नेहा एक मल्टीनेशनल कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर थी। नेहा और अमित ने प्रेम विवाह किया था। नेहा और अमित की शादी की कुछ दिन बाद ही नेहा के ससुर की मृत्यु हो गई थी। अमित अपनी मां सुशीला को अपने साथ ही मुंबई ले आया था मगर बनारस की रहने वाली सुशीला देवी को मुंबई का शहरी जीवन रास नहीं आया। वह पुरानी विचारों की महिला थी। नेहा को हर बात पर टोकती रहती थी।
बहू पूजा क्यों नहीं की?
बहू आज खाना बाहर से क्यों मंगवाया?
नेहा घर और ऑफिस में तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश करती मगर फिर भी सुशीला जी उसकी हर चीज में कमी निकलती रहती। नेहा चुपचाप सब सहती रहती थी। मगर भीतर ही भीतर उसका दम घुटता रहता था। कभी-कभी ऑफिस की थकान और घर की उलझन में वह बुदबुदा उठती।
क्या मेरी तकदीर ही फूट गई है? शादी तो प्यार से हुई थी मगर अब जिंदगी का हर दिन संघर्ष बनता जा रहा है।
सुशीला जी भी अकेलेपन से जूझतीं। उनका बेटा अब नेहा का पति था, पर उनके लिए वक्त कम होता जा रहा था।
एक दिन नेहा ऑफिस में ज़ल्दबाज़ी में गलती कर बैठी। बॉस की डांट खाकर लौटी तो आँखें नम थीं। दरवाज़ा खोला तो सामने सुशीला जी खड़ी थीं, हाथ में तुलसी वाला काढ़ा लिए।
“बेटा, गलती काम की होती है, इंसान की नहीं। चल, पहले ये पी ले।”
नेहा चौंकी, फिर मुस्कराकर काढ़ा ले लिया।
उस रात दोनों ने पहली बार खुलकर बात की—नेहा ने अपने करियर और उलझनों की बात की, सुशीला जी ने अपने अकेलेपन की। दोनों ने समझा कि वो एक-दूसरे की दुश्मन नहीं, बस अनजान थीं।
अब नेहा कभी-कभी सुबह पूजा कर देती है, और सुशीला जी मोबाइल पर वीडियो कॉल करना सीख रही हैं।
रिश्ते अगर समझदारी से सींचे जाएं, तो समय उन्हें फिर जोड़ ही देता है।
सर्वथा अप्रकाशित एवं मौलिक रचना
लक्ष्मी कानोडिया
अनुपम एंक्लेव किशन घाट रोड
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उत्तर प्रदेश