तिरस्कार – पुष्पा पाण्डेय 

किसन कार्यालय से घर जा रहा था। अपने काम से ड्राइवर ने एक दुकान पर गाड़ी को थोड़ी देर के लिए रोक दिया। गाड़ी में बैठे किसन की नजर एक ठेले की दुकान पर अटक गयी। ठेले पर लिखा था कि ‘यहाँ चावल की रसमलाई मिलती है।’ 

किसन को जैसे एक झटका सा लगा और उस चावल की रसमलाई ने उसे बीस साल पीछे ढकेल दिया।

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चाची भी तो चावल की बनी गोली को दूध की राबड़ी में डाल कर उसे चावल की रसमलाई बोलती थी। अक्सर चाची नवीन भैया के लिए बनाती थी और मुझे नजर लगने के डर से थोड़ी मात्रा में दे देती थी। मैं पाकर बहुत खुश हो जाता था। सचमुच वह चावल की रसमलाई बड़ी स्वादिष्ट रहती थी। खाने के बाद प्यास लगने से भी पानी नहीं पीता था कि कहीं जिह्वा से रसमलाई की स्वाद न चली जाए। आज बरसों बाद नाम पढ़कर उसे चखने की जिज्ञासा पनप उठी। इंतजार था तो ड्राइवर के आने का।

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घर पहुँच कर उस रसमलाई को खाने की जल्दी थी। सोफे पर ही बैठकर  प्लास्टिक के डोंगे में लाए रसमलाई को खाने लगे। पहला ही चम्मच लेने के बाद एक बार फिर चौकने की बारी आ गयी।

‘अरे यह तो बिल्कुल चाची के हाथों की बनी रसमलाई का स्वाद है।’

किसन आज तक उस स्वाद को भुला नहीं था, क्योंकि  कभी उसकी क्षुधा तृप्त हुई ही नहीं थी। वह सोचने लगा- काश! मैं गया होता खरीदने और अगले दिन का इंतजार करने लगा।

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चावल की रसमलाई ने उसकी नींद उड़ा दी थी। क्या यह इत्तेफाक है या हकीकत? चाची के हाथ का स्वाद यहाँ?

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दस-बारह साल का रहा होगा जब चाची ने उसे दोस्तों के सामने उसकी पिटाई कर शरीर से वस्त्र उतरवा लिया था। उसकी क्या गलती थी वो आज- तक नहीं समझ पाया। नवीन के ही कहने पर तो  वह नवीन की कमीज मंदारी के बंदर को पहना दिया था। नवीन चाची का एकलौता बेटा था। किसना जब से समझने लायक हुआ तब से चाची के यही ताने सुनते-सुनते बड़ा हो रहा था, कि माँ-बाप बुढ़ापे में बच्चा पैदा करके हमारे ऊपर बोझ छोड़ गये।

चाचा का प्यार मरहम का काम करता था। स्कूल में तो उसका नाम कृष्णा था, लेकिन पता नहीं कैसे किसना नाम से ही पहचान बन गयी। 

         दोस्तों के सामने हुआ वह तिरस्कार अबोध मन को विक्षिप्त सा कर दिया। 

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उसके स्वभाव में बदलाव देखकर एक दिन चाचा ने पूछा।

“आजकल खेलने नहीं जाते हो। हमेशा कमरे में ही बैठे रहते हो? सिर्फ स्कूल जाने के लिए निकलते हो और स्कूल से आकर कमरे में बैठ जाते हो।”

वह अंत तक खामोश ही रहा। इस बार की त्रैमासिक परीक्षा में असफल रहा। चाचा की डाँट और चाची के तानों ने और मर्माहत कर दिया। ———

इसी बीच उसके मामा आए और चाचा ने उसे मामा के घर भेज दिया। माहौल बदला, स्कूल बदला और दोस्त भी बदल गये। धीरे-धीरे किसना सामान्य होता गया। मामा का संयुक्त परिवार था, उसमें दो रोटी किसना को भी मिल जाती थी।




किसना पढ़ने में काफी होशियार था। हमेशा अव्वल ही आता था। किसना के चाचा अक्सर उससे मिलने आते थे।अपनी तरफ से कुछ पैसे-रुपये की भी कमी नहीं रखते थे। नवीन की शादी में किसना गया भी था, लेकिन मेहमानों की तरह। समय बीतता गया और किसना स्कूल से काॅलेज और फिर काॅलेज से प्रशासनिक अधिकारी बन गया।

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अगले दिन फिर ऑफिस से लौटते समय किसना ड्राइवर को उसी जगह चलने को कहा।

वहाँ पहुँच कर वह ठगा सा खड़ा रहा। ठेला टूटा-फूटा बिखरा पडा था। आज-पास की जगह भी क्षतिग्रस्त थी। पूछने पर पता चला कि रात में एक बेकाबू ट्रक ने आकर सबकुछ बर्बाद कर दिया। ठेले वाले को पुलिस सरकारी अस्पताल ले गयी।

किसना बेचैन हो उठा। अस्पताल जाने से अपने को रोक नहीं पाया। 

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ऑक्सीजन लगे  महिला को देखकर वह स्तब्ध रह गया। वह चाची ही थी। अभी चाची की साँसें चल रही थी। डाॅक्टर की इजाजत से वह चाची से मिलने गया। किसना के देखते ही चाची के आँखों से आँसू की धार निकल गयी। दोनों हाथ जोड़कर क्षमा की मुद्रा में धीमी आवाज में बोली।

“मुझे माफ कर देना। मैं ने तुम्हारा बहुत तिरस्कार किया। वही कर्म आज सामने है।”

इतना कहते ही उसकी आँखें बंद हो गयी।

शायद चाची की साँसे किसना से माफी मांगने के लिए ही चल रही थी। —————–

आज पहली बार किसना फूट-फूट कर रो पड़ा।—–

अंतिम कर्म कर अपना फर्ज निभाया। दस साल से किसना चाचा के सम्पर्क में नहीं था। जब से वे नवीन के साथ अमेरिका गये थे, तब से ही सम्पर्क टूट गया था। यहाँ मुम्बई में ठेले की दुकान पर कैसे यह राज ही रह गया।

 

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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