“वृद्धाश्रम ही क्यों “-अंतरा

जब मैं कक्षा 12 में थी तो हमारे अध्यापक ने हम लोगों से पूछा कि आप लोग क्या करना चाहते हैं भविष्य में । कोई बोल रहा था कि सी.ए. बनेगा, बैंक में नौकरी करेगा, टीचर बनेगा ….जब मेरी बारी आई तो मैंने बोला कि मैं बड़े होकर एक वृद्ध आश्रम और एक अनाथ आश्रम खोलना चाहती हूं… मेरे इस जवाब से मेरे अध्यापक सहमत नहीं थे… और वह बोले… क्या इतना आसान होता है अनाथ आश्रम, वृद्धाश्रम खोलना ?   बहुत जिम्मेदारियां होती हैं ….बहुत पैसा लगता है.. अगर आज सोचो तो वह सच ही कहते थे… अभी तक तो मेरा सपना पूरा नहीं हो पाया…. हो सकता है भविष्य में मैं कभी इस बारे में कुछ कर पाऊं..

हिंदुस्तान जैसे देश में वृद्धाश्रम की जरूरत कैसे  पड़ी.. यह तो मुझे नहीं मालूम लेकिन  मैंने हमेशा यह सुना है कि  वृद्ध आश्रम में रहने वाले बुजुर्गों के  स्थिति के लिए हमेशा उनके बच्चे  ही जिम्मेदार होते हैं ।  लेकिन मैं यहां एक दूसरा पहलू भी रखना चाहती हूं कि वृद्ध आश्रम में रहने वाला हर बुजुर्ग अपने बच्चों से प्रताड़ित नहीं होता । हां ….उसे लगता जरूर होगा कि वह अपने बच्चों से प्रताड़ित है ।

जैसे कि अगर कोई लड़का  अपनी नौकरी की वजह से दूसरे शहर  या दूसरे देश जानना चाहता है तब तो उसके माता-पिता उसका पूरा सहयोग करते हैं लेकिन जब नौकरी की वजह से वही बस जाता है और वह अपने माता-पिता को अपने पास रखना चाहता है तो यही माता-पिता home sickness  की वजह से उसके साथ जाने से इंकार कर देते हैं…  क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका देश.. उनका शहर ..उनका घर और उनका परिवार पीछे छूट जाएगा… और उन्हें अपने बेटे के घर में उतनी अहमियत नहीं मिलेगी । समय बीतने के साथ और माता पिता की उम्र बढ़ने के  साथ कुछ समय बाद इसका एक आखरी रास्ता वृद्ध आश्रम ही नजर आता है

आप लोगों ने भी अपने आस पास ऐसा कोई ना कोई परिवार जरूर देखा होगा जिसमें माता  खुद बहू और बेटे के बीच में  मतभेद पैदा करने की कोशिश करती है …घर में  कलह क्लेश करती है.. और आखिरकार ऐसी स्थिति पैदा कर देती हैं कि उनके साथ निर्वाह कर पाना मुश्किल हो जाता है…  छोटे शहरों में तो यह आम बात है  और लोग बर्दाश्त करते रहते हैं …. लेकिन बड़े शहरों में कुछ  लोग ऐसी माता को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देते हैं…




कुछ पुरुष बुजुर्ग अपनी हठधर्मिता के कारण भी वृद्ध आश्रम पहुंच जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके परिवार वाले उन पर ध्यान नहीं दे रहे हैं… वह अपने जीवन को अपने तरीके से जीना चाहते हैं  जिसमें  उनका परिवार खरा नहीं उतरता.. वह किसी के साथ एडजस्ट नहीं करना चाहते… और आखिरकार  वृद्धाश्रम ही उनके लिए एकमात्र उपाय  बचता है

वैसे देखा जाए तो छोटे शहरों में वृद्ध आश्रम का कोई चलन नहीं है… गांव में तो बिल्कुल भी नहीं… लेकिन यह चीज तो मैं बचपन से देखते आ रही हूं कि  ज्यादातर बुजुर्ग दंपति अपने पैतृक मकान में गांव में अकेले ही रहते हैं और उनके सभी पुत्र पुत्रियों के विवाह होने के बाद अलग-अलग शहरों में रहने चले जाते हैं… तो अगर देखा जाए तो इसे भी वृद्ध आश्रम की श्रेणी ही मानी जा सकती है… क्योंकि माता-पिता तो वहां भी अकेले ही रह रहे होते हैं… कभी-कभी अपनी बहू से पटरी ना बैठने की वजह से भी माता-पिता अपने पैतृक मकान में ही रहना पसंद करते हैं… पैत्रक मकान से लगाव के कारण वह शहर में नहीं जाना चाहते हैं… बेटे के घर में वह आजादी नहीं मिलेगी इसलिए भी कुछ लोग अपने पैतृक मकान को छोड़ना नहीं चाहते हैं..

वैसे देखा जाए तो वृद्ध आश्रम में वास्तविक जरूरतमंदों के अलावा ऐसे लोग भी रह रहे हैं जो चाहे तो अपने स्तर से  इस समस्या का समाधान कर सकते हैं… मैं यह नहीं कहती कि वृद्ध आश्रम में रहने वाला हर बुजुर्ग अपनी वजह से ही वृद्ध आश्रम में रह रहा है… लेकिन कभी-कभी अपने व्यक्तिगत  हठ को छोड़ देना भी उचित होता है… मेरी पूरी बात का सार यह है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती…  अगर गलती बेटे और बहू की होती है तो कहीं ना कहीं उस में सहयोग माता-पिता का भी होता है… मैं इसमें उन लोगों को शामिल नहीं कर रही हूं जो जानबूझकर अपने माता पिता को अपनी सफलता और आजादी में में बाधक मानते हैं… क्योंकि ऐसे लोग   भी अपनी वृद्धावस्था में वृद्ध आश्रम में  पाए जाते हैं….

यह  लेख मेरा स्वयं का एक मत है ….मैं   इससे किसी की भावना को ठेस नहीं पहुंचाना  चाहती हूं…

मौलिक

स्वरचित

अंतरा

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