भी फिरेगे। गाहक जुटना शुरु हो गये है। शमशाद भाई ने यह अच्छा किया कि फैक्ट्री से सटी, दुकान खोल ली। अब बिचौलियों का सरदर्द खत्म। थोड़े दिन सबर कर। आज ही मैं शमशाद भाई से मजूरी बढ़ाने को बोलता हूँ। आखिर तो मैं  शमशाद भाई का सबसे पुराना कारीगर हूँँ।”

अपनी बात कहने की गरज ने नौशाद को शमशाद भाई के आगे खड़ा किया कि शमशाद ही बोल उठा,” ये देख!!! सहकारी समिती वालों का नोटिस। हमारा काम पंसद आया उन्हें। धागा तो मुफत देगें ही, हमारे पावरलूम को भी चमका देगें। दिन फिर रहे है नौशाद, तेरे भी। अब से  तु बुनकरों को सुपरवाइज करेगा।”

नौशाद के स्याह जीवन में रंगीन धागों की बुनकरी हो रही थी।

अंजू निगम

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