वो बदनाम गलियां – संगीता अग्रवाल

क्या ये बदनाम गलियां ही अब मेरा मुकदर होंगी… क्या मैं कभी खुल कर नही जी पाऊंगी….क्या मुझे यहीं घुट घुट कर जीना पड़ेगा । मेरा नाम मेरी पहचान मेरा वजूद सब खो जायेगा..,? कांता बाई के कोठे के अंधेरे कमरे में पड़ी सत्रह साल की वैशाली ये सब सोच रही थी। वो जितना इस दलदल से निकलने का उपाय सोचती उतना उलझती जाती क्योंकि ये बदनाम गलियां एक चक्रव्यूह की तरह होती हैं जिनमे आना तो आसान होता है पर यहां से निकलना बहुत मुश्किल और कभी कभी तो नामुमकिन होता है। 

सोचते सोचते वैशाली अतीत में पहुंच गई। मां बाप की लाडली बेटी वैशाली। दो भाईयों की जान वैशाली। पढ़ लिख कर आईपीएस ऑफिसर बनना उसका सपना था सब कुछ कितने अच्छे से चलता अगर वैशाली की जिंदगी में वो काली रात ना आती जब वो भाइयों के आने का इंतजार किए बिना रात के आठ बजे कुछ सामान लेने बाजार चली गई…वापसी में किसी ने पता पूछने को उसे साइड में बुलाया और तभी पीछे से एक हाथ उसकी नाक तक आया और फिर…फिर उसे होश नही क्या हुआ …वो कितने दिन तक बेसुध रही ये भी नही पता उसे और जब होश में आई तो उसने एक आवाज सुनी जो की एक औरत की आवाज थी पर थी बहुत भारी भरकम।

” चल जल्दी से तैयार हो जा आज तुझे भी महफिल में बैठना है!” वो औरत जो शायद उस कोठे की मालकिन थी बोली।

” आंटी प्लीज मुझे मेरे घर जाना है आप मुझे जाने दो ना !” उसने हाथ जोड़ उस औरत से कहा।



” अरे तुझे ख़रीदा है मैने ऐसे कैसे जाने दूंगी !” वो औरत भद्दी हंसी हंसते हुए बोली।

” आंटी मेरे मम्मी पापा परेशान हो रहे होंगे वहां वो मुझे ढूंढ रहे होंगे !” वैशाली फिर गिड़गिड़ाई।

” इस जगह आने के बाद सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं अब तुम्हारे ना कोई मां बाप है ना भाई बहन जो है ये कोठा है समझी चल अब तैयार हो जा !” वो औरत यानी की कांता बाई ये बोल वहां से चली गई।

“मुझे यहां से निकलना ही होगा पर उससे पहले मुझे ये औरत का विश्वास जीतना होगा क्योंकि बिना विश्वास जीते मैं यहां से निकलने की सोच भी नही सकती!” वैशाली सोचने लगी।

फिर उसने वो सब किया जो कांता बाई चाहती थी। ये गनीमत थी कि अभी उसके जिस्म का सौदा नहीं हुआ था पर सुंदर होने के कारण रहीसजादे उसके साथ थोड़ा वक्त बिताने की ही बड़ी रकम अदा करते थे। कांता बाई अब वैशाली से खुश रहने लगी थी इसलिए उसे कोठे में यहां वहां घूमने की इजाजत मिल गई थी साथ ही वो छत पर भी चली जाती थी। वो सब चीजें देख समझ रही थी। दिन भर कोठे में लड़कियां बनाव श्रृंगार करती और शाम होते ही ग्राहकों को रिझाने के लिए खड़ी हो जाती। महफिलें सजती नाच गाने होते साथ ही होते भद्दे इशारे और जिस्म पर चींटी की तरह रेंगते हाथ। बहुत सी लड़कियां इन सबकी आदि हो चुकी थी पर वैशाली के लिए ये सब एक नरक से कम नही था।

वैशाली के साथ ही एक और लड़की कविता भी यहां से निकलने के लिए मचल रही थी। दोनो की दोस्ती हुई और दोनो मन ही मन एक योजना बनाने लगी। सुबह के चार बजे तक सारा रेड लाइट एरिया सुनसान हो जाता था सब घोड़े बेच सो चुके होते थे वैशाली ने वही समय चुना अपनी आजादी का। कुछ गहने रुपए वो अब तक जोड़ चुकी थी।

और एक सुबह वैशाली और कविता के लिए आजादी की सुबह साबित हुई। छत पर पहले से छिपाई रस्सी और गहने और रुपए की पोटली ले दोनो छत के रास्ते छू मंतर हो गई। कोठे से निकल दोनो बिना सोचे भागती जा रही थी क्योंकि पकड़े जाने का डर था पास में रेलवे लाइन है जहां गाड़ियों की रफ्तार थोड़ी कम हो जाती है ये बात उन्होंने पहले ही पता लगा ली थी दोनो भाग कर वहां आई और जो गाड़ी वहां से जा रही थी उसमे सवार हो गई। वो एक मालगाड़ी थी। गाड़ी में चढ़ते ही दोनो ने राहत की सांस ली। दोनो की सांसे तेज चल रही थी पर चेहरे पर आजादी की चमक थी।



वो गाड़ी उन्हे मुंबई लेकर आई चुपचाप गाड़ी से निकल दोनो पहले पास की एक धर्मशाला में गई। वहां जाकर कुछ खाया पिया और पास के बाजार से सस्ते से कपड़े खरीद पहने। फिर दोनो धर्मशाला छोड़ पास की चॉल में कोई कमरा ढूंढने चल दी। घर दोनो जा नही सकती थी क्योंकि इतने समय बाद इस हाल में घर वाले स्वीकार नहीं करते उन्हे। दोनो ने वहां खुद को दोस्त बता कमरा ले लिया। वैशाली पढ़ी लिखी थी इसलिए उसने चॉल की मालकिन से बात कर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया पैसा पास में था ही थोड़ा तो उसने साथ ही पढ़ाई भी शुरू कर दी। एक दिन चॉल की नर्म दिल मालकिन ने उनके परिवार के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने झूठ बोल दिया कि अपने प्रेमी साथ भागी थी दोनो रुपए गहने ले उनके धोखा देने बाद घर वापिस लौटने की हिम्मत नही थी। फिर चॉल की मालकिन के जरिए उन्होंने एक एक कर अपने गहने भी बिकवा दिए।

अब वैशाली का एक मकसद था पढ़ लिखकर कुछ बनना कविता को पढ़ाई में रुचि नहीं थी इसलिए उसने पास में ही सिलाई सीखना शुरू कर दिया।

धीरे धीरे पांच साल गुजर गए वैशाली आईपीएस ऑफिसर तो नही पर एक अध्यापिका जरूर बन गई इधर कविता ने भी अपना छोटा सा बुटीक खोल लिया। दोनो लड़कियां अब चौबीस साल की हो चुकी थी दोनो ही अपने पैरों पर खड़ी थी। चॉल वाली आंटी भी उन्हें बेटियों सा प्यार करती थी और उनके जज्बे की कायल थी।

” कविता मुझे लगता है हमें एक बार अपने परिवार वालों से मिलना चाहिए जाकर पांच साल पहले हमारी पहचान क्या थी कोठेवाली पर अब हमारी नई पहचान बन चुकी है !” एक दिन वैशाली कविता से बोली।

” पर वैशाली मेरे मां बाप तो है नही चाचा चाची पर बोझ थी तो मुझे नही लगता वो लोग मुझे अपना मानेंगे भी ना बाबा ना मुझे नही जाना मैं अपनी आज की जिंदगी से खुश हूं !” कविता बोली।



” ठीक है तो मेरे साथ चल मेरठ( वैशाली का शहर )!” वैशाली बोली और दोनो सहेलियां आंटी से बोल मेरठ के लिए निकल पड़ी।

” तुम….!!” वैशाली के दरवाजा खड़काने पर उसकी मां ने दरवाजा खोला और ऐसे चौंक गई जैसे कोई अजूबा देखा हो फिर बेटी को गले लगा जोर जोर से रो दी वैशाली भी मां से लिपटी जार जार रो रही थी।

” कौन है नर्मदा ?” तभी वैशाली के पिता बाहर आ बोले और सामने बेटी को देख आंख मसलने लगे इतने उसके दोनो भाई भी आ गए।

” तुम यहां कैसे इतने साल कहां थी हमने तो सोचा था हमने तुम्हे खो दिया?” वैशाली के बड़े भाई ने एक साथ अनेक सवाल पूछ डाले।

” वो मैं……..!” वैशाली ने शुरू से लेकर अब तक की सारी दास्तान सुना डाली जिसे सुन हर कोई सकते में आ गया। 

” इतना कुछ सहा तुमने यहां क्यों नही आई इन पांच सालो में एक भी बार?” वैशाली की मां रोते हुए बोली।

” मां कैसे आती मैं एक बदनाम गली से भागी लड़की थी जिसे कोई इज्जत की नजर से नही देखता मेरे साथ आप लोगो की भी बदनामी होती ….आज मेरी खुद की पहचान है इसलिए मैं हिम्मत कर पाई हूं आप लोगों से मिलने आने की !” वैशाली रोते हुए बोली।

” बहुत बड़ी और समझदार हो गई है हमारी बहन चल अब तू आ गई अब सब ठीक हो जायेगा !” छोटा भाई उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला।

” नही भाई मुझे वापिस जाना है रात के अंधेरे में आई हूं सुबह के उजाले से पहले लौट जाऊंगी मेरे यूं अचानक आने पर लोग बात बनाएंगे जो मुझे स्वीकार नहीं फिर वहां मेरी नौकरी और कविता का बुटीक भी है !” वैशाली ने कहा।

” नही इतने सालों बाद हमे हमारी बच्ची मिली है अब हम दुबारा तुम्हे नही खो सकते लोगों की हमें परवाह नही !” वैशाली के पिता उसे सीने से लगाते हुए बोले।



” पापा मैं खोऊंगी नही अब आपसे बराबर संपर्क मे रहूंगी और बहुत जल्द शायद वापिस भी आ जाऊं पर अभी मुझे जाना होगा !” वैशाली रोते हुए बोली।

सबने उसे रोकने की बहुत कोशिश की पर अपना फोन नंबर दे सुबह होने से पहले वो और कविता निकल गए वहां से । एक दिन होटल में रुक वो मुंबई को रवाना हो गई।

यहां वैशाली का परिवार अब बेचैन हो गया इतने सालों बाद बेटी को जो देखा था पर ठीक से लाड़ तक ना लड़ा पाए। वो लोग बराबर वैशाली के संपर्क में रहें। बीच बीच में उसके भाई वैशाली से मिल आते थे। कुछ समय बाद वैशाली के भाई की नौकरी मुंबई में लग गई और पूरे परिवार ने यहां सब बेच वहां बेटी पास बसने का निश्चय किया। सारा परिवार एक हो गया।

कविता भी उन्ही लोगों के साथ उनकी बेटी बनकर रहने लगी।

दोस्तों ये कहानी एक संवेदनशील मुद्दे पर लिखी गई है जिसमे मेरा मकसद किसी का दिल दुखाना नही है ना किसी पर उंगली उठाना । बस केवल इतना मकसद है मेरा की बदनाम गलियों की हकीकत सामने ला सकूं उसमे फंसी लड़कियों का दर्द बता सकूं हालाकि मैं उस दर्द को महसूस नहीं कर सकती उन्हे वही लड़किया महसूस कर सकती हैं मेरी तो बस एक कोशिश मात्र है। साथ ही ये कि किसी लड़की के साथ ऐसा होता है तो परिवार वालों को आगे बढ़ उन्हे अपनाना चाहिए समाज की भी जिम्मेदारी है कि ऐसी लड़कियों का तिरस्कार न कर उन्हे अपनी जिंदगी सुधारने का मौका देना चाहिए।

आपकी दोस्त 

संगीता

1 thought on “वो बदनाम गलियां – संगीता अग्रवाल”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!