जबसे विभा शादी कर ससुराल आई, वह प्रयास करती कि घर में सभी का ख्याल रखे, सास ससुर की सेवा सुश्रुषा में कोई कसर न रहे, घर में प्रेम और हंसी खुशी का माहौल बना रहे।
यूं तो विभा में कोई कमी नहीं थी पढ़ाई लिखाई, सिलाई कढ़ाई, घर का काम सभी में दक्ष थी वो, बस रंग जरा सांवला था। मगर साधारण रंग रूप की विभा को माँ ने शुरू से ही समझाया था कि छत्तीस गुण में से एक गुण है तेरा रंग रूप, अपने और गुणों से तू उसकी महत्ता कम कर सकती है । अपने व्यवहार और सुघड़ता से तू देखना तू सबका दिल जीत लेगी।
वैसे भी जिस माहौल से विभा आती थी, वहां एक अच्छी पत्नी, माँ, बहू का तमगा ही सर्वोपरि था, सो माँ की यह बात विभा ने गांठ बांध ली थी।
उसी सीख पर वह ससुराल में गृहस्थी बसा रही थी पर जब तब छोटी मोटी गलती होती, सास यही कहती कि मेरी तो तकदीर फ़ूट गई जो तुझे बहू बनाकर लाई, न रूप-रंग, न काम, न सामाजिकता का सलीका। देखना दूसरे बेटे की बहू ऐसी लाऊंगी कि सारे रिश्तेदारों की आँखें फटी की फटी रह जाएंगी।
विभा में अपनी शक्लो- सूरत को लेकर हीन भावना शुरू से ही थी, ऊपर से सासू माँ के ये शब्द उसका कोमल हृदय और छलनी कर देते। इसी दौरान वो दो बच्चों की माँ बनी , पर स्थिति ज्यों की त्यों थी। जब तब काम में देर होने पर सासू माँ का वही डायलॉग तैयार था , “हाय राम! मेरी तो तकदीर ही फूट गई जो ऐसी बहू आई, काम की न काज की दुश्मन अनाज की।” यूं भी आम घरों की तरह सास- बहू और घरेलू मामलों में पति की ज्यादा भूमिका थी नहीं, बस जैसे तैसे कर समय बीत रहा था।
आखिर वह समय भी आया जिसका सास सालों से इंतेज़ार कर रही थी। देवर के लिए, सासू माँ अपनी जान में बड़ी ख़ूबसूरत लड़की देख , चट मंगनी फट ब्याह कर लाई। सच देवरानी आई भी ऐसी थी कि, नाते रिश्तेदार, पड़ोसी सब देखते रह गए और ज़ाहिर सी बात है कि सासू माँ बहुत खुश थी। जब तब कोई मुंह दिखाई की रस्म के लिए आता, तारीफ के बाद सासू माँ फूली न समाती। अब विभा को माँ की वो सीख बेमानी लगने लगी थी कि गुण रूप से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
भाग्य की बात थी, कि उसी दौरान महीने भर में में ही विभा के पति का तबादला दूसरे शहर हो गया और विभा व उसका परिवार उनके साथ वहां चले गए।
समय बीतता गया, साल भर बाद बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां आई तो विभा लौटकर फिर बच्चों के साथ कुछ दिन ससुराल रहने आई। आकर सासू माँ के पैर छूकर करीब बैठी ही थी कि देवरानी तैयार थी अपने मायके जाने को। सासू माँ भी बोली, “हां और नहीं तो वैसे भी सारा साल खटती है! सुनकर विभा अवाक तो थी कि वह वहां देवरानी और सास के साथ कुछ समय बिताने आई है या कामवाली बनने? दो चार दिन ही बीते थे के वही ठाक के तीन पात। गाहे बगाहे सास के वही ताने तैयार थे, उसके लिए । छुट्टियां बीतते ही विभा वापिस बच्चों सहित पति के पास वापिस चली गई, पर इस बार उसका मन खट्टा हो गया कि वह कितना ही कर ले सासू माँ उसे कभी पसंद नहीं करेगी। अब वो यदा कदा बस फोन पर ही सास का हाल चाल पूछ इतिश्री कर लेती।
विभा भी अपनी गृहस्थी में वहीं रच बस गई, ससुराल में अब बस ब्याह शादी में ही आना जाना होता। जीवन बच्चों और घर- बार में व्यस्त हो गया था।
समयुप्रांत बच्चे स्कूल पूरा कर हॉस्टल चले गए। अचानक एक रोज़ देवर का फोन आया कि माँ को लकवा मार गया है, तबियत ज़्यादा खराब है, बिस्तर पर ही हैं। बच्चों का पेपरों के दौरान पढ़ने का समय है। भाभी कुछ दिन आ जाती तो मदद हो जाती। विभा के संस्कार ऐसे थे कि सुनते ही सोचने की जरूरत ही न थी। पति के खाने के लिए कामवाली लगा, अपना सामान बांध ससुराल चल दी।
पहुंचते ही उसने सासू माँ की सारी जिम्मेदारी संभाल ली। उन्हें नहलाना धुलाना, दवाई, साफ सफाई, रिश्तेदारों की आवाजाही से लेकर दिन रात उनके पास बैठ बतियाना, मन बहलाना विभा ने सब बखूबी किया। उसकी मेहनत रंग लाई और सासू माँ महीने भर बाद ही बेंत के सहारे चलने लगी। ख़बर मिलते ही पति उसे लिवाने आ पहुंचे। विभा चलने को तैयार हुई, जाते समय कहने लगी ,”माँ, आप कहें तो मैं जाऊं? सासू माँ उसका हाथ पकड़ बच्चे के माफिक ज़ार ज़ार रोने लगी। उसी समय रिश्ते में दूर की बुआ सास आ गई और ये बात अधूरी रह गई। बातों बातों में बुआजी बोली, “अरे विभा! तेरी रूपवती देवरानी कहीं नज़र नहीं आ रही।” विभा कुछ कहती इससे पहले ही सासू माँ बोल उठी, “असली रूप तो गुणों में है,जीजी। मेरी असली रूपवती और गुणवती तो बड़ी बहू ही है, जिसने मुझ बुढ़िया को फिर से पैरों पर खड़ा कर दिया। सच मेरे तो भाग्य खुल गए जो ऐसी सर्वगुण संपन्न बहू आई।” बुआजी चुटकी लेने में कौन सा कम थी, फट से बोल पड़ी, “अच्छा भाभी!तुम तो कहती थी कि भाग्य फूट गए जो ऐसी बहू आई। अब अपनी जरूरत के समय अच्छी हो गई? अब बारी फिर से सासू माँ की थी, भावुक हो बोली, “जीजी, बख्त पड़े ही अच्छे बुरे की पहचान होती है, वरना तो जो दिखता है वही बिकता है। बस फ़र्क इतना है कि शक्ल का रूप का रंग एक बार में दिख जाता है और गुणों का रूप दिखने में समय लगता है।”
आज विभा की आँखें खुशी से छलछला गई और माँ की उस बात का अर्थ भी समझ आ गया था कि इंसान के गुण और व्यवहार हमेंशा रूप पर भारी पड़ता है।
लेखिका
ऋतु यादव
रेवाड़ी (हरियाणा)